- कुमार परवेज
“हमें तो दुहरी मार का सामना करना पड़ा है – एक महिला और दूसरी अल्पसंख्यक होने की. कोरोना के समय दिल्ली में जमाती लोगों पर इल्जाम लगा तो हमारे कॉलेज के सहकर्मी मुझे टारगेट करने लगे. कश्मीर फाइल्स फिल्म आई तो फब्तियां कसी जाने लगीं. जिम्मेवारी देने की बात आती है तो महिला कहकर पीछे खड़ा कर दिया जाता है, मानो परीक्षा में हमसे कोई आसान प्रश्न पूछे गए थे! इतना मेंटल टॉर्चर तो हमने कभी नहीं झेला जितना कि कॉलेज में झेलना पड़ता है. मुझे व्हाट्सएप पर ट्रोल किया जाता है. स्टाफ रूम में बैठना मुश्किल हो गया है. एक आदमी पैसा देकर चार-चार जगह का दायित्व संभालता है. नैक के नाम पर जो डाइरेक्ट फंड कॉलेज प्रशासन को आता है, उसका केवल बंटाधार किया जाता है. बिहार के कॉलेजों में घुम लीजिए, शायद ही कहीं स्थायी प्राचार्य मिले. इतना जेंडर बायस्ड तो आम लोग भी नहीं होते. विरोध करो तो दूरदराज के इलाके में तबादले की धमकी दी जाती है. 5 साल से चुप थे, लेकिन अब बर्दाश्त से बाहर है. कॉलेज है कि नरक!’ सीतामढ़ी कॉलेज में कार्यरत अल्पसंख्यक समुदाय की एक महिला शिक्षिका अपने कॉलेज के दमघोंटू वातावरण से इतनी आहत हैं कि वे कॉलेज जाना ही छोड़ देना चाहती हैं. लेकिन नौकरी छोड़ दें तो फिर क्या करें! इसलिए वे अब लड़ना चाहती हैं. कहती हैं – ‘इस स्थिति को बदलना होगा’.
ऐसी स्थिति किसी एक विश्वविद्यालय या कॉलेज की नहीं है, लगभग हर जगह की है. जेपी विश्वविद्यालय में कार्यरत अंग्रेजी की एक शिक्षिका अपना दर्द व्यक्त करते हुए कहती हैं – “पूछिए मत, हमें शिक्षक क्या समझेंगे, छमिया कहते हैं! सोचिए, ऐसी स्थिति में हम क्या पढ़ाएंगे? कॉलेज में बच्चे नहीं, माहौल नहीं, दिल्ली से आए थे तो सपना था कि हम शिक्षा के क्षेत्र में कुछ योगदान देंगे. अब तो हर दिन सोचते हैं कि आज का दिन बीत जाए, कोई तमाशा न हो, बस यही चाहत रहती है. पुराने लोगों को हमारा पढ़ाना पसंद नहीं. वे चाहते हैं कि हम कॉलेज प्रशासन की हां में हां मिलाते रहे. यह सब बहुत निराश करता है.”
