- दीपंकर भट्टाचार्य
भारत में अधिकाधिक लोग और भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर नजर रखने वाले दुनिया भर के पर्यवेक्षक इस बात पर ज्यादा से ज्यादा सहमत हो रहे हैं कि भारत में संसदीय लोकतंत्र को पूरी तरह ध्वस्त करके फासीवाद लाद दिए जाने का वास्तविक खतरा बढ़ता जा रहा है. यह सच है कि ये सभी लोग भारत की मौजूदा स्थिति को बताने के लिए फासीवाद शब्द का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं. अनेक लेखक दक्षिणपंथी लोकप्रियतावाद, सर्वसत्तावाद, चुनावी निरंकुशता, नृजातीय लोकतंत्र आदि शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं, भाकपा(माले) फासीवाद का मूल शब्द ही प्रयोग करना चाहती है. 1970 के दशक के मध्य में आंतरिक आपातकाल की अवधि को छोड़कर - जब लोकतंत्र पर निरंकुशता का ग्रहण लगा था - भारत में लगभग सात दशकों से संसदीय लोकतंत्र अबाध रूप से चलता रहा है. मौजूदा परिस्थिति को अघोषित, लेकिन अधिक व्यापक व स्थायी आपातकाल के बतौर देखा-समझा जा रहा है. जहां 1970 के दशक के आपातकाल का बुनियादी मतलब था राजनीतिक विपक्ष के बरखिलाफ राज्य का आक्रामक ढंग से हावी हो जाना तथा नागरिकों के बुनियादी अधिकारों को निलंबित कर देना, वहीं आज की स्थिति में भारत की विविधता और बहु-धार्मिक व बहु-भाषी सामाजिक ढांचे पर लगातार प्रचंड हमले किए जा रहे हैं.
हम इस स्थिति को तीन दशक पूर्व अयोध्या अभियान के दिनों से निर्मित होता देख रहे हैं. हमने बाबरी मस्जिद के विध्वंस को सांप्रदायिक फासीवाद के उत्थान के निश्चित संकेत अथवा शुरूआती चेतावनी के बतौर चिन्हित किया था. यह शब्द 2002 के गुजरात जनसंहार के बाद और ज्यादा चलन में आ गया. सर्वोच्च नेता के प्रति कॉरपोरेट जगत की पूर्ण वफादारी के साथ नरेन्द्र मोदी को भारत का प्रधानमंत्री बनाने की कॉरपोरेट मुहिम फासीवाद का दूसरा निर्विदाद संकेत बनकर सामने आई. 2014 के बाद भारतीय फासीवाद की अन्य चारित्रिक विशेषताएं खतरनाक गति और तीव्रता के साथ प्रकट हो रही हैं. भारत में यह फासीवाद कार्यपालिका द्वारा कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका के बीच सत्ता के सांस्थानिक विभाजन को मटियामेट कर देने के रूप में सामने आ रहा है. इसी के साथ जुड़ा है मुस्लिमों को निशाना बनाकर हो रहे हमले, जातीय व लैंगिक हिंसा में तीव्रता तथा भारत की सड़कों पर राज्य-समर्थित राज्येतर ताकतों का खुला तांडव. इस फासीवाद का मतलब है बड़े पैमाने पर मिथ्या सूचनाएं व ध्यान भटकाने के हर संभव साधन का इस्तेमाल कर व्यापक जनसमुदाय के बीच आम सहमति निर्मित किया जाना, और इसके लिए संघ ब्रिगेड के अपनी आइटी सेल के साथ-साथ ‘गोदी मीडिया’ में बदल दिए गए मुख्यधारा के मीडिया के विशाल ढांचे का भी इस्तेमाल किया जा रहा है. इस फासीवाद का मतलब है दानवीय कानूनों को लादकर और न्याय तथा कानून के राज के बुनियादी सिद्धांतों को नष्ट कर विरोध की आवाज को खामोश करना और दंडित करना तथा नागरिकों को शक्तिविहीन बनाकर उन्हें राजशाही अथवा औपनिवेशिक व्यवस्था के तहत प्रजा बना देने के लिए आतंक व डराने-धमकाने का सर्वग्रासी वातावरण तैयार करना.
