ट्रंप 2.0 की शुरुआत बेहद आक्रामक अंदाज में हुई है. 2016 की संकीर्ण जीत और 2020 की हार के मुकाबले, इस बार उनकी जीत कहीं अधिक जबरदस्त रही. दूसरी बार राष्ट्रपति बनने के बाद, डोनाल्ड ट्रंप ने एक बेलगाम दबंग की तरह अपनी मनमानी नीतियों को थोपने में कोई देर नहीं की. वैश्विक व्यापार में टैरिफ युद्ध की घोषणा से लेकर सैकड़ों विदेशी नागरिकों को ‘अवैध प्रवासी’ बताकर बेड़ियों में जकड़कर निर्वासित करने, यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की और अन्य नेताओं को टीवी पर धमकाने, गाजा को फिलिस्तीनियों से खाली करवाकर उसे एक अश्लील ट्रंप-थीम वाले पर्यटन स्थल में बदलने, और कनाडा को अमेरिका का 51वां राज्य घोषित करने जैसे विवादित और बेतुके बयान देने तक – डोनाल्ड ट्रंप ने पूरी दुनिया में खलबली मचा दी है.
अपने पहले कार्यकाल में ट्रंप श्वेत वर्चस्ववादी, महिला-विरोधी राजनीति और मजबूत ईसाई कट्टरपंथी रुझान वाले एक जहरीले प्रतीक बन गए थे. अब वे अपने नारे ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ (मागा) के आक्रामक राष्ट्रवादी स्वर को और आगे बढ़ा रहे हैं. टैरिफ और लोगों को देश से निकालना उनके पसंदीदा हथियार हैं, जिनके जरिए वे खुद को अमेरिकी व्यापार और अमेरिकी श्रमिकों का एक ऐसा राष्ट्रवादी मसीहा के बतौर पेश करते हैं, जो कथित तौर पर ‘अनुचित’ व्यापार बाधाओं और ‘नौकरी छीनने वाले प्रवासियों’ से उन्हें बचाने का दावा करता है.
इस योजना में ट्रंप को एक करीबी सहयोगी मिल गया है – दुनिया का सबसे अमीर व्यक्ति एलन मस्क, पर विडंबना है कि वे खुद एक प्रवासी और श्वेत दक्षिण अफ्रीकी मूल के अमेरिकी नागरिक हैं. मोदी-अडानी गठजोड़ के विपरीत, जहां मोदी इस साझेदारी को छिपाकर रखना पसंद करते हैं, ट्रंप खुलेआम मस्क के साथ अपने गठबंधन का प्रदर्शन करते हैं. ट्रंप न केवल अपने चुनावी अभियान में मस्क के भारी कॉर्पारेट योगदान को स्वीकार करते हैं, बल्कि बदले में उन्हें नवगठित ‘डिपार्टमेंट ऑफ गवर्नमेंट एफिशिएंसी’ का प्रमुख बनाकर एहसान भी चुकाते हैं. अब जब मस्क के शेयर गिरने लगे हैं, तो ट्रंप उनकी मदद के लिए आगे आ गए हैं और उन्होंने अमेरिकी जनता से मस्क की इलेक्ट्रिक वाहन कंपनी टेस्ला का समर्थन करने की अपील की है.
ट्रंप की घरेलू नीतियां तो उम्मीद के मुताबिक ही चल रही हैं, लेकिन विदेश नीति के क्षेत्र में वे कुछ बड़े बदलाव करते दिख रहे हैं. जेलेन्स्की के साथ टीवी पर हुई बहस और टकराव इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जहां ट्रंप ने यूक्रेन पर तीसरे विश्व युद्ध का जोखिम उठाने का आरोप लगाया और जेलेन्स्की पर तथाकथित ‘शांति समझौता’ स्वीकार करने का दबाव बनाते हुए यूरोप से रिश्ते खराब करने और नाटो गठबंधन को अस्थिर करने का खतरा मोल लेने को तैयार दिखे. अक्सर विश्लेषक ट्रंप की धौंस-पट्टी को उनकी अजीबोगरीब कार्यशैली का हिस्सा मानते हैं, जबकि कुछ का कहना है कि वे पुतिन के इशारे पर काम कर रहे हैं. यानी, इन विश्लेषकों की नजर में ट्रंप की राजनीति एक असामान्य घटना है, जो अमेरिकी साम्राज्यवाद के ऐतिहासिक गतिपथ और मौजूदा प्राथमिकताओं से अलग है.
