फरवरी के पिछले कुछ हफ्तों में, 300 से अधिक भारतीय नागरिकों को अमेरिकी सैन्य विमानों से बेड़ियों में जकड़कर भारत भेजा जा चुका है. बताया जा रहा है कि 18,000 भारतीयों की सूची पहले ही मोदी सरकार को सौंपी जा चुकी है, जिन्हें आने वाले दिनों में निर्वासित किया जा सकता है. निजी आकलनों के मुताबिक, अमेरिका में सात लाख से अधिक भारतीयों पर निर्वासन का खतरा मंडरा रहा है. भारत के विदेश मंत्री ने संसद में अमेरिकी कार्रवाई का बचाव किया है. प्रधानमंत्री मोदी ने डोनाल्ड ट्रंप के साथ संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी यही रुख दोहराया. इस शर्मनाक आत्मसमर्पण के उलट, कोलंबिया और मैक्सिको जैसे देशों ने अमेरिकी सैन्य विमानों को अनुमति देने से इनकार कर दिया और अपने नागरिकों को पूरे सम्मान के साथ अपने विमानों से वापस लाया.
अब हम भुवनेश्वर से आई हालिया रिपोर्टों पर नजर डालें, जो भारत में नेपाली छात्रों की स्थिति को दर्शाती हैं. भुवनेश्वर स्थित कलिंगा इंस्टिट्यूट ऑफ इंडस्ट्रियल टेक्नोलॉजी (KIIT) की एक नेपाली छात्रा 16 फरवरी को अपने हॉस्टल के कमरे में मृत पाई गई. यह मामला आत्महत्या का बताया जा रहा है, जिसकी वजह यूपी के एक ताकतवर भाजपा परिवार से जुड़े छात्र का उसके साथ दुर्व्यवहारपूर्ण रिश्ता था. जब छात्रों ने कैंपस में निष्पक्ष जांच और पीड़िता को न्याय दिलाने की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन शुरू किया, तो केआइआइटी प्रशासन ने नेपाली छात्रों के लिए संस्थान को अनिश्चितकाल के लिए बंद करने का ऐलान कर दिया. उनसे तुरंत कैंपस खाली करने को कहा गया और कई छात्रों को कटक रेलवे स्टेशन तक छोड़ा गया. वायरल वीडियो में केआइआइटी अधिकारी नेपाली छात्रों को ‘अकृतज्ञ’ कहकर अपमानित करते नजर आए, नेपाल की कम जीडीपी को लेकर ताने मारते रहे और उन्हें नेपाल लौट जाने को कहा.
क्या हमें मोदी सरकार की ट्रंप प्रशासन द्वारा भारतीय नागरिकों के साथ किए गए दुर्व्यवहार को चुपचाप स्वीकार करने और केआइआइटी प्रशासन द्वारा नेपाली छात्रों के प्रति नस्लवादी अहंकार के बीच कोई समानता और संबंध नजर आता है? अमेरिकी दबदबे के आगे झुकना और पड़ोसी छोटे देशों को धमकाना दरअसल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.
आरएसएस बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय पर हमले की खबरों पर दुनियाभर में ‘हिंदू खतरे में’ का शोर मचाता है. मोदी सरकार भारत को एक हिंदू-बहुल देश बताती है जो कथित शत्रुतापूर्ण ‘इस्लामिक पड़ोसियों’ से घिरा है, और यहां तक कि नागरिकता कानून में भेदभावपूर्ण बदलाव कर मुस्लिमों को बाहर रखने का प्रयास कर चुकी है. लेकिन अब एक हिंदू-बहुल देश नेपाल के छात्रा भी भाजपा-शासित राज्य में उत्पीड़न का शिकार हो रहे हैं.
खुद को दुनिया का सबसे बड़ा दबंग मानने वालों को खुश करना और पड़ोस में बड़े भाई की धौंस जमाना – दोनों चीजें साथ-साथ चल रही हैं.
भारत की लंबे समय तक चली आजादी की लड़ाई ने एक ऐसे राष्ट्रवादी चेतना को जन्म दिया था, जो दुनिया के किसी भी कोने में हो रहे उत्पीड़न से नफरत करती थी और वैश्विक क्रांतियों व राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों के साथ खड़ी रहती थी.
भगत सिंह ने दो नारे ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ को मिलाकर दुनिया के शोषितों के लिए आजादी का एक साझा आह्वान किया था.
महात्मा गांधी ने, भारत लौटने से पहले, दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए नस्लवाद को व्यक्तिगत रूप से झेला था, इसलिए वे सहजता से आजाद फिलिस्तीन के संघर्ष से खुद को जोड़ सके.
नेहरू खुद को उभरती हुई तीसरी दुनिया का प्रतिनिधि मानते थे और उन्होंने एक ऐसी विदेश नीति बनाई, जो साम्राज्यवाद-विरोधी एकजुटता और नए-नए आजाद हुए देशों के आपसी सहयोग पर आधारित थी.
हमारी आजादी आंदोलन से उपजा साम्राज्यवाद-विरोधी राष्ट्रवाद ने भारत की पहचान को दो तरह से गढ़ा – अंदरूनी तौर पर एक ऐसे समावेशी, बहुधार्मिक और बहुभाषी देश के बतौर जो सभी धर्मों-भाषाओं को साथ लेकर चलता है, और बाहरी तौर पर राष्ट्रीय मुक्ति और तीसरी दुनिया की एकता के समर्थक के रूप में – आज संघ ब्रिगेड के हिंदुत्व या ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ के मॉडल के हमले का शिकार हो रहा है और खतरे में है.