मोदी शासन को सिर्फ सर्वसत्तावादी ही नहीं, बल्कि एक फासिस्ट शासन बनाने के केंद्र में आरएसएस की भूमिका निहित है जो इस नई व्यवस्था के निर्माण का कुचक्र रचता रहा है. हमें यह भी याद रखना होगा कि आरएसएस का जन्म 1925 में हुआ था और उसने इटली में मुसोलिनी के नेतृत्व में कायम दुनियां के पहले फासिस्ट शासन और उसके बाद हिटलर के नाजी जर्मनी में पूर्ण विकसित फासीवादी परियोजना से प्रेरणा ली थी. उसने इस आयातित विचारधारा को भारतीय अतीत की सर्वाधिक प्रतिगामी सामाजिक व सांस्कृतिक विरासत, खासकर ब्राह्मणवादी वर्ण-व्यवस्था तथा पितृसत्ता व विषाक्त मुस्लिम विरोधी घृणा के साथ मिलाकर सावरकर के शब्दों में ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ अथवा ‘हिंदुत्व’ के आधार पर भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ के बतौर परिभाषित किया.
जहां मुसोलिनी और हिटलर जल्द ही सत्ता में पहुंच गए और द्वितीय विश्व युद्ध में समाप्त भी हो गए, वहीं भारत में इन फासिस्टों को केंद्रीय सत्ता तक पहुंचने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ा. हिटलर युग की अतिराष्ट्रवादी विचारधारा, जनगोलबंदी और जनसंहार के तौर तरीकों से सीखते हुए और नियंत्रण व जासूसी की आज के जमाने की डिजिटल तकनीक का सहारा लेकर आज का भारतीय फासीवाद शायद सर्वाधिक अनुभवी फासीवादी शासन बन गया है. यह शासन घरेलू और वैश्विक समर्थन हासिल करने के लिए अपने हिंदू वर्चस्ववादी राष्ट्रवाद के साथ अपनी अमेरिका परस्त वैदेशिक नीति का संयोजन कर रहा है. जिसमें उसे भारतीय बाजार के प्रति वैश्विक पूंजी का बढता आकर्षण, कॉरपोरेट इंडिया के साथ बढ़ते एकीकरण तथा अमेरिका व इजरायल के घनिष्ठ संश्रयकारी के बतौर भारत की सामरिक भूमिका से काफी फायदा मिल रहा है.
बेशक भारत ‘ब्रिक्स’ और ‘शंघाई सहयोग संगठन’ का भी सदस्य है, जिसके अंतर्गत वह रूस और चीन के साथ मंच साझा करके एक हद तक अपनी स्वायत्तता और अमेरिका-नीत पश्चिमी दुनियां से एक दूरी भी कायम रखता है. लेकिन ट्रंप, नेतान्याहू और बोरिस जॉन्सन जैसे नेताओं (संयोगवश, ये तीनों आज सत्ता से बाहर हैं) के साथ मोदी का वैयक्तिक हेलमेल ही मोदी सरकार की विदेश नीति की वास्तविक दिशा और जोर को अभिव्यक्त करता है. 2002 के गुजरात जनसंहार के बाद लंबे समय तक वहां के मुख्यमंत्री के बतौर मोदी को अमेरिका और इंग्लैंड समेत अनेक पश्चिमी देशों ने वीसा देने से इंकार कर दिया था लेकिन वैश्विक राजनीति में दक्षिणपंथी सर्वसत्तावाद के अभ्युत्थान के साथ ही प्रधानमंत्री के बतौर मोदी को अमेरिका-नीत पश्चिमी दुनिया का मजबूत समर्थन मिलने लगा जो ट्रंप के राष्ट्रपतित्व काल और ट्रंप के साथ मोदी के विशेष मेलमिलाप के बाद भी चलता रहा.