बिहार के विश्वविद्यालयों की हालत किसी से छिपी हुई नहीं है, लेकिन मामला केवल शैक्षणिक क्रियाओं के खत्म होते जाने भर की नहीं है, बल्कि उससे भी बढ़कर शैक्षणिक संस्थानों के लगातार ‘उत्पीड़न के केंद्र’ में बदलते जाने की है. शिक्षा को मनुष्य की चारित्रिक व मानसिक विकास संबंधी कार्यों का एक उपकरण माना जाता रहा है. आजादी की लड़ाई के दौरान एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था की रूपरेखा उभरी थी जिसके जरिए समाज में मौजूद असमानता, अन्याय, वर्गीय-जातीय-धर्मिक-लैंगिक-भाषाई भेदभाव आदि को समाप्त करने का लक्ष्य हमने अपने समक्ष रखा था. केवल जीविकोपार्जन उसका मकसद नहीं था. इसलिए संविधान के नीति निर्देशक तत्वोंं में प्रत्येक नागरिक के लिए शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य की संवैधानिक जिम्मेवारी बनाई गई थी, लेकिन तथ्य इसकी गवाही देते हैं कि हमारी सरकारें अपने इस संवैधानिक दायित्व से लगातार मुंह चुराते रही हैं. विगत 75 सालों में जितनी भी शैक्षणिक नीतियां आईं, लगभग सभी ने शिक्षा के निजीकरण के मॉडल को ही बढ़ावा दिया. दूसरी ओर, हमारे शैक्षणिक संस्थान उन्हीं दकियानूसी सोच व व्यवहार के केंद्र बनते गए जो हमारे समाज में मौजूद है. समावेशी शिक्षा नीति की जितनी ढोल पीट ली जाए, हकीकत यह है कि हमारे कैंपस महिलाओं-दलितों-अल्पसंख्यकों व कमजोर वर्ग के लोगों के लिए कहीं से भी समावेशी नहीं है. महिला शिक्षिकाओं पर छींटाकशी, दलित बैकग्राउंड से आने वाले शिक्षकों को उपहास का पात्र बना देना, अल्पसंख्यक समुदाय का कोई शिक्षक है तो उसे शक भरी निगाहों से देखना – सबकुछ वैसा ही है, जैसा समाज में. कुछ मामलों में तो और भी ज्यादा उत्पीड़नकारी.
बिहार के कॉलेजों में छात्र-छात्राओं का नामांकन तो बड़े पैमाने पर होता है लेकिन वे पढ़ने नहीं आते. शिक्षकों का घोर अभाव है, तदर्थ शिक्षकों से काम चलाया जा रहा है, आधारभूत संरचनाएं ध्वस्त हैं और बच्चे नदारद. न पढ़ने का माहौल है न पढ़ाने का. आपको सुनकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि कॉलेजों में महिला शिक्षिकाओं के लिए टॉयलेट तक नहीं है. वे पानी कम पीती हैं ताकि उन्हें शर्मसार न होना पड़े. चार से पांच हजार की लड़कियों वाले महाविद्यालयों में दो से तीन शौचालय भी सही सलामत नहीं होते. शौचालय है तो पानी नहीं है, साफ-सफाई नहीं है. सैनेटरी नैपकिन वेंडिंग मशीन शायद ही किसी स्कूल या कॉलेज में हो. इन तमाम अभावों से जूझते हुए भी जब महिला शिक्षक काम करना चाहती हैं तो उन्हें लांछित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती. उन्हें किसी प्रशासनिक पद या अन्य गंभीर कार्यों की जिम्मेवारी नहीं दी जाती.
कुछ दिन पहले बिहार के शिक्षा मंत्री ने बयान दिया था कि शिक्षकों को मुस्तैदी से अपना काम करना होगा. लेकिन क्या बिहार के कैंपसों की हालत ऐसी है कि वहां कोई सार्थक काम किया जा सके? समस्तीपुर कॉलेज का एक मामला हाल के दिनों में बहुत चर्चित हुआ है. वहां एक महिला शिक्षिका को केवल इस बात के लिए कॉलेज प्रशासन व सहयोगी पुरुष शिक्षकों ने मानसिक रूप से प्रताड़ित किया और अंत में उनका तबादला ही करा दिया कि वे छात्रा-छात्राओं को पढ़ाना चाहती थीं. कॉलेज में भी पढ़ाती थीं और एक्सट्रा क्लास भी लेती थीं.
समस्तीपुर कॉलेज की यह घटना इस बात का उदाहरण है कि आज पूरी की पूरी शिक्षा व्यवस्था ही कैद में है, जहां सिर्फ पदों पर बने रहने के लिए राजनीतिक तिकड़म होता है. इस कॉलेज के मनोविज्ञान की शिक्षिका डॉ. साधना शर्मा मूलतः राजस्थान की रहने वाली हैं. 2017 में वे शिक्षक के बतौर यहां बहाल हुईं. कॉलेज में नामांकन तो भारी संख्या में है लेकिन छात्र-छात्रायें कम ही पहुंचते हैं. डॉ. साधना ने अपने स्तर से प्रयास चलाए. उनके प्रयास से मनोविज्ञान विभाग में छात्र-छात्राएं पहुंचने लगे. संख्या बढ़ने लगी. लड़कियों की भी अच्छी संख्या होने लगी. कॉलेज टाइम की समाप्ति के बाद वे नेट और अन्य दूसरी प्रतियोगी परीक्षाओं की भी तैयारी कराने लगीं. उनके प्रयास ने रंग दिखलाना शुरू किया और कॉलेज में पठन-पाठन का माहौल बनने लगा. फिर क्या था, कॉलेज प्रशासन को यह खटकने लगा. अब एक शिक्षिका पढ़ा रही हैं तो दूसरे को भी पढ़ाना होगा. भला दूसरा क्यों पढ़ाएं? और यहां से उस महिला शिक्षक को प्रताड़ित करने का खेल शुरू हुआ.
