- पुरुषोत्तम शर्मा
‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के 40वें साल में प्रवेश के मौके पर 31 अगस्त 2024 को नर्मदा घाटी के तीनों राज्यों के हजारों विस्थापितों सहित देश भर से आये किसान, मजदूर, सामाजिक और पर्यावरण आन्दोलन से जुड़े कार्यकर्ता मध्य प्रदेश के बड़वानी में एकत्रित हुए. इनमें मध्य प्रदेश के बड़वानी, धार, खरगोन और अलीराजपुर जिले से हजारों विस्थापित तथा महाराष्ट्र और गुजरात के विस्थापित भी मौजूद थे. बड़वानी के शहीद स्तंभ पर फूलहार और नमन करने के बाद नर्मदा बचाओ आन्दोलन की नेत्री मेधा पाटकर के नेतृत्व में पूरे बड़वानी शहर में रैली निकाली गयी और एक जन सम्मेलन आयोजित किया गया. नवलपुरा में यादव सभागृह में आयोजित इस जन सम्मेलन में सभी वक्ताओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन 17 सितम्बर को सरदार सरोवर का जलस्तर बढ़ाने पर सत्याग्रह आन्दोलन का संकल्प लिया. पिछले वर्ष 16-17 सितम्बर 2023 को अचानक बिना चेतावनी दिए क्षमता से ज्यादा भरे गए सरदार सरोवर में नर्मदा घाटी के हजारों घर ध्वस्त हुए थे और अनाज, चारा, सामान ही नहीं, मवेशी और इंसान भी डूब गये थे. इन आन्दोलनकारियों ने नर्मदा घाटी के ऊपरी क्षेत्र के बांध और चुटका परमाणु संयंत्र जैसी विनाशकारी योजनाओं पर फिर से पुनर्विचार की मांग की सम्मेलन के अंत में पूरे देश के लिए एक ‘नदी संरक्षण, नदी घाटी सुरक्षा एवं पुनर्जीवन’ पर निजी विधेयक संसद में पेश करने का संकल्प लिया गया.
कार्यक्रम में 10 राज्यों से आये प्रमुख लोगों में संयुक्त किसान मोर्चा के नेता व अखिल भारतीय किसान महासभा के राष्ट्रीय सचिव पुरुषोत्तम शर्मा, जलवायु विशेषज्ञ सौम्या दत्ता, पर्यावरणवादी प्रफुल्ल सामंत, मीरा संघमित्रा, प्रदीप चटर्जी, निखिल डे व अन्य तथा कई आंदोलनकारी शामिल हुए. भादल (तह. जिला बडवानी) के आदिवासी बच्चों का नृत्य रैली और सभा का एक और आकर्षण था. सम्मेलन में 2023 के 16-17 सितम्बर को प्रधानमंत्री मोदी के जन्मदिन पर अचानक आई डूब को अवैध बताया गया और उससे डूबे हजारों परिवारों के सम्पूर्ण नुकसान की भरपाई की मांग की गयी. वक्ताओं ने सम्पूर्ण पुनर्वास पूरा होने तक जलस्तर रोकने की जरूरत बताई और उसके लिए मिलकर लड़ने का संकल्प घोषित किया. मांग की गयी कि मछुआरों को जलाशय पर ठेकेदारी मिले, प्रस्तावित सहकारी संघ का पंजीयन हो, उन डूब प्रभावित 15946 परिवारों को जिन्हें सरकार ने साजिशन ‘डुब के बाहर’ घोषित किया है, सम्पूर्ण पुनर्वास के लाभ मिलें. इसके अलावा कुम्हार, केवट, दुकानदार और गुजरात या मध्य प्रदेश में अनुपजाऊ अतिक्रमित जमीन आबंटन में फंसाए लोगों के हक की बात भी उठी. याद रहे कि नर्मदा घाटी के नावड़ाटोली, धरमपुरी, गाजीपुरा से लेकर धनोरा, जांगरवा, बिजासन तक तथा अलीराजपुर, बड़वानी, धार के पहाड़ी गावों तक सभी प्रभावित परिवार 40वें साल में भी अपने सम्पूर्ण पुनर्वास के लिए संघर्ष जारी रखे हैं.