हिंदू राष्ट्र की दीर्घकालिक अभियोजना को साकार करने हेतु आरएसएस व उसके विशाल ढांचे की हमलावर भूमिका, राज्य संस्थाओं का विनाश तथा सरकारी संरक्षण व अभयदान के साथ जनसंहारी राज्येतर ताकतों का साजिशाना इस्तेमाल, कॉरपोरेट जगत का भरपूर समर्थन और साम्राज्यवाद के साथ घनिष्ठ रणनीतिक सांठगांठ - ये वे चार स्तंभ हैं जिसके सहारे मोदी शासन बड़ी तेजी के साथ संघ के फासीवादी एजेंडा को आगे बढ़ा रहा है. भाजपा 2014 में ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के साथ सत्ता में आई थी, और अब वह प्रणालीबद्ध ढंग से भारत को विपक्ष मुक्त लोकतंत्र में बदल डालने का प्रयास कर रही है. भाजपा अध्यक्ष कहते हैं कि जल्द ही भाजपा देश की एकमात्र पार्टी बन जाएगी, जबकि गृह मंत्री अमित शाह दावा करते फिर रहे हैं कि भाजपा पचास वर्षों तक भारत में शासन करती रहेगी.
भारत निश्चय ही फासिस्ट खतरे के प्रति सजग हो रहा है. हाल के वर्षों में भारतीय जनता के विभिन्न तबकों के महत्वपूर्ण आंदोलन देखे गए हैं. रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या के प्रतिवाद में हुआ छात्र आंदोलन, गुजरात के ऊना में उत्पीड़न के बाद दलित जागरण के नये दौर से लेकर भेदभावमूलक व विभाजनकारी नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ मुस्लिम महिलाओं की अगुवाई में विशाल शाहीनबाग प्रतिवादों और साल भर चले भारतीय किसानों के ऐतिहासिक आंदोलन तक हमने नफरत, भय और भयानक दमन को धता बताते हुए शक्तिशाली और संकल्पबद्ध प्रतिवादों की एक पूरी शृंखला देखी है. किसान आन्दोलन ने तो मोदी सरकार को उन तीन कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए बाध्य कर दिया जो भारतीय कृषि के सीधे-सीधे कॉरपोरेट अधिग्रहण की मंशा से बनाए गए थे. जनता के प्रतिवादों ने और संघवाद को रौंदने वाले फासीवादी कदमों तथा विपक्ष पर चौतरफा हमलों ने वृहत्तर स्तर पर विपक्षी एकता व गत्यात्मकता को आवेग देना शुरू किया है. लेकिन विपक्ष के महत्वपूर्ण हिस्से आरएसएस तथा नफरत व हिंसा की उसकी जहरीली मुहिम के खिलाफ दृढ़ स्थिति अपनाने से हिचक रहे हैं और वे सिर्फ मोदी सरकार के खिलाफ अपने विरोध को सीमित रखना चाहते हैं. यहां भी राज्य दमन, नागरिकों की राजनीतिक स्वतंत्रता और निजीकरण के उलट जनता के कल्याण की दिशा में नीतियों के बदलाव के सवाल ज्यादातर उपेक्षित ही रह जा रहे हैं.