बिहार के कॉलेज जाति प्रभाव में भी खूब रहते हैं. बहरहाल, यह कॉलेज राजपूत जाति और वैचारिक रूप से भाजपा माइंडेड शिक्षकां के प्रभाव में है. डॉ. साधना जब अपने पहनावे से लेकर अपने आजाद ख्यालातों पर हो रहे सहयोगी शिक्षक पुरुषों के हमले से तनिक भी विचलित नहीं हुईं तब उनके डिपार्टमेंट का नक्शा ही बदल देने की योजना बनाई गई. गर्मी की छुट्टियों में, जब वे अपने घर गई हुई थीं, संस्कृत विभाग में एक नवनिवयुक्त जदयू से जुड़ेअतिथि शिक्षक दुर्गेश राय को आगे करके मनोविज्ञान विभाग की प्रयोगशाला के उपकरणों को एक स्टोर रूम में शिफ्ट कर दिया गया. अपना कमरा होने के बावजूद संस्कृत विभाग ने मनोविज्ञान विभाग की प्रयोगशाला में अपना विभाग खोल लिया. पुस्तकालय को भी दो भागों में बांटकर आधा संस्कृत विभाग के हिस्से कर दिया गया, जबकि कॉलेज में कमरों की कोई कमी नहीं है. विभाग की सेवा में तत्पर चपरासी को हटाकर एक शराबी को बहाल कर दिया गया.
छुट्टी के बाद जब डॉ. साधना लौटीं तब यह सब देखकर हतप्रभ रह गईं. उन्होंने कॉलेज प्रशासन से बिना उनकी सहमति लिये उनके डिपार्टमेंट का हुलिया बदल देने की शिकायत की. इसके बाद उनपर हमला और बढ़ गया. 29 जुलाई को उन्होंने कॉलेज व विश्वविद्यालय प्रशासन और महिला आयोग को पत्रा लिखकर कार्यस्थल पर अकारण मानसिक तनाव, अभद्र व्यवहार व अश्लील टिप्पणियों की शिकायत की. उन्होंने अपने पत्रा में लिखा कि कॉलेज में शुरू से ही उनके ऊपर अनर्गल टिप्पणियां की जाती रही हैं, जिन्हें पहले तो उन्होंने गंभीरतापूर्वक नहीं लिया और बस कभी-कभी मौखिक रूप से विरोध किया, लेकिन अब स्थिति बेहद गंभीर हो गई है. चरित्र हनन करने के उद्देश्य से अर्थशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष सह वर्सर मुकंद कुमार ने अन्य शिक्षकों के समक्ष उनके ऊपर अभद्र, अमर्यादित व अश्लील टिप्पणी की. उन्होंने आगे लिखा कि यह किसी भी व्यक्ति के गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार को ठेस पहुंचाने वाला है, इसलिए उनपर कार्रवाई की जाए.
यह पत्र किसी प्रकार जागरण डिजीटल में छप गया और मामला सार्वजनिक हो गया. तब कॉलेज प्रशासन ने आनन-फानन में डॉ. साधना को वार्त्ता का प्रस्ताव दिया. वे मान गईं. मनोविज्ञान विभाग की पूर्व विभागाध्यक्ष को इस मामले को निपटाने का जिम्मा मिला. लेकिन डॉ. साधना जब बातचीत के लिए कक्ष में पहुंची तो यह देखकर भड़क गईं कि वहां पहले से एबीवीपी के दो वैसे नेता टाइप लड़के बैठे हैं, जिनपर पहले से ही यौन उत्पीड़न के गंभीर चार्ज लगे हुए थे. डॉ. साधना ने यह कहते हुए बैठने से मना कर दिया कि ‘लुंपेन लोग मेरा क्या फैसला करेंगे’?
