अंततः अंकिता भंडारी मामले में उच्च न्यायालय ने सीबीआई जांच की मांग को खारिज कर दिया. लगभग महीने भर तक फैसले को सुरक्षित रखने के बाद 21 दिसंबर 2022 को अपने 23 पृष्ठों के फैसले में उत्तराखंड उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति संजय कुमार मिश्रा ने इस आशय की घोषणा की. फैसला देखने के बाद लगा कि ना कहने को इतना सुरक्षित रखने की जरूरत, क्या थी भला! शुरुआत में अंकिता भंडारी हत्याकांड की सीबीआई जांच की मांग को लेकर याचिका पत्रकार आशुतोष नेगी द्वारा अधिवक्ता नवनीश नेगी के जरिये दाखिल की गयी. बाद में इस मांग पर जोर देने के लिए अंकिता भंडारी के माता-पिता भी याचिकाकर्ता के रूप में इस मामले में शामिल हुए, जिनके अधिवक्ता दुर्गा सिंह मेहता थे.
उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने याचिकाकर्ताओं की तमाम आशंकाओं को खारिज करते हुए सीबीआई जांच का आदेश देने से इंकार कर दिया. सीबीआई जांच का आदेश न देने के पीछे के तर्कों की व्याख्या करते हुए उक्त फैसले में उच्चतम न्यायालय के कई फैसलों का हवाला देते हुए, किसी केंद्रीय एजेंसी को जांच हस्तांतरित करने के पैमाने के कुछ बिंदु बनाए गए.
इसमें सबसे पहला बिंदु है कि सिर्फ मांग भर किए जाने से मामला हस्तांतरित नहीं किया जाना चाहिए. एक लड़की की जघन्य हत्या के मामले में जांच हस्तांतरित करने की बात को सिर्फ मांग भर कहना, क्या अत्याधिक सरलीकरण नहीं है?
दूसरे बिंदु में कहा गया कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 में उच्च न्यायालय को मामला सीबीआई को हस्तांतरित करने की पर्याप्त शक्ति है, पर ऐसा करने में पर्याप्त सतर्कता बरती जानी चाहिए और ऐसा आदेश अपवाद या दुर्लभ मामलों में ही दिया जाना चाहिए.
पर सवाल है कि अपवाद या दुर्लभ मामला किसको माना जाएगा? एक लड़की रिजाॅर्ट में नौकरी करने गयी, उसे देह व्यापार में धकेलने की कोशिश हुई, उसने इंकार कर दिया तो उसकी हत्या कर दी गयी. क्या यह सामान्य या रूटीन बात है? याचिकाकर्ता के अधिवक्ता नवनीश नेगी ने धनबाद के अतिरिक्त जिला जज की हत्या के मामले में झारखंड उच्च न्यायालय की खंडपीठ द्वारा सीबीआई जांच के आदेश का हवाला दिया तो न्यायमूर्ति संजय मिश्रा द्वारा दिये गए फैसले में इस संदर्भ में लिखा गया कि उस मामले के तथ्य, इस मामले से अलग हैं. निश्चित ही तथ्य अलग होंगे ही चूंकि वह अलग घटना है पर दोनों में जो समानता है, वो है कि दोनों ही मामले में जघन्य हत्या हुई. निश्चित ही किसी जज का जीवन मूल्यवान है, लेकिन एक युवा लड़की का जीवन भी कम मूल्यवान तो नहीं है.
अंकिता भंडारी प्रकरण में शुरुआत से ही सारे मामले का ठीकरा राजस्व पुलिस के सिर फोड़ कर और नियमित पुलिस की वाहवाही कर, वास्तविक तथ्यों से ध्यान हटाने की कोशिश की जाती रही है. निश्चित ही इस मामले में राजस्व पुलिस यानि पटवारी की भूमिका संदेहास्पद है. लेकिन मामला दर्ज करने के मसले पर तो संदेह से परे नियमित पुलिस भी नहीं है. अंकिता के गुमशुदा होने की बात सामने आने पर अंकिता भंडारी के पिता, उसे ढूंढते हुए जब ट्टषिकेश आए तो सबसे पहले वे ऋषिकेश, लक्ष्मणझूला, मुनि की रेती कोतवाली और चीला चौकी गए. सब जगह से उन्हें यही कहा गया कि यह राजस्व पुलिस का मामला है, इसलिए वे पटवारी के पास जाएं. प्रावधान तो यह भी है कि पुलिस स्वयं मामले में जीरो एफ़आईआर करके जांच शुरू कर सकती थी. लेकिन तीन कोतवाली के पुलिस अधिकारियों ने ऐसा नहीं किया.
अपर पुलिस महानिदेशक (अपराध एवं कानून व्यवस्था) डाॅ. वी. मुरुगेशन ने 12 जुलाई 2022 को सभी जिलों के पुलिस प्रमुखों को पत्र भेज कर लिखा था कि राजस्व क्षेत्र के संगेय अपराधों के मामले में जीरो एफआईआर दर्ज की जाये. बेशक यह पत्र पटवारियों द्वारा पुलिस कार्यों के परित्याग करने के समय पर लिखा गया था, लेकिन इसमें ऐसा करने की कोई अवधि उल्लिखित नहीं है. इसलिए जब अंकिता भंडारी के पिता, ऊपर बताई गयी तीन कोतवालियों में गए तो वहां मौजूद जिम्मेदार अधिकारी मामले की गंभीरता को देखते हुए, उक्त पत्र के अनुसार कार्यवाही कर सकते थे. लेकिन उन्होंने सिर्फ टालमटोल की.
