वर्ष - 34
अंक - 6
16-03-2025

- दीपंकर भट्टाचार्य

(पिछले अंक से जारी)

यह सरकार लोकतंत्र को नष्ट करने और नागरिकों के अधिकारों व स्वतंत्रताओं को खत्म करने के लिए हरसंभव कोशिश कर रही है – कानूनों में संशोधन करने और कानून व न्याय के ढांचे को बदलने से लेकर, संविधान के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ नए कानून बनाने और जनतंत्र की पूरी संस्थागत व्यवस्था व माहौल को कमजोर करने तक. इसके साथ ही, मुसलमानों, समाज के कमजोर तबकों और असहमति की आवाज उठाने वालों के खिलाफ राज्य-प्रायोजित नफरत और हिंसा को खुली छूट दी जा रही है. यह हमारे लोकतांत्रिक जनतंत्र की संवैधानिक बुनियाद पर अभूतपूर्व हमले की भयावह तस्वीर पेश करता है. अब तो नए संविधान की मांग भी अलग-अलग मंचों से उठने लगी है. खुद केंद्रीय गृह मंत्री ने संसद में भारत के संविधान को अपनाने की 75वीं सालगिरह पर हुई चर्चा के दौरान बाबासाहेब आंबेडकर के प्रति अपमानजनक टिप्पणी की.

भारत में चुनाव अभी भी हो रहे हैं, लेकिन जब चुनाव आयोग पूरी तरह से सरकार के नियंत्रण में हो और मतदाता सूची तैयार करने से लेकर मतगणना तक चुनावी प्रक्रिया लगातार अपारदर्शी और मनमानी होती जा रही हो, तो क्या चुनाव सच में भारत के संकटग्रस्त लोकतंत्र के लिए कोई ठोस सुरक्षा कवच साबित हो सकते हैं? हमें याद रखना चाहिए कि हिटलर भी चुनावी रास्ते से सत्ता में आया था फिर उसने धीरे-धीरे पूरे विपक्ष को अवैधानिक बना 99: वोट हासिल कर स्थायी तानाशाही थोप दी. भारत में, अमित शाह लगातार पचास साल तक शासन करने की बात करते रहते हैं. भाजपा की हरेक चुनाव को जीतने और सत्ता से चिपके रहने की खतरनाक और कुटिल कोशिशों को हम कई बार देख चुके हैं. भारत में चुनाव तेजी से एक तमाशा बनते जा रहे हैं, जो सिर्फ वैष्विक छवि बनाने और देश के भीतर वैधता का दावा करने का एक जरिया भर रह गए हैं.

यह सही है कि भाजपा को अब तक की अपनी राजनीतिक यात्रा में कई सहयोगी और समर्थक मिले हैं. अपने परम्परागत सहयोगियों के समर्थन के अलावा, इसे अक्सर नवउदारवादी एजेंडे और नरम हिंदुत्व की निरंतरता के आधार पर भी व्यापक समर्थन मिलता रहा है. असहमति जताने वालों का उत्पीड़न, इस्लाम को शैतानी रूप में पेश करना, मुसलमानों, अन्य अल्पसंख्यकों और हाशिए पर पड़े समूहों के खिलाफ नफरत और हिंसा के जहरीले अभियान, नागरिक स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन, घटते लोकतांत्रिक दायरे जैसी गंभीर सवालों पर भारत के सार्वजनिक विमर्श में आज भी थोड़ी-बहुत संवेदनशीलता और मुखर विरोध दिखता है. कोई आश्चर्य नहीं कि अंबेडकर ने संविधान को अलोकतांत्रिक जमीन पर लोकतंत्र की सतही परत बताया था. इसीलिए कम्युनिस्टों के लिए यह और जरूरी हो जाता है कि वे फासीवाद के  खिलाफ प्रतिरोध खड़ा करने में नेतृत्व करें और बढ़ते फासीवादी हमलों के सामने लोकतंत्र के सबसे दृढ़ और प्रतिबद्ध चैंपियन बनकर सामने आएं.

