वर्ष - 33
अंक - 50
07-12-2024

स्त्रियों की पूरी आजादी के बिना जाति उन्मूलन असंभव है

[ भाकपा-माले महासचिव का. दीपंकर भट्टाचार्य का  ‘ऑल इंडिया  फेडरेशन ऑफ सोशल जस्टिस’ द्वारा आयोजित ‘जाति जनगणना, आरक्षण और महिलाओं के अधिकार-सामाजिक न्याय के तीन आधार’ विषय पर, 3 दिसंबर, 2024, महाराष्ट्र सदन, नई दिल्ली में दिया गया भाषण ]

सिर्फ एक हफ्ता पहले हमने अपने संविधान को अपनाने की 75वीं वर्षगांठ मनाई. आदर्श रूप से, 75 वर्षों के बाद हमें गणराज्य की मजबूती, लोकतंत्र की गहराई और अधिकारों के विस्तार पर चर्चा करनी चाहिए थी. इसके बजाय, स्थिति बिलकुल उलट है. हमारा पूरा संविधान खतरे में है. जब मैं कहता हूं कि पूरा संविधान खतरे में है, तो मेरा मतलब हर उस शब्द से है जो संविधान की प्रस्तावना में दर्ज है.

आज कुछ लोग प्रस्तावना में से समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्दों को हटाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटा रहे हैं. सौभाग्य से, सुप्रीम कोर्ट ने प्रस्तावना को संविधान की मूल संरचना का हिस्सा माना है, इसलिए ये शब्द अब तक बरकरार है. लेकिन यदि हम सरकार की नीतियों और वर्तमान विमर्श को देखें, तो स्पष्ट है कि संविधान को खारिज करने और विकृत करने की साजिश जारी है. ऐसी स्थिति में संविधान की रक्षा करना हमारी मुख्य जिम्मेदारी है.

आज का विषय है सामाजिक न्याय के तीन आधार – आरक्षण, जाति जनगणना और महिलाओं के अधिकार. इस पर बात करने से पहले, मैं संविधान की प्रस्तावना में मौजूद एक महत्वपूर्ण शब्द समानता की बात करना चाहूंगा. यदि हम आंबेडकर के विचारों को देखें, तो समानता जाति उन्मूलन के बिना असंभव है. जाति असमानता की एक प्रणालीगत व्यवस्था है. जब तक इसे कमजोर या खत्म नहीं किया जाता, सच्चे अर्थों में समानता की स्थापना नहीं हो सकती. जब हम सामाजिक न्याय की बात करते हैं, तो यह सामाजिक समानता की दिशा में एक कदम है, और आरक्षण सामाजिक न्याय की ओर बढ़ने का एक साधन है.

बिहार की जातिगत जनगणना के नतीजों से पता चलता है कि राज्य की 85% आबादी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अति पिछड़ा वर्ग से आती है, जबकि केवल 15% आबादी सामान्य वर्ग या तथाकथित ऊंची जातियों से है.

आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) को 10% आरक्षण देने का मतलब है कि सामान्य वर्ग की लगभग पूरी आबादी को आरक्षण का लाभ मिल रहा है. क्योंकि 15% सामान्य वर्ग में से 10% को आरक्षण दिया गया है, जो लगभग उनकी पूरी आबादी को कवर करता है. यह व्यावहारिक रूप से सामान्य वर्ग के लिए 100% आरक्षण सुनिश्चित करने जैसा है.

इसके विपरीत, शिक्षा का निजीकरण अमीरों के लिए 200%, 300%, या 400% आरक्षण जैसा काम करता है. महंगी फीस चुका सकने वाले अमीर आसानी से शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं, जबकि गरीब और पिछड़े वर्गों के लिए यह लगभग असंभव है. वहीं, अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की 50% सीमा अब भी बनी हुई है, लेकिन ईडब्ल्यूएस आरक्षण के कारण यह सीमा भी टूट चुकी है.

तमिलनाडु ने अपने आरक्षण को संविधान की 9वीं अनुसूची में शामिल कर कानूनी सुरक्षा प्रदान की है. बिहार और अन्य राज्यों को भी इस दिशा में कदम उठाने की जरूरत है, क्योंकि वर्तमान समय में 50% की सीमा तर्कहीन और अप्रासंगिक हो गई है.

जातिगत जनगणना के नतीजे यह स्पष्ट करते हैं कि समाज में गहरी असमानता और प्रतिनिधित्व का संकट अब भी कायम है. समाज के हाशिए पर रहने वाले समुदायों का प्रतिनिधित्व बेहद कम है. इसलिए, आरक्षण का विस्तार न केवल इन समुदायों को न्याय दिलाने का एक जरिया बनेगा, बल्कि उनके राजनीतिक, सामाजिक और शैक्षणिक प्रतिनिधित्व को भी सशक्त करेगा.