असल में बात तो पटवारी और पुलिस की नहीं है, बात यह है कि यदि आरोपी रसूखदार होता है तो जिम्मेदार पदों पर बैठने वाले स्वतः उसके दबाव में नजर आने लगते हैं.
उच्च न्यायालय के पूरे फैसले को देखें तो लगता है कि सरकार या इस मामले में गठित एसआईटी के तर्कों पर ज्यादा ही भरोसा कर लिया गया है.
एसआईटी प्रमुख ने वनंतरा रिजाॅर्ट में मृतका के कमरे की फाॅरेंसिक जांच का वीडियो दिखाते हुए अदालत को बताया कि कमरे में कोई डीएनए या फिंगर प्रिंट नहीं मिले और इस बात को चुपचाप स्वीकार कर लिया गया.
वनंतरा रिजाॅर्ट को और खास तौर पर मृतका के कमरे को तोड़े जाने का प्रश्न याचिकाकर्ता के अधिवक्ता ने उठाया. उक्त फैसले में अंग्रेजी के मुहावरे – knee jerk reaction – (जिसका शाब्दिक अर्थ है कि जैसे घुटने पर झटका लगने पर आदमी हड़बड़ी में प्रतिक्रिया करता है) का प्रयोग करते हुए लिखा है कि यह स्थानीय नेताओं को भावनात्मक आवेग (sentimental outburst) है. साथ ही यह भी कहा कि अदालत को सबूत नष्ट करने का जानबूझ कर किया प्रयास नहीं लगता है. सवाल है कि क्या ऐसा ‘भावनात्मक आवेग’ विधि सम्मत है? प्रश्न तो यह है कि रिजाॅर्ट तोड़ने का यह ‘भावनात्मक आवेग’ किसके प्रति था – पीड़िता के प्रति या आरोपियों के प्रति?
सील रिजाॅर्ट और उसके परिसर में स्थित आयुर्वेदिक फ़ैक्ट्री में दो बार आग लगती है. दूसरी बार तो यह आग 40 दिन बाद लगती है और इसका हास्यास्पद कारण दिया जाता है कि इन्वर्टर में शाॅर्ट सर्किट से आग लगी. परंतु न्याय करते वक्त, इसमें भी कुछ संदिग्ध नहीं पाया गया, यह हैरत की बात है.
फैसले में जांच में शुरुआती झटकों की बात कही गयी है, लेकिन जांच के सही दिशा में होने पर दृढ़ भरोसा जताया गया है. इसके लिए जिस तर्क का इस्तेमाल किया गया है, वह थोड़ा अजीब है. कहा गया है कि एसआईटी की प्रमुख डीआईजी रैंक की आईपीएस अधिकारी हैं, वे दूसरे राज्य की रहने वाली हैं तो जाहिर है कि उनका कोई राजनीतिक झुकाव नहीं होगा. एसआईटी प्रमुख का राजनीतिक झुकाव है कि नहीं, यह तो अलग मसला है, पर दूसरे राज्य के अफसर का इस राज्य में राजनीतिक झुकाव नहीं हो सकता है, यह तर्क आसानी से हजम होने वाला नहीं है. यूं देखा जाये तो फैसले में इस तर्क की आवश्यकता भी नहीं थी. डीआईजी का राजनीतिक झुकाव हो न हो पर जिस सरकार की वे अफसर हैं, उसका राजनीतिक झुकाव और पक्षधरता तो जगजाहिर है ही!
यूं अदालत ने याचिका खारिज कर दी, पर राज्य सरकार को निर्देशित किया कि वह आरोपियों पर मुकदमा चलाने के लिए एक ऐसा लोक अभियोजक नियुक्त करे, जिसको आपराधिक मुकदमों में पैरवी का पर्याप्त अनुभव और विशेषज्ञता हो. साथ ही मामले को फास्ट ट्रैक करने का निर्देश भी दिया. यानि इस मामले के पहले दिन से मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और उत्तराखंड सरकार जो फास्ट ट्रैक राग अलाप रहे हैं, वह अब तक नहीं हुआ.
लेकिन इस मामले में तमाम बातों के अलावा अभी भी यह प्रश्न खड़ा है कि क्या उस रिजाॅर्ट में देह व्यापार चलता था? वो वीआईपी कौन थे, जिनके लिए यह देह व्यापार (जिसे स्पेशल सर्विस कहा जाता था) चलाया जा रहा था?
अगर एसआईटी की जांच, इस बात का खुलासा नहीं कर पा रही है तो वह सही दिशा में बढ़ती हुई जांच कैसे है?
फैसला तो सिर्फ याचिका का नहीं होना था, मी लाॅर्ड, वह तो न्याय का भी होना था, एक मासूम लड़की के न्याय का! वो तो अभी भी दूर की कौड़ी लगता है. केस हस्तांतरित करने और सजा देने में दुर्लभ से दुर्लभतम की कसौटी भले ही इस्तेमाल की जाये पर न्याय तो सहज, सुलभ,सुलभतम होना चाहिए.
– इन्द्रेश मैखुरी