यह आक्रामक राष्ट्रवाद भारत की परम्परागत ‘विविधता में एकता’ या असल में विविधता के जरिए एकता की भावना को जबरन हिंदू वर्चस्ववादी एकरूपता में कैद करना चाहता है.
इसीलिए, यह गाजा में इजराइल के जायोनी जनसंहार अभियान और दुनिया भर में अति-दक्षिणपंथी ताकतों के अप्रवासी-विरोधी, इस्लामोफोबिक और नस्लवादी उन्माद के साथ खड़ा नजर आता है – भले ही बिना कागजात वाले अप्रवासी भारतीय खुद इस जेनोफोबिया (विदेशी-विरोधी भावना) का शिकार हो रहे हैं, जैसा कि अब अमेरिका में देखने को मिल रहा है.
संविधान सभा ने धर्म-आधारित राष्ट्रीय पहचान के विचार को पूरी तरह खारिज कर दिया था. बाबा साहेब अंबेडकर स्पष्ट रूप से मानते थे कि चूंकि हिंदू धर्म – जो भारत में बहुसंख्यक है – घृणित श्रेणीबद्ध जाति-प्रणाली के बतौर सामाजिक असमानता और अन्याय को धार्मिक वैधता देता है, इसलिए अगर कभी ‘हिंदू राज’ स्थापित हुआ, तो यह भारत के लिए सबसे विनाशकारी आपदा साबित होगा.
अंबेडकर ने श्रेणीबद्ध जाति प्रणाली को ही भारत को सच्चे मायनों में एकजुट राष्ट्र बनने से रोकने वाली सबसे बड़ी बाधा माना था.
संविधान ने न तो धर्म के आधार पर, न जाति के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव या बहिष्कार को स्वीकार किया, बल्कि सभी के लिए संपूर्ण न्याय, समानता, आजादी और भाईचारा का वादा किया.
मोदी के दौर में, संघ परिवार अपनी खुद की राष्ट्र की परिभाषा और राष्ट्रवाद के मॉडल को थोपकर धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत को एक फ़ासीवादी हिंदू राष्ट्र में बदलने के एजेंडे को आगे बढ़ा रहा है.
गोलवलकर के उस विचारधारा को सच करते हुए जिसमें मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की बात थी, संघ परिवार हर संभव मौके पर मुस्लिम समुदाय के खिलाफ जहर उगलने और हिंसा भड़काने में जुटा है.
जहां एक ओर मुस्लिम मतदाताओं को वोट देने से रोकने के लिए अलग-अलग रणनीतियां अपनाई जा रही हैं, वहीं प्रयागराज कुंभ में जारी होने वाले ‘हिंदू राष्ट्र संविधान’ के मसौदे में मुसलमानों को पूरी तरह मतदान के अधिकार से वंचित करने की सीधी सिफारिश की गई है.
भारत के भीतर हर असहमति की आवाज को ‘राष्ट्रविरोधी साजिश’ बताकर दबाया और प्रताड़ित किया जा रहा है, जबकि विदेशों में रहने वाले भारतीयों को भी अगर वे मोदी सरकार की आलोचना करते हैं, तो उन्हें वीजा देने से इनकार किया जा रहा है या फिर उनके ‘ओवरसीज सिटीजन ऑफ इंडिया’ (ओसीआइ) दर्जे को रद्द किया जा रहा है.
संविधान को अपनाए जाने और भारतीय जनतंत्र की नींव रखे जाने की पचहत्तरवीं सालगिरह पर, ‘हम भारत के लोगों’ को फिर से उस साम्राज्यवाद-विरोधी राष्ट्रवाद को जीवंत करने की चुनौती स्वीकार करनी होगी, जिसने हमें एक आधुनिक लोकतंत्र के रूप में एकजुट किया और ऐसा भविष्य गढ़ने का रास्ता खोला, जहां हर भारतीय सम्मान के साथ जीवन जी सके.
अगर ऐसा नहीं हुआ, तो भारतीय अर्थव्यवस्था साम्राज्यवादी निर्भरता के अनिश्चितताओं के आगे और कमजोर हो जाएगी और हमेशा के लिए भाई-भतीजावादी पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) के विनाशकारी जाल में फंसी रहेगी. इसमें भारत के भ्रष्ट कॉर्पोरेट घराने देश की संपत्ति और आय का बड़ा हिस्सा हड़पते रहेंगे, जबकि नीचे के आधे से ज्यादा भारतीय आबादी को जीवन की बुनियादी जरूरतों से भी वंचित रह किसी तरह गुजारा करने को मजबूर होना पड़ेगा.
सन 1857 के भारत की पहली आजादी आंदोलन का गीत ‘हम हैं इसके मालिक, हिंदुस्तान हमारा’ से लेकर संविधान में ‘हम भारत के लोग’ द्वारा स्थापित समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक जनतंत्र तक – हमारी आजादी की लड़ाई प्रगतिशील राष्ट्रवाद की ताकत से चली थी.
आज फासीवादी ताकतें इस गौरवशाली विरासत को कलंकित करने और इसी से उपजे लोकतांत्रिक संवैधानिक ढांचे को नष्ट करने पर आमादा हैं. इस विनाशकारी आपदा को हर हाल में रोकना होगा.