यहीं पर क्रांतिकारी कम्युनिस्टों को अपनी भूमिका अदा करनी होगी और सर्वाधिक संकल्पबद्ध, मुकम्मल और स्थायी किस्म का प्रतिरोध चलाते हुए दीर्घकालिक लड़ाई के जरिए फासीवाद को शिकस्त देनी होगी. कम्युनिस्टों को जमीनी स्तर पर आंदोलन खड़ा करने व उन्हें टिकाए रखने में मदद करनी होगी और उस ऊर्जा को गोलबंद करके संसदीय विपक्षी खेमे में एकता व गतिशीलता बढ़ानी होगी ताकि फासीवादी ताकतों को सत्ता से हटाया जा सके. मजबूत हो रही फासीवादी शक्तियां लोकतंत्र व आधुनिक भारत की प्रगति को जितना नुकसान पहुंचा चुकी हैं, उससे स्पष्ट है कि लोकतांत्रिक शक्तियों को लंबी जद्दोजहद करनी होगी. अंबेडकर की उपमा के अनुसार अगर हम ‘हिंदू राष्ट्र’ को भारत की सबसे बड़ी विपदा मानते हैं, तो उसके प्रति हमारा जवाब भी फौरी राहत-सहायता के आपदा प्रबंधन रूख तक ही सीमित नहीं रह सकता है, हमारे जवाब को मुकम्मल रूख अपनाना होगा और हमें पुननिर्माण की चुनौती स्वीकार करनी होगी. अपनी गहरी अंतर्दृष्टि के साथ अंबेडकर ने भारत की संवैधानिक यात्रा के अंतरविरोधों, बढ़ती सामाजिक व आर्थिक विषमता के सम्मुख चुनाव में महज एक वोट के अधिकार पर टिकी कथित राजनीतिक समानता अर्थहीनता व अप्रासंगिकता की तरफ संकेत किया था. साथ ही, उन्होंने संवैधानिक लोकतंत्र के ऊपरी ढांचे और उसके नीचे की अलोकतांत्रिक जमीन के बीच टकराव की ओर भी इंगित किया था. लोकतंत्र को अपने अंदरूनी अंतरविरोधों से मुक्त कर और सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र तक इसे विस्तार देकर, यानि लोकतंत्र को मजबूत, गहरा, ज्यादा मुकम्मल और सुसंगत बनाकर ही हम फासीवाद का जवाब दे सकते हैं. ऐतिहासिक रूप से यही समाजवाद का वादा भी था, और सौ वर्ष पूर्व ठीक इसी समाजवादी सपने को कुचलने के लिए इटली में फासीवाद का उदय हुआ था. जिस संवैधानिक भविष्यदृष्टि और उद्घोषणा में भारत को संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणतंत्र की संज्ञा दी गई थी, उसे वास्तविक रूप से साकार करना ही आज भारत में बढ़ते फासीवादी आक्रमण का सच्चा जवाब हो सकता है.
जैसा कि पहले बताया गया, भारत में यह फासीवादी हमला दुनिया भर में उग्र दक्षिणपंथी ताकतों के उत्थान के अनुकूल वैश्विक माहौल में तेज हो रहा है. वैश्विक पूंजीवाद की जारी अधोगति ने जिसे कोविड-19 महामारी ने और गहरा दिया है, दक्षिणपंथी ताकतों के इस उभार को और बल प्रदान किया है. फरवरी 2022 के बाद हम युक्रेन पर रूसी आक्रमण से यूरोप में युद्ध का माहौल देख रहे हैं, जबकि सऊदी अरब और इजरायल के क्रमशः यमन और फिलिस्तीन पर हमलों से हो रही तबाही जारी है, और चीन को घेरकर उसपर निशाना साधने के लिए अमेरिका नए-नए रास्ते तलाश रहा है. भाकपा (माले) ने युक्रेन पर आक्रमण के लिए स्पष्ट रूप से रूस की भर्त्सना की है और इस बात पर जोर दिया है कि युद्ध को रोका जाए तथा युक्रेन की संप्रभुता सुनिश्चित करते हुए शांति बहाल की जाए. हमने रूसी अंधराष्ट्रवाद तथा उसकी विस्तारवादी युरेशियावाद की भी भर्त्सना की है, जो युक्रेन को मूलतः रूसी भू-भाग व संस्कृति का अखंड हिस्सा मानता है, और युक्रेन के संप्रभु अस्तित्व के लिए लेनिन की ‘गलती’ को कारण कहता है और उसे सुधार लेने की जरूरत बताता है.
