[विगत 28 सितंबर 2022 को, शहीदे आजम भगत सिंह की 115वीं जयंती के मौके पर, आइलाज ‘ऑल इंडिया लॉयर्स एसोसिएशन फॉर जस्टिस’ ने मोदी राज के दौरान अलग-अलग झूठे मुकदमों में देश के विभिन्न जेलों में बंद सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा करने की मांग पर राष्ट्रीय प्रतिवाद दिवस का पालन किया. राष्ट्रीय प्रतिवाद दिवस के लिए आइलाज ने यह पर्चा जारी किया था.]
भगत सिंह को 23 मार्च 1931 को फांसी दिए जाने के पहले उनके जेल में बिताए दो सालों को याद किये बिना उनको याद करना अधूरा है. वे उस समय जेल में अन्य राजनीतिक कैदियों के साथ भूख हड़ताल पर चले गए थे.116 दिनों तक चले इस भूख हड़ताल के 63वें दिन क्रांतिकारी जतिन दास का निधन हो गया था. उनकी मांग थी कि उनके साथ राजनीतिक कैदियों जैसा व्यवहार किया जाए. भारत में 2014 के बाद से राजनीतिक कैदियों की लंबी सूची सिर्फ बढ़ते जा रही है. आइलाज ने सभी राजनीतिक कैदियों की रिहाई की मांग के लिए 28 सितंबर को राष्ट्रीय प्रतिवाद दिवस मनाने का आह्वान किया है. कृपया इसमें अवश्य शामिल हों.
सिद्दीकी कप्पन को 711 दिन हिरासत में बिताने के बाद 9 सितंबर को अंतरिम जमानत दे दी गई, पर अभी भी वे जेल में है, क्योंकि उनके खिलाफ एक और आपराधिक मामला लंबित है जिसमें अभी तक जमानत नहीं मिली है. पेशे से पत्रकार कप्पन को उत्तर प्रदेश के हाथरस में एक युवा दलित महिला के बलात्कार और हत्या की रिपोर्टिंग के लिए जाते वक्त रास्ते में पुलिस ने गिरफ्तार किया था. पुलिस ने कप्पन पर निराधार आरोपों के साथ उनके राष्ट्र-विरोधी होने का तमगा लगा दिया और सत्ता के खिलाफ सच बोलने के लिए दक्षिणपंथ द्वारा उन्हें खलनायक करार दे दिया गया. कप्पन जैसी कहानी कईयों की है जो भारत में राजनीतिक बंदियों के बढ़ते समूह का हिस्सा हैं.
2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद से मानवाधिकार कार्यकर्ताओं से लेकर वकीलों व पत्रकारों और प्रगतिशील अधिकारों के लिए संघर्ष की उनकी निष्ठा के कारण सताए जाने की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है. 2018 में भीमा कोरेगांव से संबंधित गिरफ्तारियों और 2020 में सीएए के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन से लेकर हाल ही में कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और पत्रकार मोहम्मद जुबैर की गिरफ्तारी यह दर्शाती है कि मौजूदा निजाम अपने खिलाफ असहज सच और झूठ को उजागर करने वाले किसी भी शख्स को कैद करने पर आमादा है. चाहे वह उमर खालिद और अन्य सीएए विरोधी कार्यकर्ताओं की दिल्ली दंगों के फर्जी आरोपों में गिरफ्तारी हो, या भीमा कोरेगांव मामले में आनंद तेलतुम्बडे, प्रो. हनी बाबू, गौतम नवलखा और अन्य की गिरफ्तारियां हों, इन सभी मामलों में एक खास विशेषता कठोर गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, (यूएपीए) 1967 का लागू किया जाना है, जिसके तहत जमानत मिलने की बेहद कठिन संभावना है. अभी कुछ दिन पहले बॉम्बे हाईकोर्ट ने प्रो. हनी बाबू की जमानत याचिका खारिज कर दी है. बेशक वरवर राव को सुप्रीम कोर्ट ने मेडिकल जमानत दी लेकिन उसके पहले इसी जमानत के लिए फादर स्टेन स्वामी को मना कर दिया गया था जिसके कारण उनकी हिरासत में मौत हो गई. महत्वपूर्ण बात है कि यूएपीए के तहत बरी होने की दर 97.2 प्रतिशत है. और हाल ही में पीयूसीएल द्वारा एनसीआरबी के आंकड़ों पर आधारित रिपोर्ट के मुताबिक यूएपीए के तहत गिरफ्तार किए गए 8,371 व्यक्तियों में से केवल 235 को 2015-2020 के बीच दोषी ठहराया गया.