सीपीआई(एम) के मसौदा प्रस्ताव में कुछ नव-फासीवादी लक्षणों को स्वीकार किया गया है, और नोट में कहा गया है कि अगर इन पर रोक नहीं लगी, तो ये पूर्ण रूप से ‘नव-फासीवाद’ का रूप ले सकते हैं. इस नोट में ‘प्रोटो नव-फासीवाद के अवयवों’ जैसे नये विशेषणों का इस्तेमाल करके और भी स्पष्ट करने की कोशिश की गई है जिसका मतलब शायद यह है कि अभी भी हमारे पास समय है जब तक ये ‘प्रोटो अवयव/तत्व’, जो ‘शास्त्राय फासीवाद’ से अभी तीन कदम पीछे हैं, 21वीं सदी में फासीवाद के पूर्ण उदाहरण में विकसित हो जाएं. लेकिन यदि दिशा पहले से तय है और सवाल केवल इस बात का है कि फासीवादी खतरे की तीव्रता कितनी है, तो क्या कम्युनिस्टों के लिए यह संभव है कि वे जो हो चुका है और जो हर दिन हमारे सामने हो रहा है उसे नजरअंदाज कर दें? क्या वे भारत में अभी भी बचे हुए लोकतंत्र से संतोष कर सकते हैं, सिर्फ  इसलिए कि यह अब भी मुसोलिनी के इटली या हिटलर के जर्मनी से बेहतर स्थिति में है? अगर भारत में फासीवाद धीरे-धीरे बढ़ा है, तो इसका मुख्य कारण भारत की विशालता और अंर्तनिहित विविधता है, और मोदी शासन इस विविधता को अपने ‘एक राष्ट्र’ के एकरूपता के सिद्धांत से कुचलने में कोई समय नहीं गंवा रहा है.

नोट में कहा गया है कि भारत का राज्य फासीवादी राज्य नहीं है. खैर, किसी ने यह नहीं कहा कि भारत में राज्य पूरी तरह से एक फासीवादी संस्थान में बदल चुका है, लेकिन क्या हम इस हकीकत को नजरअंदाज कर सकते हैं कि राज्य तंत्र के भीतर संस्थागत प्रतिरोध बेहद कमजोर हो चुका है और भारत में लोकतंत्र के बचे हुए तत्वों और उसकी संभावनाओं को खत्म करने की एक वास्तविक कोशिश जारी है? इसीलिए अंबेडकर और संविधान, और अब तो आजादी की लड़ाई की विरासत भी जिसने संविधान के नजरिए को आकार दिया जिसकी स्पष्ट अभिव्यक्ति संविधान की प्रेरणादायक प्रस्तावना प्रिएम्बल में हुई है, संघ-भाजपा प्रतिष्ठान के लिए  बड़ी परेशानी का स्रोत बन गए हैं. जमीन पर जो लोग इस फासीवादी हमले के निशाने पर हैं, वे खुद को बचाने के लिए संविधान के इर्द-गिर्द एकजुट हो रहे हैं. विभाजनकारी और भेदभावपूर्ण नागरिकता कानून के खिलाफ शाहीन बाग विरोध-प्रदर्शनों से लेकर दलित-आदिवासी-बहुजनों का सामाजिक सम्मान और कारपोरेट लूट के खिलाफ तेज होते किसान-मजदूरों के संघर्षों तक हम देख सकते हैं कि जनता लोकतंत्र के हथियार के बतौर संविधान को देख रही है.

