वर्ष - 31
अंक - 45
05-11-2022

– राधिका मेनन

इस बार अमित शाह की अध्यक्षता वाली राजभाषा समिति की 11वीं रिपोर्ट के जरिए आरएसएस के ‘एक राष्ट्र, एक भाषा’ के एजेंडा को आगे बढ़ाने की दिशा में केंद्र की भाजपा सरकार द्वारा एक और धमाका किया गया है. समिति की सिफारिशें सितंबर 2022 में भारत के राष्ट्रपति को प्रस्तुत की गई हैं. जैसा कि, पिछले एक महीने के दौरान रिपोर्ट से जो बातें सामने आई है कि उसमें हिंदी को भारतीय गणराज्य की 21 अन्य आधिकारिक भाषाओं के बनिस्बत अहमियत दी गयी है. इस तरह से समिति की सिफारिशें भारतीय लोगों के भाषायी संघर्षों और लोकतांत्रिक आकांक्षाओं के लंबे इतिहास को दरकिनार कर देती हैं. रिपोर्ट की सामग्री को गोपनीय माना जाता है. हालांकि, पत्रकारों द्वारा किये गए पूर्वावलोकन, समिति के सदस्यों द्वारा दिए गए स्पष्टीकरण, तकनीकी और गैर-तकनीकी संस्थानों, खासतौर से मध्य प्रदेश के मेडिकल स्कूलों, साथ ही 2020 में जारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षा के माध्यम में बदलाव इस बात का स्पष्ट और पर्याप्त इशारा कर रहे हैं कि केंद्र सरकार के सभी कामकाज में हिंदी पर विशेष ध्यान दिया जाएगा.

इसी बीच गैर-हिंदी भाषी राज्यों में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए हैं. तमिलनाडु और केरल ने तो आधिकारिक तौर पर अपनी आशंकाओं को जाहिर कर दिया है. यहां पर यह बेहतर होगा कि हम इस बात से अवगत हो लें कि 2011 की जनगणना के अनुसार ‘हिंदी-भाषी’ के बतौर वर्गीकृत समूह भले ही गणनीय रूप से प्रभुत्व रखता हो, पर भारतीय आबादी के 56.37% लोगों के लिए हिंदी मातृभाषा नहीं है. हिंदी को थोपने से जम्हूरियत की बुनियाद और खोखली ही होगी. आइये, इसे समझने के लिए पहले उन सिफारिशों को देखें जिनका विरोध किया जा रहा है.

लोकतंत्र का खात्मा और अवसरों को नकारने के लिए सिफारिश

रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि केंद्र सरकार द्वारा वित्त पोषित संस्थानों में शिक्षा का अनिवार्य माध्यम हिंदी होना चाहिए. इसमें सभी केंद्रीय विद्यालय, आईआईटी और केंद्रीय विश्वविद्यालय शामिल हैं, जिन्हें देश भर के लोगों के लिए खुला होना चाहिए. इससे उन छात्रों को नुकसान पहुंचेगा जिन्होंने हिंदी में पढ़ाई नहीं की है.

‘ए’ श्रेणी का दर्जा पाए हिंदी-भाषी राज्यों के साथ-साथ केंद्र सरकार के कार्यालयों में हिंदी में काम किया जाना है. यहां तक कि लिफाफों पर पते को हिंदी में लिखने की सिफारिश न केवल प्रेषकों से, बल्कि इसके वाहकों और प्राप्तकर्ताओं से भी हिंदी के ज्ञान की मांग करता है.

यह सरकारी कर्मचारियों के चयन के लिए सरकारी भर्ती परीक्षाओं में अनिवार्य अंग्रेजी पेपर को हिंदी से बदलने का सुझाव देता है, जिससे पदों के लिए योग्य उम्मीदवारों की संख्या कम हो जाएगी. रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को आधिकारिक भाषा के बतौर भी सुझाती है. समिति के निर्देश के मुताबिक उन सरकारी अधिकारियों को, जो नए भाषा नियमों का पालन नहीं करते है, गोपनीय ‘वार्षिक रिपोर्ट’ में चिन्हित किया जाएगा.

अगर कोई हिंदी भाषी राज्यों के उच्च न्यायालयों में न्याय की मांग करना चाहे, तो वह केवल हिंदी में ही न्याय की उम्मीद कर सकता है. हालांकि, इंसाफ न तो सिर्फ हिंदी भाषियों द्वारा मांगा जाता है, और न ही इसे केवल हिंदी में निपुण लोगों द्वारा दिया जाता है.