लेकिन अगर गौर से देखें, तो ट्रंप जिस दिशा में बढ़ रहे हैं, वह चीन पर ध्यान केंद्रित करना है, जिसे वे अमेरिका का सबसे प्रमुख रणनीतिक लक्ष्य मानते हैं. शीत युद्ध के दौर में अमेरिका का मुख्य प्रतिद्वंद्वी सोवियत संघ था, लेकिन उसके विघटन के बाद यह दौर समाप्त हो गया. नाटो भी शीत युद्ध की उपज था और सोवियत संघ के पतन के साथ उसे भी भंग कर देना चाहिए था. हालांकि, यूरोप और अमेरिका ने रूस को काबू में रखने और पश्चिमी दुनिया के साझा वर्चस्ववादी हितों की रक्षा करने के लिए इस सैन्य गठबंधन को बनाए रखा. अब अमेरिकी शासक वर्ग में यह धारणा मजबूत हो रही है कि चीन से मिलने वाली चुनौती इतनी बढ़ गई है कि उसे घेरने और रोकने को अन्य रणनीतिक प्राथमिकताओं से ऊपर रखना होगा. इसी कारण अमेरिका रूस और चीन के गठजोड़ को तोड़ने और ब्रिक्स (BRICS) को ‘मृत’ घोषित करने की हताशपूर्ण कोशिश कर रहा है. इसी बीच, अमेरिका की इजरायल नीति में कोई बदलाव नहीं आया है. ट्रंप, पहले की तरह, फिलिस्तीनी भूमि पर इजरायल के जनसंहारी कब्जे को पूरा समर्थन दे रहे हैं और अमेरिका में फिलिस्तीन समर्थक आवाजों के दमन को और तेज कर रहे हैं.
ट्रंप के एजेंडे में भारत कहां खड़ा है? पिछले दो दशकों में, खासकर भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के बाद से, भारत ने खुद को अमेरिका का एक प्रमुख रणनीतिक सहयोगी माना है. 2014 में सत्ता में आने के बाद से ही मोदी सरकार यह भ्रम फैलाने की कोशिश कर रही है कि भारत की अंतरराष्ट्रीय साख में जबरदस्त इजाफा हुआ है, खासकर अमेरिका के साथ भारत की दोस्ती और ट्रंप के साथ मोदी की ‘खास नजदीकी’ बढ़ी है. लेकिन अब ट्रंप मोदी को खुलकर नजरअंदाज कर रहे हैं और हर मौके पर भारत को अपमानित कर रहे हैं. अमेरिका में बिना जरूरी दस्तावेजों के रह रहे भारतीय नागरिकों के साथ जो सख्त और अपमानजनक व्यवहार किया जा रहा है, वह सबसे क्रूर उदाहरणों में से एक है. ट्रंप ने मोदी की मौजूदगी में भारत पर टैरिफ का गलत फायदा उठाने का आरोप लगाया है और अब मोदी सरकार द्वारा घोषित आयात शुल्क में भारी कटौती को अमेरिकी जीत के तौर पर पेश कर रहे हैं.
अमेरिका निश्चित रूप से भारत को एक बड़े बाजार और चीन को काबू में रखने की अपनी रणनीति में एक अहम सहयोगी के रूप में देखता है. लेकिन भारतीय-अमेरिकी समुदाय के उदय और ट्रंप-मोदी के बीच तथाकथित खास रिश्ते को लेकर भारत में आरएसएस और भाजपा द्वारा फैलाया गया प्रचार अब पूरी तरह बेनकाब हो गया है. अब तक अमेरिका के साथ भारत का व्यापार अधिशेष था, लेकिन ट्रंप इसे उलटना चाहते हैं और अमेरिकी उत्पादों के लिए भारत में ज्यादा बाजार मांग रहे हैं. इससे भारत के अमेरिका को होने वाले निर्यात, खासकर दवा और आईटी क्षेत्र में, और भारतीय उत्पादकों, खासकर किसानों को, भारी नुकसान होगा. अगर अमेरिका के अत्यधिक सब्सिडी वाले सस्ते कृषि उत्पाद भारत में आ गए, तो भारतीय कृषि तबाह हो जाएगी. मोदी सरकार ने पहले ही अमेरिकी ऑटो उद्योग, खासकर मस्क की टेस्ला कंपनी को, बहुत रियायतें दी हैं. भारत के दूरसंचार दिग्गज, जियो और एयरटेल, मस्क की दूरसंचार कंपनी स्पेसएक्स के साथ करार कर रहे हैं ताकि भारत में स्टारलिंक इंटरनेट सेवा बेची जा सके.
जहां उत्तर और दक्षिण अमेरिका में अमेरिका के पड़ोसी देश ट्रंप प्रशासन की टैरिफ धमकियों और अहंकारी रवैये के खिलाफ डटकर खड़े हो रहे हैं, वहीं मोदी सरकार ने चुपचाप आत्मसमर्पण की नीति अपना ली है. यह सिर्फ भारत की राष्ट्रीय गरिमा का सवाल नहीं है – वह भारत जो लंबी उपनिवेश विरोधी लड़ाई के बाद स्वतंत्र हुआ था – बल्कि भारत के महत्वपूर्ण आर्थिक हितों और उसकी रणनीतिक स्वायत्तता का भी सवाल है, जो देश के विकास के लिए जरूरी घरेलू और विदेशी नीतियों को तय करने की स्वतंत्रता देती है. ट्रंप प्रशासन अमेरिकी वर्चस्व के ऐसे आक्रामक दौर का प्रतिनिधित्व करता है, जो संयुक्त राष्ट्र जैसी युद्धोत्तर बहुपक्षीय व्यवस्थाओं को नकारने लगा है. पूरी दुनिया को अब इस बढ़ते अमेरिकी खतरे का जवाब तलाशना ही होगा, जो वैश्विक शांति, स्थिरता, सतत विकास और जलवायु न्याय के लिए गंभीर खतरा बनता जा रहा है.