सम्मेलन में ‘शासन की जवाबदेहिता’ पर राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय कानून की आवश्यकता महसूस की गई. वक्ताओं ने मनरेगा जैसी योजना पर बजट कमी, रोजगार बढ़ाये बिना आदिवासी, किसान, मजदूर, मछुआरे सभी की आजीविका के साधन छीनने/डुबाने को बहुत बड़ा अन्याय बताया. साथ ही, किसान विरोधी, श्रम विरोधी कानूनों के विरोध का संकल्प जताया. अंत में सभी अतिथियों और नर्मदा घाटी के प्रतिनिधियों ने ‘नदी संरक्षण, नदी घाटी सुरक्षा एवं पुनर्जीवन अधिनियम’ के मसौदे को सर्वसम्मति से पास किया. मुख्य अतिथि अखिल भारतीय किसान महासभा के राष्ट्रीय सचिव पुरुषोत्तम शर्मा ने लोकसभा सांसद और किसान महासभा के राष्ट्रीय महासचिव कामरेड राजाराम सिंह के माध्यम से इस विधेयक को संसद में पेश करने और इंडिया गठबंधन के अन्य सहयोगियों के जरिये इसे राज्यसभा में भी पेश कराने की कोशिश करने का आश्वासन दिया. पुरुषोत्तम शर्मा ने अपने वक्तव्य में देश की परिस्थिति को बयान करते हुए कहा कि प्रकृति पर हो रहा सत्ता पोषित अतिक्रमण आम जनता के जीवन पर बड़ा आघात है. उन्होंने कहा कि 39 साल के नर्मदा घाटी के आंदोलन के द्वारा हजारों परिवारों का पुनर्वास हो पाया है, जब कल के दौरे में हमने बड़ी पुनर्वासाहटों में विस्थापितों के हजारों मकान देखे तो आंदोलन की उपलब्धियां भी जानी. फिर भी प्रभावितों के बीच अपने दौरे में हम चिखल्दा खेड़ा, टीनशेड, धरमपुरी, एकलबारा देखकर हैरान हुए. अगर फिर डूब से अन्याय ढाया जाएगा तो यहां के सत्याग्रही संघर्ष को अखिल भारतीय किसान महासभा और संयुक्त किसान मोर्चा पूरे देश भर में उठाएगा. उन्होंने कहा कि केंद्र तथा राज्य की सरकार को हम आज ही चेतावनी देते हैं कि देश की नदियां, जंगल, पहाड़ और कृषि भूमि बचाने का कार्य करें और श्रमिक, गरीब, प्रकृति निर्भय समुदायों पर विनाशकारी विकास योजनाएं न थोपें.
कार्यक्रम की आयोजक मेधा पाटकर ने कार्यक्रम का समापन करते हुए 39 साल के संघर्ष और निर्माण के बाद भी 40 वें साल में वंचितों, शोषितों, विस्थापितों का संघर्ष पूरी ताकत से क्यों जारी है, यह उजागर किया. उन्होंने जोर देकर कहा कि विकास की अवधारणा पर सवाल उठाना विस्थापितों का हक है. उन्होंने कहा, ‘बिना पुनर्वास डूब नामंजूर है.’ वहीं इस साल प्रधान मंत्री के जन्मदिन 17 सितंबर को सरदार सरोवर का जलस्तर बढ़ने न देने का ऐलान कर जलसत्याग्रह की चेतावनी दोहरायी. उन्होंने कहा कि प्राकृतिक संसाधनों की लूट और विनाश की छूट की नीति से ही भ्रष्टाचार और अत्याचार दोनों हो रहा है. मेधा पाटकर ने कहा कि नर्मदा का जल शुद्ध नहीं रहा है. यह जल प्रदूषण शहरी गंदगी बिना एसटीपी से उपचार किये बहाने, औद्योगिक और खेती के अवशिष्ट पदार्थों तथा अवैध रेत खनन से हो रहा है. उन्होंने कहा कि नर्मदा-सरदार सरोवर में ‘क्रूज’ चलाकर और प्रदूषित करने से पेयजल बर्बाद कर जनता को मृत्यु की कगार पर धकेला जाना हमें नामंजूर है. मेधा पाटकर ने बताया कि ऐसे करीबन 16000 परिवार, जिनको सरकार ने डूब से बाहर बताया था, डूब रहे हैं. उनका भी पुनर्वास पूरा नहीं हुआ है. टीनशेड में पड़े हुए 500 विस्थापित परिवार और गुजरात में जिनको घर के बदले भूखंड या खेती का हक मिलना बाकी है, उन सबको तत्काल उनका हक मिलना चाहिए. सरकार कानून, नीति और सुप्रीम कोर्ट तक के आदेशों का उल्लंघन कर रही है. 7000 से अधिक शिकायतें ‘शिकायत निवारण प्राधिकरण’ में लंबित हैं. स्थिति को जानकर भी कार्य पूरा नहीं होने देने की साजिश चल रही है. यह बहुत दुःखद है.
नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण के 2022-23 की वार्षिक रिपोर्ट में भी असत्य रूप से यह बात कही गई है कि सरदार सरोवर के डूब क्षेत्र के किसी भी मूल गांव में कोई भी परिवार अभी पुनर्वास के लिए बाकी नहीं है. जबकि बिजासन, जागरंवा, सोदुल, विधोड़ी, कसरावद, धनोरा, कुडिया, छोटा बड़दा और अन्य, धार के चदनखेडी, भवरिया, कटनेरा, निसरपुर, बधियाका निमोला, बड़ाबढ्दा, धरमपुरी नगर तक और अलिराजपुर, खरगोन जिले के डूब प्रभावित गावों, महेकर किला और नगर सहित कई सारे विस्थापित पिछले साल से, खासकर जो शासकीय भवनों में पड़े हैं, ऐसे कई परिवार बेघर है. कई लोग मुश्किल से भाड़ा देकर कहीं न कहीं रहने के लिए मजबूर है, बेरोजगार हैं और बेघर हैं. कुम्हारों, केवटों, मछुआरों और कुछ दुकानदारों को भी पूरा मुआवजा और पुनर्वास नहीं मिला है. 17 सितंबर 2023 के रोज प्रधानमंत्री के जन्मदिन समारोह के लिए जलाशय में पानी लबालब भर कर तथा समारोह पूरा होने तक पर्याप्त मात्रा में गेट्स न खोलने से बड़वानी, धार, खरगोन जिलों के ही 172 गावों में डूब से 8000 से अधिक घर ध्वस्त हुए और लोगों को सामान, अनाज, चारा, मवेशी सभी का नुकसान भुगतना पड़ा. इससे 6 लोगों की मौत भी हुई. बिना भूअर्जन खेती भी हजारों एकड़ डूब गयी. हजारों परिवारों को (बड़वानी में 1328, धार में 21580) की फसल नष्ट हो गई. कुछ परिवारों को फसलों के नुकसान की मामूली राहत राशि मिली, लेकिन आज तक घरों, दुकानों व सामान के नुकसान की पूरी भरपाई नहीं हुई, जबकि शिवराज सिंह चौहान ने सितम्बर 2023 में ही अपनी चुनावी सभाओं में यह आश्वासन दिया था.
इसी तरह गुजरात में भी 17 सितम्बर को देर से फाटक खोल कर 8 लाख क्यूसेक्स पानी छोड़ने से भरूच, अकलेश्वर और वड़ोदरा – इन तीन जिलों के आदिवासी, मछुआरे और शहर वासियों के हजारों की तादाद में घर, दुकान, खेत और साथ ही अनेक तीर्थस्थल और मंदिर भी डूब से बर्बाद हुए. महाराष्ट्र के सैकड़ों आदिवासी परिवारों के खेत बिना भूअर्जन डूब गये. बैकवाटर लेवल्स जो केंद्रीय जल आयोग ने कानूनन 1984 में तय किये थे, वह 2008 में नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण (एनसीए) से गठित कमिटी द्वारा कम करके, 15946 परिवारों को घर. दुकान का भूअर्जन होने के पश्चात भी ‘डूब से बाहर’ किया गया था. आज उनको ही अपना घर, दुकान ‘बिना पुनर्वास डूब’ भुगतना पड़ रहा है. आज 134 मीटर तक जलस्तर के किनारे गांव, मोहल्ले, खेत व मंदिर हैं. सरदार सरोवर के फाटक सिंतबर में भी खुले रखकर 122 मीटर पर पानी रोकना ही कानूनी और न्यायपूर्ण होगा. लेकिन पिछले वर्ष 16-17 सितम्बर को अचानक बिना चेतावनी के 156 मीटर तक जल भराव कर घाटी के लोगों पर भारी संकट थोपा गया. ‘पुनर्वास पूरा हुआ है’ इस असत्य दावे के साथ जीरो बैलेंस बताने का खेल, 2009 से 2023 तक के नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण की हर वार्षिक रिपोर्ट में किया गया.