हम जब महिलाओं के अधिकारों की बात करते हैं, तो यह सिर्फ आरक्षण तक सीमित नहीं होना चाहिए. यहां तक कि आरक्षण के लिए भी, हम देखते हैं कि जो आरक्षण मंजूर हुआ है, वह भी जल्द लागू होता नहीं दिख रहा है. हमें महिलाओं के अधिकारों को व्यापक दृष्टिकोण से देखना होगा.

यदि आप सच में जाति उन्मूलन चाहते हैं, तो यह महिलाओं की पूरी आजादी के बिना संभव नहीं है. जब तक शादियां जातिगत सीमाओं में बंधी रहेंगी और अंतरजातीय विवाह अपवाद बने रहेंगे, तब तक जाति का उन्मूलन संभव नहीं है. और जब तक आधी आबादी को अपने जीवन के फैसले लेने की अधिक आजादी और निर्णय लेने की शक्ति नहीं मिलेगी, तब तक जाति से परे शादियों को आम नहीं बनाया जा सकता.

ये सारी बातें आपस में गहराई से जुड़ी हुई हैं. यदि आप वास्तव में इस व्यापक नजरिए से सामाजिक न्याय की बात करते हैं, तो आपको आरक्षण का विस्तार करने, महिलाओं के अधिकारों को बढ़ाने और जातिगत जनगणना को इस दिशा में एक अहम कदम के रूप में अपनाने की जरूरत है.

जातिगत जनगणना को लेकर अभी भी मतभेद हैं, लेकिन जातिगत जनगणना, आरक्षण के विस्तार और महिलाओं के अधिकारों जैसे मुद्दों पर सहमति और एकजुटता बढ़ रही है. अब समय आ गया है कि सामाजिक न्याय के आदर्श के प्रति प्रतिबद्ध सभी लोग एकजुट होकर इस दिशा में काम करें.

आज जब हमारा संविधान खतरे में है, तो हमें हर दिन इसकी हिफाजत के लिए लड़ना पड़ रहा है. पिछले वक्ता ने सही कहा कि आज हम किसी भी मुद्दे पर बात करें, वह भारत के संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के सबसे अहम मुद्दे से जुड़ा हुआ है. यही वह बड़ी लड़ाई है जिसके भीतर हमारे हर मुद्दे और हर आंदोलन की ताकत है.

संविधान की प्रस्तावना सामाजिक न्याय के साथ-साथ आर्थिक और राजनीतिक न्याय की भी बात करती है. बाबा साहेब अंबेडकर ने हमें याद दिलाया था कि समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं. एक के बिना दूसरे का कोई मतलब नहीं है.

अपने गणतंत्र के 75वें साल में, हम यह संकल्प दोहराते हैं कि हम भारत के संविधान की रक्षा करेंगे और इसकी ‘प्रस्तावना’ में लिखे हर शब्द को साकार करेंगे. आइए मिलकर भारत को एक सच्चा समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाएं और हर नागरिक को संपूर्ण स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय दिलाएं. अब समय आ गया है कि हम संविधान के सपने को साकार करने के लिए एकजुट होकर काम करें.
अंत में, मैं उस चेतावनी को दोहराने के साथ अपनी बात समाप्त करूंगा जो अंबेडकर ने पचहत्तर साल पहले संविधान को अपनाते वक्त दी थी. वह हमें याद दिलाते रहे कि समानता केवल वोट का अधिकार ही नहीं है, बल्कि सामाजिक और आर्थिक समानता भी है. बिना इनके, हमारा लोकतंत्रा अधूरा रहेगा. बाबा साहेब ने हमें बार-बार आगाह किया था कि भारत की जमीन अब भी अलोकतांत्रिक है और यह संविधान इस अलोकतांत्रिक जमीन पर लोकतंत्रा का सिर्फ एक आवरण है.

इसका मतलब है कि हमें इसे लोकतांत्रिक बनाने के लिए समाज के हर क्षेत्र में समानता और न्याय स्थापित करना होगा. यदि ऐसा नहीं किया गया, तो यह अलोकतांत्रिक सामाजिक जमीन संविधान के ताने-बाने को चीरकर अलग कर देगी.

सबसे अहम बात, बाबा साहेब ने स्पष्ट शब्दों में चेतावनी दी थी कि यदि भारत कभी हिंदू राष्ट्र बनता है, तो यह इस देश पर आने वाली सबसे बड़ी त्रासदी होगी. हमें देश को इस विनाशकारी त्रासदी से बचाने की जरूरत है, जो आज हमारे सामने चुनौती बनकर खड़ी है. हम सभी भारत के लोकतंत्र के लिए इस साझा लड़ाई में सहयात्रा हैं.