गत शुक्रवार को सुनवाई के दौरान जब मुंबई हाई कोर्ट ने लंबे समय से मुंबई की जेल में बंद एक्टिविस्ट व शिक्षाविद प्रोफेसर जीएन साई बाबा को अन्य पांच एक्टिविस्टों समेत बाइज्जत रिहा करने का आदेश दिया था तो सबको लगा कि सचमुच में ‘न्याय की जीत’ हुई है. सोशल मीडिया में रिहाई के स्वागत भरे पोस्टों की बाढ़ आ गई. लेकिन महाराष्ट्र सरकार की याचिका पर आनन-फानन विशेष सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट द्वारा मुंबई हाई कोर्ट के रिहाई के फैसले पर रोक लगाने के आदेश ने सभी को चौंका दिया. इस अप्रत्याशित परिघटना से देश की न्यायपालिका पर भरोसा रखने वालों को मानो बड़ा झटका लगा.
मिल रही ख़़बरों के अनुसार देश से लेकर विदेश तक इस पर प्रतिक्रिया दी जा रही है. 17 अक्टूबर को बिहार की राजधानी पटना में देश के न्याय तंत्रा पर सवाल उठाते हुए ‘नागरिक प्रतिवाद’ निकाला गया. ऑल इंडिया पीपुल्स फोरम (एआईपीएफ़), जन संस्कृति मंच, आइसा व इनौस समेत नागरिक अधिकार संगठन के प्रतिनिधियों ने पोस्टर-बैनर के साथ प्रतिवाद प्रदर्शित किया.
यह प्रो. साई बाबा व अन्य पांच एक्टिविस्टों की रिहाई रद्द किये जाने के विरोध तथा तमाम राजनीतिक बंदियों की बिना शर्त रिहाई व यूएपीए जैसे अमानवीय कानूनों को रद्द किये जाने की मांग को लेकर मार्च निकाला गया.
पटना स्थित बुद्ध स्मृति पार्क परिसर के नजदीक आयोजित इस कार्यक्रम में बुद्धिजीवियों, कलाकारों व नागरिक अधिकार आंदोलन कार्यकर्ताओं के अलावा कई छात्र, युवा व महिला संगठनों के प्रतिनिधियों ने शामिल होकर उक्त मामले को देश में अघोषित आपातकाल थोपे जाने का मामला बताते हुए इस पर नाराजगी व्यक्त की.
प्रो. संतोष कुमार ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि प्रो. साई बाबा जैसे शिक्षाविद जो दिव्यांग होने के साथ-साथ कई जानलेवा बीमारियों से पीड़ित हैं, की रिहाई रद्द करके सुप्रीम कोर्ट ने ‘न्याय पाने की रही-सही उम्मीद’ को धूल धूसरित कर दिया है. साथ ही यह भी साबित कर दिया है कि अब वह देश की जनता के लिए कोई निष्पक्ष ‘पंच परमेश्वर’ नहीं बल्कि सरकार के इशारों पर अमल करने वाली बन चुकी है. ऐसे में अब इंसाफ पसंद लोगों को अपने न्याय पाने के अधिकार के लिए ‘जमीनी प्रतिवाद’ में खड़ा होना वक्त की जरूरत बन गयी है.
पटना विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के शिक्षाविद प्रो. सतीश कुमार जो दिव्यांग होने के कारण व्हीलचेयर से इस प्रतिवाद में शामिल होने आए थे, ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए सवाल उठाया कि क्या देश का न्याय तंत्र इस अवस्था में जा पहुंचा है कि जनविरोधी सरकारों की मर्जी से ही उसे काम करना है? क्या वह एक अति दिव्यांग शिक्षाविद को पढ़ाने और बोलने मात्र से डरनेवली सरकार के कहे पर उन्हें जेल में बंद रखना चाहती है.
1974 के आपातकाल विरोधी छात्र आंदोलन के अगुआ रहे वरिष्ठ आंदोलनकारी व भाकपा(माले) नेता कृष्णदेव यादव ने कहा वह आपातकाल तो घोषित तौर पर कुछ समय के लिए थोपा गया था. लेकिन आज उसके विरोध का नाटक करने वाला राजनीतिक दल पूरे देश में हमेशा के लिए अघोषित आपातकाल थोप रहा है. देश की लोकतंत्र पसंद जनता इसे कत्तई बर्दास्त नहीं करेगी और उसे उखाड़ फेंकेगी.
भाकपा(माले) विधायक गोपाल रविदास ने आरोप लगाया कि केंद्र की मौजूदा सरकार को लोकतंत्र पसंद शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों और एक्टिविस्टों से ही डर लगता है. लेकिन प्रो. साई बाबा जैसी लोकतांत्रिक आवाजों को जेलों में बंद रखकर लोकतंत्र को खत्म नहीं किया जा सकता. जनता के सभी वर्गों में इसके खिलाफ ग़ुस्सा बढता जा रहा है जो यकीनन आने वाले देश के आम चुनाव में अपना हिसाब लेगा. इसकी एक शुरुआत बिहार में नए राजनीतिक महागठबंधन के जरिए हो चुकी है.
इस प्रतिवाद कार्यक्रम को ऐपवा और आइसा बिहार राज्य सचिव शशि यादव, विकास कुमार समेत कई वामपंथी एक्टिविस्टों ने भी संबोधित किया. कार्यक्रम का संचालन एआईपीएपफ़ के कमलेश शर्मा ने किया.
वक्ताओं ने यह भी कहा कि वर्तमान सरकार ‘न पेशी न सुनवाई’ बल्कि जेलों में बंद करके मार डालने का फासीवादी फार्मूला अपना रही है. फादर स्टैन स्वामी की ‘संस्थागत हत्या’ इसी का प्रमाण है.