मनोविज्ञान विभाग के छात्र-छात्रायें इस प्रसंग से बेहद दुखी थे. वे अपनी शिक्षिका की इस तरह की प्रताड़ना भला कैसे बर्दाश्त कर सकते थे? उन्होंने तब छात्र संगठन आइसा से संपर्क किया. आइसा के विश्वविद्यालय संयोजक सुनील कुमार व नेत्री मनीषा ने पहले छात्र-छात्राओं से मुलाकात की और उसके बाद डॉ. साधना से भी बातचीत की. आइसा की पहलकदमी पर 26 छात्रों ने ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के कुलपति को पत्र लिखकर उनको मनोविज्ञान विभाग की समस्याओं से वाकिफ कराया. अपने पत्र में उन्होंने लिखा कि हमारे विभाग की शिक्षिका को मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जा रहा है. इसके कारण हम सब लोगों की पढ़ाई बाधित है. अन्य विभागों में पैसे का लेन-देन चलता है लेकिन हमारे विभाग में नहीं. इसलिए हमारे विभाग को निशाना बनाया जा रहा है.
छात्र-छात्राओं का हस्ताक्षर युक्त पत्र कुलपति के साथ-साथ उच्च शिक्षा निदेशक को भी भेजा गया. इसकी खबर हिंदुस्तान व प्रभात खबर अखबार में छपी. खबर छपने के बाद शिक्षक संघ सक्रिय हुआ. उसने शिक्षक संघ के व्हाट्सएप ग्रुप में डाला कि चूंकि इस मामले को शिक्षकों के बीच नहीं रखकर छात्रों के बीच रखा जा रहा है, इसलिए संघ इसकी निंदा करता है. शिक्षक संघ ने यहां तक कह डाला कि डॉ. साधना को इसके लिए माफी मांगना होगा. विदित हो कि शिक्षक संघ के अध्यक्ष व सचिव ने शिक्षकों की कोई बैठक बुलाये बिना ही यह निंदा प्रस्ताव ले लिया था. बाद में अन्य शिक्षकों को बुलाकर जब बैकडेट इस प्रस्ताव को लेने की बात हुई तो कई शिक्षक सचिव व अध्यक्ष के इस रवैये से इतना आहत हुए कि उन्होंने गु्रप छोड़ना ही उचित समझा और कई लोगों ने निंदा प्रस्ताव लेने से मना कर दिया. आगे चलकर टीचिंग व नन टीचिंग स्टाफ को मिलाकर कुल 12 लोगों द्वारा लिया गया एक निंदा प्रस्ताव विश्वविद्यालय को भेजा गया.
इसके खिलाफ आइसा के नेतृत्व में छात्र-छात्राओं ने नए सिरे से आंदोलन की शुरूआत कर दी. छात्र-छात्राओं ने विश्वविद्यालय को अल्टीमेटम दिया कि यदि आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं होती तो सब के सब सामूहिक रूप से कॉलेज से सीएलसी ले लेंगे. यह आंदोलन अपने ऊफान पर पहुंचने ही वाला था कि पार्ट थर्ड की परीक्षायें शुरू हो गईं और नगर निकाय चुनाव को लेकर आचार संहिता लागू हो गई. कॉलेज प्रशासन ने इसका इस्तेमाल आंदोलन को खत्म कर देने में की. विदित हो कि विश्वविद्यालय के कॉलेज इंसपेक्टर डॉ. सत्येन कुमार ही समस्तीपुर कॉलेज के भी इंचार्ज हैं और वे यदा-कदा ही कॉलेज आते हैं. इसतरह सबकुछ यों ही चलते रहता है.
