दिल्ली का यह शरत काल भारी धुंआ व प्रदूषण के चलते सबसे बुरा बीता है. दिल्ली के लोग पिछले तीन वर्षों से इसके चलते ठीक ढंग से सांस नहीं ले पा रहे हैं. इस वर्ष भी यह समस्या जारी है और प्रदूषण अपनी तमाम सीमाएं पार कर गया है. वायु प्रदूषण और मौसमी अतिशयता एक किस्म का वर्ग युद्ध ही है. गरीब और वंचित लोग ही इसके सर्वाधिक शिकार होते हैं, जबकि जलवायु प्रदूषण के लिये वे जिम्मेवार नहीं हैं. धनी और सुविधा संपन्न लोग तो मास्क और अन्य वायु शोधकों का इस्तेमाल कर सुरक्षित रह जाते हैं, लेकिन गरीब लोग मौत के मुंह में चले जाते हैं.
बहरहाल, त्रसदी यहीं तक सीमित नहीं है. काॅरपोरेट मीडिया अपने निहित स्वार्थ में यह कोशिश करता है कि जलवायु का यह क्षरण कहीं राजनीतिक आंदोलन में न तब्दील हो जाए, इसीलिये वह समय-समय पर जनता के सामने काल्पनिक दुश्मनों को पैदा करता है और असली गुनहगारों को छुट्टा छोड़ देता है. दिल्ली में वाहनों के द्वारा लगभग 40 प्रतिशत गैस उत्सर्जन होता है, जबकि उद्योगों और निर्माण कार्यों के जरिये क्रमशः 18 प्रतिशत और 20 प्रतिशत उत्सर्जन होता है. ये सारे उत्सर्जन सालों भर चलते रहते हैं, पिफर भी इस पर कोई बहस नहीं होती है और सर्वोच्च न्यायालय अब तक इसे नियंत्रित करने की जवाबदेही सरकार पर डालने के लिये कोई हस्तक्षेप नहीं किया था. अब जाकर सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली में निर्माण कार्य पर रोक लगाने तथा किसानों के पराली जलाने पर कड़ा प्रतिबंध लगाने का निर्देश राज्य सरकारों को दिया है.
क्या प्रदूषण का आरोप केवल किसानों के द्वारा पराली जलाने को दिया जा सकता है और उनको ही प्रदूषण के लिये सारा जिम्मेवार ठहराया जा सकता है, जिसके चलते सिर्फ 10 प्रतिशत उत्सर्जन होता है – वह भी सालों भर नहीं, सिर्फ मौसमी? यह भी गौरतलब है कि पराली जलाने की यह मौजूदा कठिन समस्या सीधे तौर पर हरित क्रांति तथा पश्चिमी उ.प्र. समेत पंजाब और हरियाणा में फैले किसानी संकट से जुड़ी हुई है. हरित क्रांति और मशीनीकरण की ओर धकेले जाने की वजह से किसानों ने मशीनों का इस्तेमाल शुरू किया और खेतों में लगने वाला कार्य-बल कम हो गया. इसके चलते मौजूदा श्रम बल काम की तलाश में उद्योगों व अन्य क्षेत्रों में पलायन करने लगा. गेहूं व अन्य फसलों को काटने वाले हारवेस्टर मशीन कम समय में कटनी करते हैं, लेकिन वे फसलों को जड़ से नहीं उखाड़ते और जमीन से लगभग एक फुट की ऊंचाई तक पराली छोड़ देते हैं. नई फसल बोने के लिये किसानों को रबी फसल की बुआई के पहले पराली को हटाना पड़ता है – और इसके लिये उनके पास काफी कम समय होता है, क्योंकि नई फसल की बुआई में देरी नहीं की जा सकती है. पराली हटाने में मजदूरी या मशीनों का खर्च इतना ज्यादा है कि किसान उसे बर्दाश्त नहीं कर सकते. इसीलिये, उन्हें विकल्पहीनता की स्थिति में पराली जलाना ही पड़ता है. कार्यबल की कमी के चलते श्रम की कीमत बढ़ती जा रही है, पफलतः पिछले पंद्रह वर्षों में किसानों की आमदनी भी गिरती जा रही है.
किसानों की इस समस्या के प्रति संवेदनशील होने और वास्तविक कारणों को समझने के बजाय सरकारों ने पराली जलाने पर प्रतिबंध लगा दिया और सरकारों ने इस प्रतिबंध का उल्लंघन करने पर किसानों को भारी जुर्माना ठोक दिया. सर्वोच्च न्यायालय और नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल द्वारा आदेश जारी किये जाने के बाद विगत दो वर्षों में पंजाब व हरियाणा की सरकारों ने कम-से-कम 1000 किसानों पर जुर्माना लगाया है. अब सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश आदि सरकारों को डांट पिलाई है और उनको जिम्मेवार ठहराते हुए किसानों को जुर्माने की जगह 100 रुपये प्रति क्विंटल मदद देने का आदेश दिया है और साथ ही पराली हटाने वाली मशीनों का इस्तेमाल करने के लिये आर्थिक मदद देने का निर्देश दिया है. स्मरण रहे, शीला दीक्षित के शासनकाल में कोर्ट के आदेशों के चलते दिल्ली में बसों व अन्य वाहनों को सीएनजी (गैस) के इस्तेमाल की ओर आगे बढ़ना पड़ा था. प्रदूषण रोकने के लिये सरकारों को किसानों को अपराधी ठहराना बंद करके पराली हटाने में भरपूर सहयोग करना होगा.
यह कहा जाता है कि हर वर्ष इस समय दिल्ली में प्रदूषण गंभीर स्तर तक बढ़ जाता है, लेकिन इसे नियंत्रित करने के लिये सरकार की ओर से कोई गंभीरता नहीं बरती जाती है. हम सिर्फ केंद्र और राज्य सरकारों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का खेल देखते रहते हैं. प्रदूषण एक राजनीतिक मुद्दा है और उसी स्तर पर इसका समाधान निकालना होगा. तमाम पार्टियों को इसके लिए अपनी इच्छा-शक्ति प्रदर्शित करनी होगी. दिल्ली के आगामी विधान सभा चुनावों में प्रदूषण को एजेंडा में शामिल करना पड़ेगा.
दिल्ली वायु गुणवत्ता सूचकांक इस वर्ष 400 से ऊपर पहुंच गया है. दिल्ली एक गैस चैंबर में बदलता जा रहा है जो हम सब को धीमी मौत की ओर धकेल रहा है. यहां के छोटे बच्चे सांस की बीमारियों और कैंसर से पीड़ित हो रहे हैं. शुद्ध हवा ही इसका उपाय है जो व्यवस्था के अंदर नहीं, बल्कि व्यवस्था परिवर्तन के जरिये ही हमें हासिल हो सकता है.
दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू), जेएनयू, अंबेडकर विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों ने सेंट्रल पार्क (कनाट प्लेस) में एक मानव श्रृंखला बनाकर दिल्ली में वायु प्रदूषण के बढ़ते स्तर को रोकने में सरकार की नाकामयाबी के खिलाफ प्रतिवाद दर्ज कराया. इस स्वास्थ्य संकट को दूर करने के लिये पर्याप्त कदम न उठाने पर छात्रों ने मोदी सरकार के साथ-साथ दिल्ली सरकार पर भी हमला किया. आॅल इण्डिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा) ने इस समस्या के निराकरण के लिये फौरन एक सर्वांगसंपूर्ण कदम उठाने की मांग की है:
– एन. साई बालाजी