आंदोलन की जन्मगाथा
नर्मदा नदी पर ‘नदागाम बाधा’ बनाने की योजना की शुरुआत तो 1959 में हुई जब महाराष्ट्र और गुजरात एक थे और बॉम्बे सरकार थी. पहले दौर में 160 फीट ही ऊंचा बांध बनाने का प्रस्ताव हुआ और दूसरे दौर में उसे बढ़ाकर 300 फीट तक ले जाने का प्रस्ताव बना. एक सलाहकार समिति की सिफारिश पर जल संसाधन और विद्युत मंत्रालय ने उसे 320 फीट तक बढ़ाकर सौराष्ट्र और कच्छ तक सिचाई पहुंचाने का प्रस्ताव मंजूर किया. पहले दौर में 162 फीट का निर्माण प्रस्ताव में था. दूसरे दौर में 625 मेगावाट बिजली निर्माण भी संभव माना गया था. 1 मई 1960 में महाराष्ट्र और गुजरात के स्वतंत्रा राज्य बनने पर पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 162 फीट ऊंचे बांध ‘नवागाम बाधा’ का शिलान्यास किया. 1963 में केंद्रीय मंत्री डॉ. केएल राव ने 425 फीट ऊंचे नवागाम बांध का पूरा लाभ गुजरात को तथा 850 पूर्ण जलाशय स्तर का पुनासा बांध (आज का इंदिरा सागर) के लाभों का बंटवारा मध्य प्रदेश और गुजरात के बीच करने को ‘भोपाल अनुबंध’ के रूप में मंजूर करवाया. मध्य प्रदेश शासन ने बाद में इसे नामंजूर कर दिया और विवाद खड़ा कर इसे खारिज करवा दिया. इसके बाद शुरू हुआ अंतर्राज्यीय विवाद, जिसके निराकरण के लिए इंदिरा गांधी सरकार ने एक ट्रिब्यूनल का गठन किया, जो 1969 से 1979 तक चला. मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र दोनों राज्यों ने 10 सालों तक गुजरात में नर्मदा पर बड़ा बांध बनाने का विरोध किया. इसके लिए मध्य प्रदेश में सर्वदलीय ‘निमाड बचाओ आदोलन’ भी चला.
दिसंबर 1979 में अंतर्राज्यीय नर्मदा ट्रिब्यूनल याने जल विवाद न्यायाधिकरण का फैसला आया, जो परियोजना के विविध पहलओूं और असरों का पूरा अध्ययन किए बिना इस विवाद के निराकरण का निर्णय था. उसी से सरदार सरोवर के लाभ-हानि के बटवारे के निर्देश हुए. इसमें 28 मिलियन एकड़ फीट (एमएएफ) पानी की उपलब्धता को आधार माना गया, जबकि इसकी जलशास्त्रीय जानकारी पर्याप्त नहीं थी और उपलब्ध आंकड़े बताते थे कि यहां सिर्फ 22.7 मिलियन एकड़ फीट पानी की उपलब्धता है. फिर परियोजना का फैसला 10 साल के बाद पारित हुआ. पर इस योजना की विशेष खामी यह रही कि कोई अशासकीय संगठन, पर्यावरणवादी संगठन और यहां तक कि परियोजना के प्रभावितों को भी उसके समक्ष प्रस्तुति का अधिकार नहीं मिला. 10 सालों के कार्यकाल में न्यायाधिकरण के सदस्यों ने नर्मदा घाटी की जो यात्रा की वह मात्र शूलपाणीश्वर, हापेश्वर और कोटेश्वर मंदिरों तक सीमित थी. वे किसी विस्थापित होने वाले गांव या परिवार से नहीं मिले. हकीकत यह है कि 1983 में किये गये आर्थिक लाभ-हानि का अध्ययन जो टाटा इकॉनामिक कंसलटेंसी सर्विसेस से करवाया गया, वह विश्व बैंक से कर्जा पाने की जल्दबाजी में करवाया गया. धरातल का सर्वेक्षण नहीं हुआ तो ट्रिब्यूनल के फैसले में मात्र 7000 परिवारों का डूब में आना मान लिया गया था और लाभ-हानि में तीनों राज्यों के संपूर्ण पुनर्वास की लागत मानी गयी मात्र 11 करोड़ रुपये की राशि. लेकिन 1993 में विश्व बैंक से नियुक्त अंतर्राष्ट्रीय उच्चाधिकार विशेषज्ञ आयोग ने गहरे अध्ययन के बाद नियोजन में गंभीर त्रुटियों से न केवल हानिपूर्ति और पुनर्वास में बल्कि लाभों में भी खाई रहने का निष्कर्ष निकाला. विश्व बैंक के संचालक बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स ने संबंधित राज्यों व केंद्र सरकार को 6 महीनों में स्थिति सुधारने की चेतावनी देकर अपनी वित्तीय सहायता रोक दी.
