हम 10 फरवरी 2025 को छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के फैसले से स्तब्ध हैं, जिसमें कोर्ट ने गोरखनाथ शर्मा बनाम छत्तीसगढ़ राज्य के मामले में वैवाहिक बलात्कार के मुद्दे को न तो स्वीकार किया और न ही उसके समाधान के लिए कोई कदम उठाया. इस मामले में आरोपी पति ने भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 377 (अप्राकृतिक अपराध), धारा 376 (बलात्कार की सजा) और धारा 304 (हत्या न होने वाले आपराधिक मानव वध की सजा) के तहत अपनी सजा के खिलाफ अपील दायर की थी.
यह मामला 2017 की एक घटना से जुड़ा है, जिसमें पति ने अपनी पत्नी के साथ उसकी इच्छा के विरुद्ध अप्राकृतिक यौन संबंध बनाए और इस दौरान उसने पीड़िता के गुदा में हाथ डाला. दर्द से तड़पती पीड़िता को अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां से पुलिस को रिपोर्ट दी गई और पति के खिलाफ मामला दर्ज हुआ. पीड़िता ने अपना बयान देने के बाद, उसी दिन इलाज के दौरान अस्पताल में दम तोड़ दिया.
अदालत का कहना है कि धारा 377 के तहत अप्राकृतिक यौन संबंध के मामले में भी, धारा 375 (बलात्कार) के तहत परिभाषित सहमति की जरूरत नहीं है क्योंकि यह पति-पत्नी के बीच का मामला है. अदालत यह भी कहती है कि –
‘भारतीय दंड संहिता की धारा 375 की परिभाषा के अनुसार, अपराधी को ‘पुरुष’ के रूप में साफ तौर पर वर्गीकृत किया गया है. इस मामले में, अपीलकर्ता ‘पति’ है और पीड़िता ‘महिला’ है, जो उसकी ‘पत्नी’ भी है. इसके अलावा, वे शरीर के वे ही अंग हैं जिनसे शारीरिक संबंध बनाया जाता है. इसलिए, पति-पत्नी के बीच यह अपराध धारा 375 के तहत नहीं आता, क्योंकि इस धारा में किए गए संशोधन के कारण और दोनों धाराओं के बीच असंगति को देखते हुए, यह अपराध बनता ही नहीं.’
इसके अलावा, अदालत यह भी कहती है कि पीड़िता के मृत्युपूर्व बयान पर भरोसा नहीं किया जा सकता और तकनीकी कारणों से इसे सबूत के रूप में स्वीकार नहीं किया गया.
शुरुआत में ही, अदालत यह कहती है कि –
‘यह बिलकुल स्पष्ट है कि यदि पत्नी की उम्र 15 वर्ष से कम नहीं है, तो पति द्वारा उसके साथ किया गया कोई भी यौन संबंध या यौन कृत्य बलात्कार नहीं माना जाएगा. ऐसे में, पत्नी की सहमति के न होने का कोई महत्व नहीं रह जाता. इसलिए, इस अदालत की स्पष्ट राय है कि अपीलकर्ता के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 376 और 377 के तहत अपराध साबित नहीं होता.’
यहां अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के ‘इंडिपेंडेंट थॉट बनाम भारत संघ’ (2017) के फैसले को नजरअंदाज किया, जिसमें कहा गया था कि पति-पत्नी के बीच यौन कृत्यों को बलात्कार न मानने के लिए पत्नी की उम्र 15 नहीं, बल्कि 18 साल होनी चाहिए.
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट का यह फैसला, जिसमें वैवाहिक बलात्कार की वास्तविकता को नकारते हुए धारा 375 में मौजूद ‘वैवाहिक अपवाद’ को बरकरार रखा गया है, वास्तव में निराशाजनक है. इससे अधिकारों के प्रगतिशील विकास के सिद्धांत की अवहेलना होती है, जो राज्य के सभी अंगों पर यह दायित्व डालता है कि वे सुनिश्चित करें कि प्रत्येक व्यक्ति अपने अधिकारों का स्वतंत्र और व्यापक उपयोग कर सके.
इसके अतिरिक्त, अदालत ने संवैधानिक नैतिकता और महिलाओं के शारीरिक स्वायत्तता के अधिकार को भी नजरअंदाज किया है, जिसमें यह अधिकार शामिल है कि वे यौन संबंधों से इनकार कर सकें, चाहे दूसरा पक्ष उनका पति ही क्यों न हो.