हम रूस के इस विमर्श को भी स्वीकार नहीं करते हैं जो पूरब की तरफ ‘नाटो’ के विस्तार को इस मौजूदा युद्ध के औचित्य के बतौर पेश करता है. बहरहाल, यह तो निर्विवाद तथ्य है कि जहां युक्रेन और रूस, दोनों इस युद्ध में अपना खून बहा रहे हैं और दुनिया के बड़े हिस्से को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है, वहीं युद्ध में सीधी भागीदारी के बगैर ही अमेरिका सबसे ज्यादा फायदा बटोर रहा है. ऐतिहासिक रूप से वह पूरे ‘शीतयुद्ध’ के दौरान और सोवियत भंग के बाद की अवधि में भी अपने भू-राजनैतिक व सैन्य प्रभुत्व को बनाए रखने के लिए ‘नाटो’ का इस्तेमाल करता रहा है. सोवियत संघ तथा ‘वारसा संधि’ के ध्वंस और विघटन के बाद ‘नाटो’ को जारी रखने का कोई औचित्य नहीं था. लेकिन ‘नाटो’ को विघटित करने के बजाए अमेरिका इसका विस्तार करता रहा और ‘नाटो’ के सदस्य देशों की संख्या में वृद्धि करता रहा. स्थापना के समय यह संख्या 12 थी जो अभी बढ़कर 30 हो गई है. यह विस्तार महज रूस और उसके चीन के साथ बढ़ते सहयोग को नियंत्रित करने के लिए नहीं हैं, बल्कि समानांतर शक्ति के बतौर युरोप के उठ खड़े होने की गति मंद करना भी उसका एक अहम मकसद है. अभी भी अपनी संप्रभुता की रक्षा करने में युक्रेन की मदद का दावा करते हुए अमेरिका और कॉरपोरेट पूंजी युक्रेन के अर्थतंत्र को अपने शिकंजे में कसने की भरपूर कोशिशें चला रही है. वहां के विशाल भूखंडों को, सरकारी स्वामित्व वाले उद्योगों व उद्यमों को कॉरपोरेटों के हाथों सौंपा जा रहा है और साथ ही, विनियमन तथा श्रम कानूनों में क्षरण की प्रक्रिया भी जारी है. राष्ट्रपति जेलेंस्की ने युक्रेन की सम्पत्तियों को बेचने की विशाल मुहिम को ही न्यूयार्क स्टॉक एक्सचेन्ज में ‘एडवांटेज युक्रेन’ के रूप में परिभाषित किया है.
‘ऑपरेशन एन्ड्योरिंग फ्रीडम’ अर्थात तथाकथित ‘आतंक के खिलाफ वैश्विक युद्ध’ के पश्चात अब अमेरिका एक बार फिर शीत युद्ध जैसा माहौल तैयार करने का प्रयास कर रहा है. अमेरिका परस्त विचारकों और प्रचारकों ने रूस-चीन साझेदारी को द्वितीय विश्व युद्ध की जर्मनी-इटली-जापान धुरी के समान चिन्हित करना और इस नए फासिस्ट खतरे के खिलाफ अमेरिका के नेतृत्व में वैश्विक संश्रय की वकालत करना शुरू कर दिया है. संकटग्रस्त व पतनोन्मुख अमेरिका खुद के द्वारा किए जा रहे साम्राज्यवादी अपराधों की फेहरिस्त को ढकने तथा खुद को लोकतंत्र के स्वघोषित वैश्विक चैंपियन के बतौर पेश कर एकध्रुवीय विश्व में अपने एकछत्र प्रभुत्व की मंशा थोपने की कोशिश कर रहा है, मानो कि पूरी दुनिया लोकतंत्र के निर्यात के उसके रक्तपातपूर्ण और कलंकित इतिहास को भुल चुकी है!