हिंदी को वित्तीय प्रोत्साहन देना इस सिफारिश के साथ सरल किया जा रहा है कि विज्ञापनों के लिए सरकारी बजट का 50 प्रतिशत हिंदी को आबंटित किया जाना है. कहने की जरूरत नहीं है कि अन्य 21 आधिकारिक भाषाओं को धन की कमी से जूझना होगा और उन्हें आपस में प्रतिस्पर्धा करनी होगी.

समिति की रिपोर्ट संघीय ढांचे का उल्लंघन कर राज्य सरकार के कार्यालयों में इसके कार्यान्वयन की समीक्षा करने का भी प्रयास करती है. इस प्रकार, शिक्षा तक किसकी पहुंच होगी, सरकार का गठन कौन करेगा, कार्यपालिका कैसे काम करेगी और न्याय कैसे दिया जाएगा, इन सबको आधिकारिक भाषा के माध्यम से गुजरना होगा.

जब भाषायी वर्चस्व को एक नागरिक के अधिकारों से जोड़ा जा रहा है, तो कुछ चीजें सामने आती हैं; पहली, हिंदी के वर्चस्व को नही मानने वालों के लिए धमकी और सजा. दूसरी, उन भारतीयों को रोजगार से वंचित करना जो अन्य भारतीय भाषाओं में निपुण हैं लेकिन हिंदी में नहीं. तीसरा, अन्य गैर हिंदी आधिकारिक भाषाओं को सरकारी फंडिंग के अयोग्य घोषित करना, जिससे केंद्र सरकार हिंदी बोलने वालों का एक बाड़ा बन जाए. चौथी, आधिकारिक रूप से घोषित हिंदी भाषी राज्यों की हिंदी को एकरूप बनाना और उन राज्यों के भीतर भाषा की विविधता को खारिज करना. पांचवी, गैर हिंदी भाषी क्षेत्रों के उम्मीदवारों के लिए शैक्षिक और रोजगार के अवसरों का गला घोंट देना छठी, सिर्फ हिंदी का अंतर्राष्ट्रीयकरण करना, जिससे भारत को भाजपा की मनपसंद परियोजना हिंदू भूमि के साथ हिंदी भूमि के रूप में भी पेश किया जा सके.

नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों और संघीय ढांचे में कटौती की सिफारिशों के साथ समिति की रिपोर्ट निश्चित तौर से भाषा को बढ़ावा देने के लिए कोई नेकदिल कदम नहीं हैं. बल्कि, यह वास्तव में हिंदी-हिंदू राष्ट्र का एक अभिन्न पैकेज है, जो सभी विविधताओं का खात्मा कर देना चाहता है.

सशक्तिकरण के बतौर भाषा और हिंदी थोपने के खिलाफ असहमति

आजादी के तुरंत बाद भारत में भाषा संघर्षों की लगातार शुरुआत हुई. एक पक्के स्वतंत्रता सेनानी पोट्टी श्रीरामुलु की, जिन्होंने पहले दलितों के मंदिर में प्रवेश के लिए भी अनशन किया था, 15 दिसंबर 1952 को 58 दिनों के उपवास के बाद मृत्यु हो गई. वे एक अलग तेलुगु भाषी राज्य के गठन की मांग कर रहे थे जिसकी आवाज 1910 के दशक से उठ रही थी. उनके निधन से जनता के बीच सुलगते गुस्से और उसके बाद के चले आंदोलन की वजह से आंध्र प्रदेश के बतौर पहले भाषाई राज्य का गठन किया गया. बाद के वर्षों में कई अन्य भाषाई राज्यों का गठन लोगों की आकांक्षाओं, संघर्षों और आंदोलनों के अनुरूप किया गया.

संविधान सभा में भाषा को लेकर हुई बहसों के बाद भारत ने अंग्रेजी और हिंदी में द्विभाषी होना चुना. वर्चस्व के नये खतरे के बिना भारत के विविध लोगों को एक साथ लाने का यही एकमात्र सलीका था. हालांकि इन बहसों में हिंदी समर्थक सदस्यों की एक जमात द्वारा इसके विरोधियों के खिलाफ जमकर हंगामा करने से भाषा को लेकर बढ़ती असहिष्णुता के भी संकेत मिलते हैं. संविधान सभा में 1946 में आरवी धुलेकर ने घोषणा की थी कि जो लोग हिंदी नहीं जानते हैं उन्हें भारत में रहने का कोई अधिकार नहीं है. यह आज के दौर के दक्षिणपंथी कट्टरपंथियों के राष्ट्रविरोधी व्यवहार के ज्यादा करीब है. हिंदी समर्थक जमात में कट्टर दक्षिणपंथी सदस्यों के साथ-साथ उदारवादी भी थे. उनकी दलीलों को टी.टी. कृष्णमाचारी जैसे लोगों द्वारा ‘हिंदी साम्राज्यवाद’ के रूप में देखा गया, जिन्होंने इसे थोपने से उत्पन्न होने वाली विस्फोटक स्थिति की चेतावनी दी थी. तीन साल की बहस के बाद स्वीकार की गई द्विभाषिकता मुंशी और अयंगार के बीच समझौता थी, जिसमें हिंदी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में रखने की बजाय 1965 तक हिंदी और अंग्रेजी को आधिकारिक भाषा के रूप में जारी रखा जाना था.