बांध के विरोध में 1985 से शुरू हुए सतत सत्याग्रह, उपवास आदि के बाद ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के बैनर तले प्रभावितों की ओर से जल समाधि की घोषणा कर एक विशेष चुनौती दी गयी. उसके पहले 1988 का धरना और रैलियां, 1989 में 80 किलोमीटर चले आदिवासी और वाहनों से पहुंचे मध्य प्रदेश के निमाड वासियों की हजारों की सख्या में बांध स्थल पर गिरफ्तारी हुई थी. 1990 में बाबा आमटे के साथ दिल्ली में प्रधानमंत्री निवास पर सत्याग्रह और सुंदरलाल बहुगुणा, सुगधा कुमारी की उपस्थिति में इस पर व्यापक चर्चा हुई. मुंबई के दिन के उपवास के बाद शरद पवार का बांध स्थल पर पहुंच कर गुजरात और महाराष्ट्र के अधिकारियों सहित बैठक और पुनर्वास के बिना बांध आगे न बढ़ने देने की घोषणा... सब हो चुका था. 1990 में ही 5000 विस्थापितों का पैदल जन विकास मार्च और उस पर हुए दमन के साथ 21 दिनों के उपवास को देश और दुनिया का सहयोग मिला था. फिर भी पहाड़ी आदिवासियों पर छाते हुए डूब के खतरे पर जब ‘जल समाधि’ का निर्णय लिया गया, तभी योजना आयोग के उपाध्यक्ष जयंतराव पाटील की अध्यक्षता में पांच सदस्यीय समूह बना. जो जल संसाधन मंत्रालय के प्रमुख सचिव रहे रामस्वामी अय्यर, अर्थशास्वी एलसी जैन, बसंत गोवारीकर, कुलदै स्वामी जैसे आंदोलन और शासन से जुड़े लोगों से बना था.
दोनों पक्षों की सुनवाई और प्रस्तुतियों के बाद सरदार सरोवर के नियोजन में अधूरापन और लाभों के गलत दावों का खुलासा हुआ. ‘100 साल में 75 प्रतिशत नहीं, मात्र 61 साल में ही पूरा भर सकता है जलाशय’ – यह कहते हुए पर्यावरणीय और सामाजिक हानिपूर्ति याने पुनर्वास के भी अधूरे नियोजन पर कड़े सवाल उठाने वाली उनकी रिपोर्ट शासकों को स्पष्ट चेतावनी देती रही. विश्व बैंक के निष्कर्ष के बाद जापान, स्वीडन, कनाडा, ब्रिटन जैसे कई देशों की द्विराष्ट्रीय वित्तीय सस्थाओं ने भी विभिन्न कार्यों के लिए जो सहायता मंजूर की थी, उसे रोक दिया गया. फिर भी अपने दम पर और गुजरात के आग्रह पर, भारतीय शासकों ने जब बांध को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया, तब विस्थापितों का आंदोलन सर्वाच्च अदालत तक पहुंच गया. 1994 से 2000 तक वहां सुनवाई चली. इसी दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में 16 दिसंबर 1994 के दिन मध्य प्रदेश विधानसभा में सरदार सरोवर की ऊंचाई बढ़ने न देने का सर्वदलीय प्रस्ताव पारित हुआ. जब सर्वाच्च अदालत में सर्व समावेशक याचिका पर सुनवाई हुई, तब सरदार सरोवर का कार्य 80 मीटर पर मई 1995 से 1999 तक रोका गया. पिछले 39 वर्षों से आन्दोलन, सत्याग्रह, ट्रिब्यूनल और अदालतों के जरिये सरदार सरोवर बांध प्रभावित विस्थापितों की लड़ाई जारी है. सबके सम्पूर्ण पुनर्वास और भविष्य में पर्यावरण, जैव विविधता और आम जन के लिए विनाशकारी बड़े बांधों पर रोक की यह लड़ाई आगे भी जारी रहेगी.