मार्च 2022 में, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने हृषिकेश साहू बनाम कर्नाटक राज्य मामले में महत्वपूर्ण टिप्पणियां की थीं. न्यायालय ने कहा, ‘पुरुष, पुरुष होता है; कृत्य, कृत्य होता है; बलात्कार, बलात्कार होता है, चाहे वह पुरुष ‘पति’ द्वारा महिला ‘पत्नी’ पर ही क्यों न किया गया हो.’ इस फैसले में अदालत ने कहा कि विधायिका को वैवाहिक बलात्कार के अपवाद को हटाना चाहिए, क्योंकि यह प्रावधान 1837 के मैकॉले के कोड से आया है, जो मध्ययुगीन कानून में विवाह की उस धारणा पर आधारित था, जहां पति अपनी पत्नियों पर अधिकार रखते थे, जिन्हें संपत्ति की तरह माना जाता था. अदालत ने यह भी कहा कि भारत के गणराज्य बनने के बाद ऐसा प्रावधान उचित नहीं है, क्योंकि विवाह बराबरी पर आधारित व्यक्तियों का रिश्ता है. इसके अलावा, जे. एस. वर्मा समिति ने भी वैवाहिक बलात्कार अपवाद को हटाने की सिफारिश की थी. इस तर्क को देते हुए अदालत ने पति की उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उसने अपनी पत्नी के साथ बलात्कार और अप्राकृतिक यौन संबंध के आरोपों को खारिज करने की मांग की थी.
वर्ष 2022 में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के मामले में खंडित निर्णय सुनाया. न्यायमूर्ति राजीव शकधर ने माना कि वैवाहिक बलात्कार का अपवाद संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 15 (भेदभाव पर रोक), अनुच्छेद 19(1)(ए) (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्त्गित स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन करता है, इसलिए इसे रद्द किया जाना चाहिए. वहीं, न्यायमूर्ति सी. हरिशंकर ने इसे संवैधानिक रूप से वैध करार दिया. इस खंडित फैसले के बाद, मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है.
इसके बाद, 2023 में, गुजरात उच्च न्यायालय ने एक मामले में पत्नी के खिलाफ पति द्वारा क्रूर यौन हिंसा में सहयोग करने के आरोपी महिला को जमानत देने से इनकार करते हुए कहा कि लैंगिक हिंसा अक्सर अदृश्य होती है और ‘चुप्पी की संस्कृति’ में छिपी रहती है, और यह कि बलात्कार, बलात्कार होता है – चाहे वह पति द्वारा ही क्यों न किया गया हो.
सुप्रीम कोर्ट में वैवाहिक बलात्कार अपवाद को हटाने के लिए कई याचिकाएं दायर की गई हैं, जिनका केंद्र सरकार ने विरोध किया है. केंद्र का तर्क है कि विवाह में सहमति की परिभाषा अलग होती है, और पति-पत्नी के बीच एक-दूसरे के साथ यौन संबंध बनाने की निरंतर अपेक्षा होती है. सरकार का कहना है कि यह मुद्दा नाजुक कानूनी संतुलन की मांग करता है, और यदि संसद को लगता है कि विवाह संस्था को बनाए रखने के लिए वैवाहिक बलात्कार का अपवाद आवश्यक है, तो अदालत को इसे समाप्त नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह बहुत कठोर कदम होगा.
सरकार का यह रुख दर्शाता है कि वह दकियानूसी और पितृसत्तात्मक सोच को थामे हुए है, और महिलाओं के शरीर पर अधिकार को विवाह की पवित्रता के नाम पर कुर्बान करने पर तुली है. यह भाजपा की केंद्र सरकार के उस पितृसत्तात्मक एजेंडे को उजागर करता है, जो महिलाओं के अधिकारों से अधिक, महिला-विरोधी विचारों को प्राथमिकता देता है.
सुप्रीम कोर्ट ने इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर फैसला लेने में अनुचित देरी की है और लोगों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करने के अपने कर्तव्य को पूरा करने में विफल रहा है. 23 अक्टूबर 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए वैवाहिक बलात्कार के अपवाद पर सुनवाई टाल दी कि दीवाली की छुट्टियों से पहले बहस पूरी नहीं हो सकेगी. तब से इस मामले की सुनवाई नहीं हुई है.
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट को एक संवैधानिक अदालत होने के नाते, यह सुनिश्चित करना चाहिए था कि एक महिला के अधिकार – चाहे वह विवाहित क्यों न हो – जैसे कि समानता का अधिकार, अपने शरीर पर नियंत्रण का अधिकार, चुनाव की आजादी, और सम्मान के साथ जीने का अधिकार, सुरक्षित रहें. लेकिन अदालत ने संघर्षों से हासिल किए गए अधिकारों को नजरअंदाज करके, कानून की दकियानूसी और पिछड़ी धारणाओं को बढ़ावा दिया है, जो संविधान के बुनियादी उसूलों के खिलाफ है.
हम मांग करते हैं कि विधायिका भारतीय दंड संहिता में बलात्कार से जुड़े प्रावधानों से वैवाहिक बलात्कार अपवाद को हटाए और ऐपवा सहित भारत के महिला आंदोलन की दशकों पुरानी मांग को माना जाए.
रति राव, राष्ट्रीय अध्यक्ष
मीना तिवारी, राष्ट्रीय महासचिव