1965 तक पहुंचते ही तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलन बढ़ता गया, खासकर 1963 के राजभाषा अधिनियम के बाद, जिसे गैर-हिंदी बोलने वालों पर भविष्य में प्रशासन द्वारा हिंदी को थोपने के औजार के रूप में देखा गया था. 1965 के दौरान उग्र विरोध प्रदर्शनों के कारण केंद्र सरकार को हिंदी के साथ अंग्रेजी को भी केंद्र और अंतरराज्यीय संवाद के लिए और सार्वजनिक सेवा की परीक्षाओं के लिए अनिश्चित काल तक जारी रखने का आश्वासन देना पड़ा था.

हालिया रिपोर्ट की मक्कारी भरी सियासी साजिश

राजभाषा पर संसद की समिति पहली बार 1976 में राजभाषा अधिनियम 1963 की धारा 4 के तहत बनाई गई थी. इसे हिंदी को बढ़ावा देने का एजेंडा सौंपा गया है, लेकिन मोदी सरकार और अमित शाह के नेतृत्व में समिति की सिफारिशों ने केंद्रीकरण और भाषाई समरूपता को एक फौरी जरूरत में तब्दील कर दिया है. यह आरएसएस की परंपरा और उसके राजनीतिक वंशजों जनसंघ और भाजपा का हिस्सा है. अखंड भारत परियोजना के साम्राज्यवादी मंसूबों को ढकने के लिए हिंदी के वर्चस्व की मांग को अक्सर उत्तर-उपनिवेशवादी शब्दाबली में पेश किया जाता है.

भाषा के वर्चस्व की राजनीति लोकतांत्रिक भावना और भाषा को बढ़ावा देने की आकांक्षा के विपरीत है. संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भारतीय भाषाएं हैं. गौरतलब है कि अन्य 38 भाषाएं इस अनुसूची में सूचीबद्ध होने की मांग कर रही हैं. यह एक लोकतांत्रिक आकांक्षा है, क्योंकि भारत में 2011 की जनगणना के अनुसार 1369 ‘तर्कसंगत’ मातृभाषाएं और 121 व्यापक भाषाएं हैं. खासतौर से आठवीं अनुसूची में जगह पाने के लिए प्रतीक्षा रत और अभियान चलाने वाली कई भाषाएं उन राज्यों से हैं जिन्हें हिंदी भाषी के रूप में वर्गीकृत किया गया है. यह उस विविधता की ओर इशारा करता है जिसका खात्मा किया जा रहा है.

यह याद रखना चाहिए कि भाषा को थोपने के प्रयासों ने स्वतंत्र भारत में कई उथल-पुथल मचाया है. एक लोकतांत्रिक विकल्प के रूप में आठवीं अनुसूची की आधिकारिक भाषाओं में सूचीबद्ध होना है. लोगों की जोड़ने वाली भाषा को बातचीत के स्वाभाविक क्रम में उभरना होगा न कि उस पर बुलडोजर चला कर. लेकिन अमित शाह के नेतृत्व वाली समिति की सिफारिशों से देश के आधिकारिक भाषाओं के विमर्श को पीछे की दिशा में जाने का खतरा है.

एक ऐसे मुल्क में जिसका युवा बेरोजगारी से जूझ रहा है, एकरूपता और ध्रुवीकरण हिंदुत्ववादी नेताओं की चाल है. एकरूपता का माहौल भाषाओं के साथ-साथ सामाजिक और राजनीतिक अभिव्यक्तियों का भी गला घोंट देता है. इस एजेंडे को हिंदी भाषी राज्यों के भीतर और बाहर दोनों जगह पहचानने और उजागर करने की जरूरत है. भारतीय गणराज्य की विविध भाषाओं से ही लोकतंत्र लोगों की ताकत बन सकता है और ‘आधिकारिक’ को इसका ख्याल करना चाहिए.