प्रतिद्वन्द्विता में भिड़ी वैश्विक शक्तियों का आंतरिक चरित्र चाहे जैसा हो, बहुध्रुवीय विश्व निश्चय ही प्रगतिशील शक्तियों के लिए ज्यादा लाभदायक है. नवउदारवादी नीतियों को पलटने के लिए तथा सामाजिक रूपांतरण और राजनीतिक अग्रगति के लिए उनके द्वारा चलाए जा रहे विश्वव्यापी आंदोलनों की खातिर भी यह ज्यादा अनुकूल है. 20वीं सदी की शुरूआत में साम्राज्यवादियों के बीच की प्रतिद्वन्द्विता ने न केवल प्रथम विश्व युद्ध को जन्म दिया, बल्कि उसने नवम्बर क्रांति की राह भी आसान बनाई थी जिसने साम्राज्यवादी शृंखला को उसकी सबसे कमजोर कड़ी पर तोड़ डाला था. अपनी गंभीर आंतरिक विकृतियां और पतन के बावजूद यह सोवियत संघ ही था जिसने फासीवाद पर विजय पाने और उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों व क्रांतिकारी आंदोलनों के लिए विजयी नाद करते हुए द्वितीय विश्वयुद्ध को समाप्त करने में सफलता पाई थी. बाद के दशकों में आंतरिक रूप से गतिरूद्ध हो जाने और अमेरिका के साथ हथियारों की असहनीय होड़ तथा अतिमहाशक्ति बनने की प्रतिद्वन्द्विता में फंस जाने के बावजूद, अमेरिकी प्रभुत्व के खिलाफ लोहा लेने वाली शक्ति के बतौर उसकी उपस्थिति ने तीसरी दुनिया के अनेक देशों व आंदोलनों को साम्राज्यवादी नियंत्रण से अच्छी खासी मात्रा में सापेक्षिक स्वायत्तता के साथ अपने-अपने रास्ते पर आगे बढ़ने में मदद पहुंचाई. बंगला देश की मुक्ति हमारे अपने पड़ोस का एक प्रमुख उदाहरण है. सोवियत संघ और वारसा संधि के ध्वंस के बाद अमेरिका ही एकमात्र महाशक्ति रह गया और एक समय तक दुनिया निश्चय ही एकध्रुवीय लगने लगी थी. दक्षिणपंथी सिद्धांतकारों की बोली में, फुकुयामा ने विजयी अंदाज में लिखी गई अपनी पुस्तक ‘द एंड ऑफ हिस्ट्री ऐंड द लास्ट मैन’ में उस अवस्था को उदारवादी लोकतंत्र का सार्विक शासन, राज्य का अंतिम स्वरूप घोषित कर दिया था. दूसरी ओर सैमुअल हंटिंग्टन ने अमेरिका के लिए एक नए ‘शत्रु’ की जरूरत को रेखांकित किया और इस युग को विचारधाराओं के टकराव की शीतयुद्धकालीन सच्चाई की जगह ‘सभ्यताओं के टकराव’ का युग बताया. जहां हंटिग्ंटन अमेरिका और अमेरिका-नीत पश्चिम युरोप को केंद्र में रखकर टकराव रेखा खींच रहे थे, वहीं रूस के राजनैतिक दार्शनिक और विश्लेषक एलेक्जेंडर डुगिन ऐसे भविष्य की परिकल्पना कर रहे थे जिसमें रूस को केंद्र करके निर्मित युरेशिया पश्चिमी प्रभुत्व का अंतिम प्रत्युत्तर बनेगा.
आज युक्रेन पर रूसी आक्रमण के बाद जहां फुकुयामा इसे ‘इतिहास के अंत का अंत’ बता रहे हैं, वहीं टिमोथी स्नाइडर और ऐनी एप्पलबॉम सरीखे अमेरिकी इतिहासकार दुनिया के उदारवादी लोकतंत्रों को अमेरिकी नेतृत्व के तहत एकताबद्ध होने और सैनिक तरीके समेत किसी भी जरूरी तरीके से निरंकुश अथवा सर्वसत्तावादी शासनों को शिकस्त देने की अपील कर रहे हैं. लेकिन क्या यह ठीक वही चीज नहीं है, जो अमेरिका हमेशा से, खासकर विश्वयुद्ध के बाद, करते रहने का दावा जताता रहा है? और क्या इसका नतीजा सिर्फ अंतहीन युद्धों, देशों पर क्रूर कब्जा और अमेरिका प्रायोजित तख्तापलट और यहां तक कि आक्रमण व कब्जा के लिए सीधे युद्ध के जरिए निर्वाचित सरकारों तक को गिरा देने के रूप में सामने नहीं आया? और, इस सब का सीधा मकसद था अपने कठपुतली शासकों को गद्दी पर बिठाना या फिर तानाशाहों और प्रतिगामी दमनकारी शासनों के लिए रास्ता साफ करना. इंडोनेशिया और चिली से लेकर कुछ समय पूर्व इराक, लीबिया और अफगानिस्तान तक, हमने दुनिया भर में लोकतंत्र के निर्यात अथवा रक्षा के नाम पर अमेरिकी हस्तक्षेप की हिंसा और विनाशलीला देखी है.
