18 फरवरी को, सुप्रीम कोर्ट की एक याचिका पर सुनवाई से ठीक एक दिन पहले, जिसमें मोदी सरकार द्वारा पारित 2023 के कानून को चुनौती दी गई थी (जो मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से संबंधित है), मोदी सरकार ने उसी कानून का इस्तेमाल करते हुए सेवानिवृत्त हो रहे मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार के उत्तराधिकारी को चुना और चुनाव आयोग के तीसरे सदस्य की नियुक्ति की. 2023 का यह कानून प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पैनल को मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करने का अधिकार देता है. इस पैनल के अन्य दो सदस्य केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी हैं. इस तरह, यह समिति असल में मोदी-शाह की साझेदारी बन जाती है, जिसमें राहुल गांधी के पास केवल असहमति दर्ज करने का विकल्प बचता है.
राहुल गांधी ने इस प्रक्रिया पर अपनी वाजिब असहमति जताते हुए सरकार से अनुरोध किया कि जब तक सुप्रीम कोर्ट इस कानून की वैधता पर फैसला नहीं कर लेता, तब तक नए मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को टाल दिया जाए. विडंबना यह है कि जबकि सरकार ने नियुक्तियां कर दीं, सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई को एक महीने के लिए टालकर 19 मार्च तक के लिए स्थगित कर दिया. दिलचस्प बात यह है कि दो साल पहले, 2 मार्च 2023 को, सुप्रीम कोर्ट की 5-न्यायाधीशों की संविधान पीठ, जिसकी अध्यक्षता जस्टिस के. एम. जोसेफ ने की थी, ने यह स्पष्ट किया था कि चुनाव आयोग को कार्यपालिका के नियंत्रण से मुक्त रखा जाना चाहिए. उन्होंने मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य आयुक्तों की नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और मुख्य न्यायाधीश की एक समिति बनाने का सुझाव दिया था. लेकिन मोदी सरकार ने 2023 में बिना किसी संसदीय बहस या समीक्षा के एक कानून पारित कर दिया, जिसने संविधान पीठ के निर्णय की भावना को पूरी तरह दरकिनार कर दिया.
संविधान ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं किया था, लेकिन संविधान सभा की चर्चाओं से यह पूरी तरह साफ है कि चुनाव आयोग को सरकारी नियंत्रण से पूरी तरह मुक्त होना चाहिए. मोदी सरकार ने पहले संविधान की इसी चुप्पी का फायदा उठाकर चुनाव आयोग में अपनी पसंद के लोगों को नियुक्त किया. जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को फटकार लगाई और कार्यपालिका की दखलंदाजी पर अंकुश लगाने के लिए तीन सदस्यीय समिति गठित करने का निर्देश दिया, तो सरकार ने 2023 में एक नया कानून बनाकर संविधान पीठ के फैसले को पूरी तरह निष्प्रभावी बना दिया और चुनाव आयोग की नियुक्तियों पर कार्यपालिका के नियंत्रण को कानूनी बना दिया. 18 फरवरी की नियुक्तियों के साथ, अब हमारे पास 2029 के चुनावों तक के लिए मुख्य चुनाव आयुक्तों का क्रम तैयार है. ज्ञानेश कुमार के जनवरी 2029 में सेवानिवृत्त होने के बाद, विवेक जोशी अगले लोकसभा चुनावों की देखरेख करने के लिए पदभार संभालेंगे. ज्ञानेश कुमार और विवेक जोशी दोनों ने केंद्रीय गृह मंत्रालय में अमित शाह के अधीन काम किया है.
मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में राजीव कुमार के कार्यकाल ने पूरे देश के लिए यह समझने का इशारा कर दिया है कि जब चुनाव आयोग पक्षपातपूर्ण हो जाए तो उसके खतरनाक परिणाम क्या हो सकते हैं. आज चुनाव आयोग न केवल भाजपा के शीर्ष नेताओं द्वारा आदर्श आचार संहिता के खुलेआम उल्लंघन और चुनावों के दौरान भाजपा के स्टार प्रचारकों द्वारा फैलाए जा रहे नफरत भरे अभियानों को नजरअंदाज कर रहा है, बल्कि हाल ही में कई राज्यों में मतदाता सूची तैयार करने से लेकर मतगणना तक की पूरी चुनाव प्रक्रिया में भारी गड़बड़ियों की खबरें सामने आई हैं. राजीव कुमार के नेतृत्व में चुनाव आयोग ने इन गंभीर अनियमितताओं और चुनावी प्रक्रिया में हुई गड़बड़ियों पर कभी कोई ठोस प्रतिक्रिया नहीं दी. उल्टा, प्रेस कॉन्फ्रेंसों में हल्की-फुल्की, घटिया स्तर की शायरी सुनाकर शिकायतों को नजरअंदाज कर दिया गया. भारत में लोकतंत्र पहले से ही नीति-निर्धारण और शासन में जनता की भागीदारी, पारदर्शिता और जवाबदेही के मामले में कमजोर रहा है. अब यदि चुनाव प्रक्रिया पर से भी जनता का भरोसा उठ गया, तो लोकतंत्र केवल नाम भर का रह जाएगा और असल में यह तानाशाही का आवरण बनकर रह जाएगा.
सुप्रीम कोर्ट को संविधान की उस मूल भावना की पवित्रता को बनाए रखना चाहिए, जिसमें चुनाव आयोग की निष्पक्षता और ईमानदारी सुनिश्चित करने पर जोर दिया गया है. साथ ही, मार्च 2023 में संविधान पीठ द्वारा दिए गए उस फैसले की भावना की रक्षा करनी चाहिए, जिसमें सरकार द्वारा चुनाव आयोग पर अनुचित प्रभाव और नियंत्रण से बचाने की बात कही गई थी. संसद को यह अधिकार है कि वह मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से संबंधित कानून बनाए, लेकिन यह कानून लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों को बरकरार रखने वाला होना चाहिए. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने देरी से ही सही, लेकिन चुनावी बांड योजना को असंवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया. अब सुप्रीम कोर्ट को अपनी न्यायिक समीक्षा की शक्ति का उपयोग करने से पीछे नहीं हटना चाहिए और 2023 के उस फरेबी कानून को भी रद्द करना चाहिए, जो सरकार को अपनी पसंद के अनुसार चुनाव आयोग गठित करने का अधिकार देता है. आखिरकार, सुप्रीम कोर्ट संविधान का संरक्षक है और उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कार्यपालिका संविधान और लोकतंत्र की मूल भावना का मजाक न बना सके.