सत्ता के शीर्ष पर फासीवादी ताकतों के बिना किसी रोक-टोक के ग्यारह साल तक मजबूती से टिके रहने के बाद, क्या भारतीय कम्युनिस्टों को अब भी इस बढ़ती तबाही को उसके ऐतिहासिक नाम से पुकारने के लिए और इंतजार करना चाहिए? बॉब डिलन के प्रसिद्ध गीत को दोहराते हुए हम कह सकते हैं – ‘आखिर और कितना नुकसान सहना होगा, इससे पहले कि हम इन्हें फासीवादी कहें?’ इस मोड़ पर फासीवादी खतरे को कम करके आंकना, या इसे नवउदारवाद और अधिनायकवाद जैसी सामान्य श्रेणियों में समेटने की अस्पष्टता बरतना, केवल कम्युनिस्टों की चुनावी ताकत और नैतिक साख को कमजोर करेगा. इसके उलट, यदि कम्युनिस्ट आजादी आंदोलन की क्रांतिकारी विरासत और अम्बेडकर के क्रांतिकारी योगदान को आगे बढ़ाते हुए सामाजिक समानता और लोकतंत्र की संवैधानिक बुनियाद को मजबूत करने के फासीवाद विरोधी संघर्ष का नेतृत्व करते हुए साहसी पहलकदमियां लेकर मेहनतकश जनता और बुद्धिजीवियों को उनकी बुनियादी चिंताओं पर एकजुट करें, जब मोदी सरकार खुलेआम ट्रंप प्रशासन के सामने आत्मसमर्पण कर रही है तब साम्राज्यवाद-विरोधी राष्ट्रवाद का झंडा बुलंद करें  – तो कम्युनिस्ट आंदोलन पलटवार कर सकता है और फासीवादी ताकतों को पीछे धकेल सकता है.

ऐतिहासिक रूप से सीपीआई(एम) के सबसे मजबूत गढ़ रहे केरल और पश्चिम बंगाल की राजनीतिक और चुनावी जटिलताओं को समझा जा सकता है. बस यही उम्मीद की जा सकती है कि सीपीआई(एम) की फासीवाद के आगमन को पहचानने और नाम देने में दुविधा इन दो राज्यों में पार्टी के सामने मौजूद तात्कालिक चुनावी परिस्थितियों से प्रेरित न हो. केरल में राज्य की सत्ता में होने के बावजूद सीपीआई(एम) की लोकसभा चुनावों में लगातार दो बार विफलता निश्चित रूप से उतनी ही चिंता का विषय है, जितना कि पश्चिम बंगाल में इसकी लगातार गिरावट. इससे भी ज्यादा परेशान करने वाली बात यह है कि सीपीआई(एम) के कुछ मतदाता और शायद कुछ पुराने संगठक और नेता भी भाजपा के खेमे में लगातार पलायन करते दिख रहे हैं.

पार्टी को निश्चित रूप से अपनी स्वतंत्र बढ़त और भूमिका को प्राथमिकता देनी चाहिए, लेकिन क्या इसे व्यापक फासीवाद-विरोधी एकता बनाने के उतने ही महत्वपूर्ण काम के खिलाफ खड़ा किया जाना चाहिए? लोकसभा में पार्टी के पास मौजूद चार सीटों में से तीन तमिलनाडु और राजस्थान से आई हैं, जो इंडिया गठबंधन का हिस्सा हैं. क्या कोई भी कम्युनिस्ट पार्टी आज के सबसे अहम राजनीतिक सवाल को टालने की कोशिश करते हुए अपनी ताकत और भूमिका बढ़ा सकती है? हमें उम्मीद है कि कम्युनिस्ट आंदोलन का कोई भी हिस्सा आधुनिक भारत के इस निर्णायक मोड़ पर डगमगायेगा नहीं, और हम सभी मिलकर फासीवाद के बढ़ते खतरे से भारत को बचाने के लिए फासीवाद-विरोधी प्रतिरोध संघर्ष की कम्युनिस्ट धारा को और मजबूत कर पाएंगे, इससे पहले कि फासीवाद अपना पूरा कहर बरपा सके.

(समाप्त)

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