भारत सरकार द्वारा पीएफआई और उसके सहयोगी संगठनों पर प्रतिबंध लगाने की कार्रवाई निंदनीय है. सरकार की यह कार्रवाई राज्य सत्ता के दुरुपयोग के खिलाफ उठने वाली आवाजों पर शिकंजा कसने के मकसद से राज्य की एजेंसियों और सरकारी तंत्र का शस्त्रीकरण है.
यह प्रतिबंध जनता के बीच इस्लामोफोबिया फैलाने और मुसलमानों को एक समुदाय के रूप में बदनाम करने का सचेत प्रयास भी है. यह मुसलमानों को सामूहिक रूप से उत्पीड़ित करने के उद्देश्य से पहले से सोची-समझी राजनीतिक कार्रवाई है.
एक ओर आज देश में आरएसएस और उसके सहयोगी संगठनों को मुसलमानों के खिलाफ नरसंहार का आह्वान करने और संविधान के मूल्यों के खिलाफ काम करने की खुली छूट हासिल है, वहीं दूसरी ओर पीएफआई और उसके सहयोगी संगठनों पर प्रतिबंध लगाया जा रहा है. यह भेदभावपूर्ण कार्रवाई है.
हाल ही में आरएसएस के एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता यशवंत शिंदे ने इस साल अगस्त में 2006 के नांदेड़ बम विस्फोट मामले में एक हलफनामा दायर किया है, जिसमें आरएसएस और वीएचपी की कई ऐसी बैठकों की चर्चा है जहां पूरे देश में बम विस्फोटों की श्रृंखला व बम बनाने की ट्रेनिंग की योजना बनाई जाती थी. इसकी जांच करने के बजाय, केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने अदालत से यशवंत शिंदे द्वारा उक्त मामले में गवाह के रूप में पेश होने के लिए दायर आवेदन को खारिज करने की ही मांग कर डाली.
आज भाजपा सरकार हर प्रकार के विरोध को दबाने के लिए कठोर गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 का इस्तेमाल कर रही है. यूएपीए लंबे समय तक हिरासत में रखने और जमानत पाने में कई प्रकार की कठिनाईयों का जरिया बना हुआ है. भाजपा सरकार द्वारा लाए गए कानून उसकी कठोर प्रवृति को इंगित करते हैं.
आरएसएस और उसके सहयोगी संगठनों के घृणा अभियानों के कारण पहले ही मुस्लिम समुदाय को हाशिये पर धकेल दिया गया है. पीएफआई पर प्रतिबंध की यह ताजा कार्रवाई मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाने की दिशा में उठाया गया एक और कदम है.