एक लंबे दौर से यह कहा जाता है कि भारतीय राज्य की सबसे क्रूर ज्यादतियों को पहले कश्मीर में आजमाने, परीक्षण व अचूक करने का काम किया जाता है,और फिर देश के बाकी हिस्सों में इसको लागू किया जाता है. राजनीतिक गिरफ्रतारी के साथ भी ऐसा ही है. मोदी सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के फैसले के बाद 5000 से अधिक कश्मीरियों को गिरफ्तार किया गया. पूरी घाटी के राजनेताओं, वकीलों, व्यापारियों, कार्यकर्ताओं और पत्राकारों को दूर-दराज की जेलों में डाल दिया गया या घर में नजरबंद रखा गया. श्रीनगर स्थित जम्मू कश्मीर कोलिशन ऑफा सिविल सोसाइटी (JKCCS) के प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता खुर्रम परवेज जो घाटी में सुरक्षा बलों द्वारा किए गए मानवाधिकारों के उल्लंघन और ज्यादतियों पर नियमित रिपोर्ट प्रकाशित करते थे, नवंबर 2021 में टेरर-फंडिंग के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) द्वारा जांच शुरू होने के बाद उन पर आतंकवाद विरोधी कानून चस्पां कर दिया गया जिससे कि उनको जमानत मिलना असंभव हो गया है. इस साल की शुरुआत में, कश्मीरी पत्रकार फाहद शाह को जम्मू-कश्मीर पब्लिक सेफ्टी एक्ट (PSA) के तहत इस आधार पर हिरासत में लिया गया कि वे ‘सरकार और उसकी नीतियों के खिलाफ फर्जी खबरें प्रसारित करके आम जनता को गुमराह कर रहे हैं.’
राज्य की कॉरपोरेट-परस्त नव-उदारवादी नीतियों ने आदिवासियों और अन्य कमजोर समुदायों को बेदखल और विस्थापित कर प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिए बड़े कॉरपोरेट घरानों को खुली छूट दे रखी है. बेदखली और विस्थापन के खिलाफ इन समुदायों के प्रतिरोध को राज्य खतरा समझ कर दमन और उनके लोकतांत्रिक विरोध का अपराधीकरण कर चुप कराने की कोशिश कर रहा है. इस कॉरपोरेट लूट और बेदखली के खिलाफ झारखंड में आदिवासियों के संगठित पत्थलगड़ी आंदोलन में भाग लेने के आरोप में सामूहिक दंड के बतौर 10,000 से अधिक आदिवासियों पर देशद्रोह का मुकदमा किया गया. यह कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र का विरोध करने वाले लगभग 9000 लोगों के खिलाफ दर्ज देशद्रोह के मामले के समान है. इस साल की शुरुआत में उड़ीसा के जगतसिंहपुर जिले के ढिंकिया गांव में जेएसडब्ल्यू के मेगा स्टील प्लांट का विरोध करने पर सैकड़ों ग्रामीणों और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया. लोकतांत्रिक विरोधों को कुचलने के लिए आपराधिक कानून की पूरी ताकत का इस्तेमाल आज कायदा बन गया है.
ढर्रा साफ है. यह सिर्फ क्रियाकलापों का ही नहीं बल्कि सरकार का विरोध करने वाले किसी भी विचार का अपराधीकरण है. राज्य निंदनीय रूप से अपने खिलाफ उठी किसी भी शख्स की आवाज को बंद करने के लिए जांच और पहले से ही अन्यायपूर्ण आपराधिक व्यवस्था को हथियार बना रहा है. इसी तरह से दिल्ली पोग्रोम (नरसंहार) की तथाकथित जांच को सीएए विरोधी कार्यकर्ताओं को निशाना बनाने में तब्दील कर दिया गया और भीमा कोरेगांव मामला दलित बुद्धिजीवियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों और राज्य के सभी आलोचकों को निशाना बनाने का जरिया बन गया. यह शासन किस हद तक जा सकता है इसका खुलासा शायद असम पुलिस द्वारा जिग्नेश मेवाणी की गुजरात से गिरफ्तारी और दिल्ली पुलिस द्वारा पत्रकार जुबैर को एक सार्वजनिक ट्वीट करने के लिए उसके लैपटॉप को बरामद करने के लिए बंगलोर ले जाने की कार्रवाई से होता है.
कठोर कानूनों और तेजी से कमजोर होती न्यायपालिका ने निजाम के सियासी दुश्मनी को साधने में सबसे अच्छे दोस्त की भूमिका निभाने का काम किया है. इन सभी आरोपित मामलों में उनके पास बहुत कम या झूठे सबूत हैं और पूरी संभावना है कि वे कानूनी प्रक्रिया में खरे नही उतरेंगें, पर राज्य की नियम प्रक्रिया से गुजरना ही सजा के समान है. यहां राज्य की सफलता अदालत में उनके मामले को साबित करने में नहीं है, बल्कि कैदियों को एक लंबी और क्रूर आपराधिक प्रक्रिया में फंसा कर कैद रखने की है. यह भीमा कोरेगांव के मामले में पूरा स्पष्ट ही हो गया, जहां अंतरराष्ट्रीय जांच संगठनों द्वारा पेश भारी सबूतों से पता चला कि पुणे पुलिस ने दो राजनीतिक कैदियों के कम्प्यूटर में फार्जी सबूत डाले हैं, इसके बाबजूद फर्जी सबूत पेश करने के लिए पुलिस पर कारवाई या कैदियों को रिहा करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया है.