इसके बाद कॉलेज प्रशासन ने एक अजूबा कार्रवाई करते हुए पीड़ित शिक्षिका डॉ. साधना शर्मा का स्थानांतरण बेगूसराय जिले के दूरदराज इलाके में स्थित एक महिला कॉलेज में कर दी जबकि इस मामले में मुख्य आरोपी का स्थानांतरण उसके गांव के बगल में ही स्थित एक कॉलेज में कर दिया गया. प्रशासन के फैसले से आहत डॉ. साधना शर्मा फिलहाल मेडिकल छुट्टी पर चली गई हैं. जब वे कॉलेज से विदा हो रही थीं, छात्र-छात्राओं के आंसू रूकने के नाम नहीं ले रहे थे. वे सब पढ़ना चाहते हैं, वे सब चाहते हैं कि डॉ. साधना जैसी शिक्षिका उनको हौसला देती रहीं.
हमारी शिक्षा व्यवस्था का जो हाल बना दिया गया है उसमें न पढ़ने और पढ़ाने न देने का विचार ही प्रमुख है. हमारे कैंपस पितृसत्तात्मकता में डूबे हुए हैं. महिलाओं के लिए उचित माहौल का सर्वथा अभाव है. खुद शिक्षा व्यवस्था ही लूट-खसोट के तंत्र की कैद में है. हमारे शैक्षणिक संस्थान मानसिक व चारित्रिक मजबूती पैदा करने के बजाये जातीय व लैंगिक उत्पीड़न के केंद्र बनते जा रहे हैं जहां बार-बार रोहित वेमुला की शहादत याद आती है.
बिहार के विश्वविद्यालयों में शिक्षा की दयनीय स्थिति और शिक्षकों के सामने मौजूद समस्याओं पर विगत 16 अक्टूबर 2022 को पटना के आईएमए हॉल में बिहार के विश्वविद्यालय शिक्षकों की एक बैठक आयोजित हुई.
भाकपा(माले) विधायक संदीप सौरभ (पालीगंज विधान सभा क्षेत्र) की पहल पर आयोजित बैठक में पटना, वीर कुंवर सिंह, ललित नारायण मिथिला, जेपी यूनिवर्सिटी, बाबा साहब भीमराव अंबेडकर, मगध, पाटलिपुत्र समेत कई विश्वविद्यालयों के शिक्षकों ने भाग लिया. बैठक में अतिथि शिक्षक भी मौजूद थे.
बैठक में चर्चा के दौरान शिक्षकों ने अपनी कई समस्याओं को सामने रखा. महिला शिक्षकों ने टॉयलेट की समस्या को प्रमुख मुद्दे के रूप में उठाया. उन्होंने छात्र-शिक्षक अनुपात को कम करने, पठन-पाठन का माहौल बनाने, विश्वविद्यालीय शिक्षा व्यवस्था को राजभवन के बजाए राज्य सरकार के अधीन करने, विश्वविद्यालयों में मौजूद भ्रष्टाचार को दूर करने तथा आधारभूत संरचनाओं का विस्तार करने की जरूरत को सामने लाया. शिक्षकों ने कहा कि हम सब पढ़ाना चाहते हैं, कॉलेज का माहौल बदलना चाहते हैं लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है. बैठक से सभी शिक्षकों को एक मंच पर लाने और इसके लिए आगे चलकर एक संगठन खड़ा करने का भी निर्णय हुआ. इस दिशा में आगे बढ़ते हुए शिक्षकों ने फिलहाल एक संयोजन समिति का गठन किया है और एक संगठन की प्रस्तावना और मांगों का एक चार्टर तैयार करने के लिए दो अलग-अलग कमेटियां बनाई हैं.
भाकपा(माले) विधायक का. संदीप सौरभ ने कहा कि शिक्षा में बदलाव को लेकर शिक्षकों को संगठित करने की आवश्यकता लंबे अरसे से महसूस की जा रही है. ये सभी नए शिक्षक जिनकी बहाली 2018 में हुई है, काफी ऊर्जावान हैं और वे छात्रों को पढ़ाना चाहते हैं. लेकिन उनको शैक्षणिक कैंपसों में अच्छा माहौल नहीं मिलता है. इस बैठक से हम विश्वविद्यालय शिक्षा को बदलने की दिशा में एक कदम उठा रहे हैं. हम पूरी एकजुटता के साथ आगे बढ़ेंगे और इस माहौल को बदलने का भरपूर प्रयास करेंगे.