इसीलिए, साम्राज्यवाद के इतिहास को लोकतंत्र बनाम निरंकुशता के एकरेखीय वैश्विक विमर्श में सीमित नहीं किया जा सकता है. निश्चय ही, हम चाहते हैं कि युक्रेन अपनी संप्रभुता की रक्षा करने में सफलता पाए, रूस की जनता पुतिन के माफिया शासन व उसके क्रूर दमन पर काबू पाए, और अल्पसंख्यकों समेत चीन की व्यापक मेहनतकश जनता को अपने देश में पूर्ण जनवाद व अधिकार मिलें. लेकिन हमें यह भी समझना होगा कि रूस और चीन पर नियंत्रण करने की अमेरिकी रणनीति का असल मकसद अमेरिकी साम्राज्यवाद के वैश्विक प्रभुत्व को स्थापित करते हुए दुनिया को बहुध्रुवीय बनने से रोकना है. युक्रेन युद्ध ही आज दुनिया में चलने वाला एकमात्र युद्ध नहीं है, भले ही वैश्विक मीडिया में इसने अन्य तमाम टकरावों व युद्धों को ढक दिया है. किसी एक युद्ध के समाधान से किसी दूसरे टकराव में शांति और न्याय की प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि सभी युद्धों के अपने-अपने कारण और संदर्भ होते हैं. शांति, न्याय और जनवाद की शक्तियों को आक्रमण व कब्जा के हर अन्यायपूर्ण तथा लोकतंत्र के हर दमन व निषेध के खिलाफ आवाज उठानी होगी.
यह हम सब को, कम्युनिस्टों अथवा आम तौर पर भारत में तमाम धाराओं के जनवादियों को, भारत में फासीवाद के खिलाफ लड़ने के प्राथमिक व अनिवार्य सवाल की ओर वापस ले आता है. चूंकि साम्यवाद अंतराष्ट्रीय विचारधारा और आंदोलन है और हम कम्युनिस्ट सर्वहारा अंतरराष्ट्रवाद की पताका बुलंद रखते हुए अपने अंतरराष्ट्रीय दायित्व के साथ अपनी राष्ट्रीय भूमिका को संयोजित करते हैं. इस सिद्धांत को व्यवहार में लागू करना निश्चय ही आसान नहीं है. भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के सौ सालों के इतिहास में कई बार चूक होते हुए भी हमने देखा है.
इस चुनौती को समझने के लिए अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के स्थापना-कालीन बुनियादी सिद्धांतों को समझना जरूरी है. बेशक ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ का समापन दुनिया के मजदूरों को एकताबद्ध होने तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पूंजी से लड़ने व उसे शिकस्त देने के स्पष्ट आह्वान के साथ होता है. ‘घोषणापत्र’ में पूंजी की इस अंतर्निहित प्रवृत्ति को रेखांकित किया गया है कि वह राष्ट्रीय सीमाओं को लांघकर दुनिया के हर कोने में दौड़ती है और हर चीज को, जीवन के हर पहलू को माल में बदल देती है. इसीलिए मजदूर वर्ग को भी वैश्विक धरातल पर सोचना और कार्रवाई करना चाहिए. इसी के साथ, ‘घोषणापत्र’ में यह भी स्पष्ट कहा गया है कि हर राष्ट्र-राज्य में सर्वहारा वर्ग को चाहिए कि वह पूंजी को सत्ता से बेदखल करे, राष्ट्र के हितों व पहचान को परिभाषित करने की उसकी ताकत उससे छीन ले और स्वयं को राष्ट्र के रूप में घोषित करे. दूसरी महत्वपूर्ण बात है अपने राष्ट्र के अंदर अपने खुद के शासक वर्ग के खिलाफ सर्वहारा स्वतंत्रता की दावेदारी. राष्ट्रीय सीमाओं के अंदर समाजवाद के निर्माण की संभावना दरअसल ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ की इसी बुनियादी प्रस्थापना का अनुसरण करते हुए नवंबर क्रांति की विजय के जरिए साकार हो सकी. मजदूर वर्ग के अंतरराष्ट्रीय संगठन समाजवादी/कम्युनिस्ट आंदोलन के राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय आयामों व कार्यभारों को संयोजित करने की इस चुनौती का सामना करते हुए पहले ‘इंटरनेशनल’ ने अंतरराष्ट्रीय मजदूर वर्ग की एकजुटता के संदेश और भावना का प्रसार किया तथा अराजकतावादियों व समाजवादियों के बीच पहली बड़ी विचारधारात्मक विभाजन रेखा खींची. दूसरा इंटरनेशनल, जिसे सोशलिस्ट इंटरनेशल कहा जाता था, प्रतियोगी राष्ट्रवादों तथा प्रथम अंतर-साम्राज्यवादी युद्ध के दबाव में आकर ध्वस्त हो गया. ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ के नाम से पुकारे जाने वाले तीसरे इंटरनेशनल ने विजयी समाजवादी क्रांति की भावना का चहुं ओर प्रसार किया, उभरते कम्युनिस्ट आंदोलन को उपनिवेशों व अर्धउपनिवेशों में चल रहे मुक्ति संघर्षों से लेकर उदारवादी लोकतंत्रों में संसदीय संघर्षों और फासीवाद के रूप में चरम प्रतिक्रिया के साथ टकराव जैसे विविध संदर्भों में विकसित होने और ठोस स्वरूप हासिल करने में मदद पहुंचाई.
बहरहाल, चीन और भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के परस्पर विरोधी अनुभवों ने राष्ट्रीय परिस्थिति की कीमत पर अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति को प्राथमिकता देने की सीमाबद्धताओं और समस्याओं को उजागर कर दिया. जहां चीनी आंदोलन केंद्रीय दिशा निर्देश के बरखिलाफ अपना रास्ता खुद निर्धारित करने में सफल रहा, वहीं भारत का कम्युनिस्ट आंदोलन अंतरराष्ट्रीय संदर्भ की दिशा के साथ राष्ट्रीय आंदोलन की मांगों और यथार्थों के बीच तालमेल बनाने में कई मौकों पर लड़खड़ाया. जब सोवियत संघ पर नाजी जर्मनी के हमले के बाद अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में द्वितीय विश्व युद्ध की पहचान जब एक साम्राज्यवादी युद्ध के बजाय जनता के युद्ध के रूप में होने लगी तब भारत में यह समस्या सबसे स्पष्ट तौर पर दिखी. इस मोड. पर भारत के अपने उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष की अग्रगति को प्राथमिकता न दे पाना भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की कार्यनीतिक भूल थी, जिस वजह से इस आंदोलन को तात्कालिक धक्का लगा. हमारे खुद के भाकपा(माले) आंदोलन में मुख्यतः कृषि प्रधान व पिछड़े समाज में सफल चीनी क्रांति से सही तौर पर प्रेरणा लेने के बाद भी हमने नारे गढ़ने में भूल कर दी, जिसने हमारी पार्टी व आंदोलन के स्वतंत्र पहचान को नुकसान पहुंचाया और हमारी चीन परस्त छवि बना दी.
आज भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के समक्ष फासीवादी हमले को शिकस्त देने के लिए अपना सर्वोत्तम प्रयास करने की जिम्मेवारी आ गई है. अंतरराष्ट्रीय संदर्भ भी गहरी व दीर्घकालिक आर्थिक मंदी, सर्वसत्तावादी शासनों के उदय और जलवायु परिवर्तन की तबाही के सम्मुख तमाम प्रगतिशील शक्तियों से एकताबद्ध शक्तिशाली प्रत्युत्तर की मांग कर रहा है. दुनिया भर की प्रगतिशील ताकतों को सभी साम्राज्यवादी हमलों व युद्धों के खिलाफ एकजुट होना पड़ेगा, अपने खुद के संदर्भों में सर्वसत्तावादी ताकतों का प्रतिरोध करना होगा और इक्कीसवीं सदी में समाजवाद की लड़ाई को धारदार व मजबूत बनाना होगा.
(On the Current Juncture in India and the International Context, दीपंकर भट्टाचार्य, लिबरेशन, अक्टूबर 2022 का अनुवाद)