अभी ज्यादातर मामलों में ट्रायल शुरू नहीं है, पर राजनीतिक कैदियों में ढेर-सारे उम्रदराज लोग हैं जो जेल अधिकारियों द्वारा बढ़ते दुर्व्यवहार से पीड़ित हैं. उन्हें मच्छरदानी और टेलीफोन जैसी सबसे बुनियादी सुविधाओं तक देने से इनकार किया जा रहा है. पिछले साल भीमा कोरेगांव मामले में 16 गिरफ्तार लोगों में से एक फादर स्टेन स्वामी जेल में समय पर चिकित्सा नही मिलने के कारण संस्थागत हत्या का शिकार बन गए. आज, वर्नान गोंसाल्वेस, जीएन साईबाबा और गौतम नवलखा जैसे अन्य लोग भी इसी तरह अपने स्वास्थ्य की समस्याओं से जूझ रहे हैं, पर राज्य द्वारा राहत मिलने के कोई संकेत नहीं हैं.
ऐसा कहा जाता है कि लोकतंत्र एक निरा सपना नहीं बल्कि एक सार्थक अवधारणा है जिसके आवश्यक गुण सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और उपासना की स्वतंत्रता और सभी के लिए समानता और समान अवसर की उपलब्धता संविधान की प्रस्तावना में ही निहित है. इस निजाम ने यह सीखा है कि उसे लोकतंत्र को निरस्त करने की जरुरत नहीं है, बल्कि लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय से पूरी तरह से वंचित करके व विचार, अभिव्यक्ति, आस्था और उपासना की स्वतंत्रता को समाप्त करके तथा समानता पर आधारित समाज के आदर्श के प्रति प्रतिबद्धता को त्याग कर लोकतंत्र को सबसे प्रभावी तरीके से खोखला किया जा सकता है.
लोकतंत्र और असहमति की किसी भी आवाज का प्रतिशोधात्मक दमन फासीवाद के भारतीय ब्रांड की एक जरूरी खासियत है और जेल में बंद लोगों को सिर्फ ‘राजनीतिक कैदी’ कहा जा सकता है. हकीकत में, मौजूदा निजाम के फासीवादी नीतियों का विरोध करने वाले लोगों के खिलाफ पूरी ताकत से आपराधिक न्यायिक व्यवस्था और कठोर कानूनों का प्रयोग करना, लोकतंत्र, असहमति का अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को खोखला करने के साथ जनता को आतंकित करना है. यह जरूरी है कि है हम सभी राजनीतिक कैदियों की तत्काल रिहाई और संविधान के रचियताओं द्वारा सोंची गयी.
इस संदर्भ में हमे यह याद रखना जरूरी है कि ऐतिहासिक रूप से राजनीतिक कैदियों अपने अलग वजूद की मांग जेल में अन्य कैदियों की तुलना मे कोई विशेषाधिकार के लिए नहीं, बल्कि अपनी कैद के लिए राज्य सत्ता को अवैध ठहराते हुए अपने संघर्ष या विचार की वैधता पर जोर देने के लिए है. जिस तरह से स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जब भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारियों ने राजनीतिक कैदियों के रूप में मान्यता देने के लिए मांग की थी और इस उद्देश्य के लिए जेल में अनशन तक किये थे. आज भी जो अपने राजनीतिक विश्वासों और क्रियाकलापों के लिए कैद हैं, वे वास्तव में ‘राजनीतिक कैदी’ हैं.
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें इन कैदियों की भावना और मूल्यों के साथ सबसे पहले उनकी रिहाई के लिए संघर्ष करना चाहिए. एक समाज जो अपने मुखालिफ करने वालों को कैद करता है वह एक ऐसा समाज है जो अपने प्रगति को भी कैद कर डालता है. और सभी राजनीतिक कैदियों की रिहाई की इस लंबी लड़ाई के जरिये हमने लगातार उनके साथ अपनी एकजुटता की पुष्टि की है और आगे भी करते रहेंगे और उन्हें यह दिलासा देने का काम करेंगे कि जेल के बाहर लोगों का एक समुदाय है और उनके लिए संघर्ष कर रहा है.
इसके लिए हमें राजनीतिक कैदियों और उनके परिवारों के लिए लगातार संघर्ष को जारी रखने का प्रयास करना चाहिए. आइलाज देश के कानूनी बिरादरी के सभी सदस्यों और तरक्कीपसंद नागरिकों से 28 सितंबर 2022 को निम्नलिखित मांगों के साथ राजनीतिक कैदियों के साथ एकजुटता जाहिर करते हुए आवाज उठाने का आह्वान करता है :
1. सभी राजनीतिक कैदियों को अविलंब रिहा करो.
2. यूएपीए, एनएसए और सभी राज्य सुरक्षा कानूनों को रद्द करो.
3. वर्नान गोंसाल्वेस, जीएन साईबाबा, गौतम नवलखा, अतीक-उर-रहमान सहित और अन्य सभी राजनीतिक कैदियों को तत्काल गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा प्रदान करो.