- पुरुषोत्तम शर्मा
वर्ष 2025-26 के केन्द्रीय बजट में एक बार फिर पहले से ही गंभीर आर्थिक संकटों का सामना कर रही भारतीय अर्थव्यवस्था को कोई गति देने की चेष्टा तक नहीं दिखती है. यह बजट भी मोदी सरकार के पूर्व बजटों की भांति जनता को भ्रमित कर दिल्ली व बिहार के तात्कालिक चुनावों को संबोधित करने वाला बजट ही साबित हुआ है. बजट पूरी तरह कारपोरेट कम्पनियों की निर्लज्ज लूट को बढाने और देश के किसानों और मजदूरों के जीवन को और भी कठिन बनाने वाला है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा संसद में पेश 50 लाख करोड़ रूपए के वर्तमान बजट के लिए मोदी सरकार फिर से 14.2 लाख करोड़ रुपये बाजार से ऋण लेगी. एक अनुमान के अनुसार मोदी शासन के पिछले 11 वर्षों में देश पर कुल ऋण 200 लाख करोड़ रुपए के करीब पहुंच रहा है. यह स्थिति भयावह आर्थिक संकट की ओर इशारा कर रही है, क्योंकि यह ऋण हमारी वर्तमान जीडीपी के 70 प्रतिशत के करीब पहुंच रहा है. छः माह पूर्व संसद में वित्त राज्य मंत्री पंकज चौधरी ने एक प्रश्न के लिखित उत्तर में बताया था कि 2024 के अंत तक देश पर 171.78 लाख करोड़ रुपए का ऋण हो जाएगा. जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने से पूर्व 31 मार्च 2014 तक भारत सरकार ने मात्र 55.87 लाख करोड़ रुपया ऋण लिया था.
नए बजट ने एक बार फिर मोदी सरकार द्वारा लगातार किए जा रहे विकास के सारे दावों को गलत साबित किया है. प्राप्त आंकड़े बता रहे हैं कि भारत में सरकारी राजस्व का 22% ही आयकर से आता है. जबकि जिस कारपोरेट क्षेत्र को मोदी सरकार देश की बेशकीमती परिसंपत्तियां और बैंकों में जनता का जमा धन लुटा रही है, वे कुल राजस्व संग्रह में केवल 17 प्रतिशत का ही योगदान कर रहे हैं. आज भी कठिन जीवन जी रहे देश के आम गरीबों से वसूली जाने वाली जीएसटी का हिस्सा इसमें सर्वाधिक 50 प्रतिशत से अधिक है. आर्थिक मामलों के जानकारों के अनुसार केंद्र सरकार द्वारा लिए गए ऋण का ब्याज भुगतान पिछले वर्ष के कुल व्यय के 24.12% से बढ़कर अब 25.19% हो गया है. इससे सरकारी खर्च और मुद्रास्फीति दोनों पर दबाव बढ़ रहा है. केंद्र सरकार चाहती तो बाजार से कर्ज उठाने की जगह देश में अति मुनाफा लूट रही कारपोरेट कम्पनियों के मुनाफे पर कारपोरेट टैक्स में बढोतरी कर ज्यादा संशाधन जुटा सकती थी. साथ ही, देश के सभी अरबपतियों व बड़े अमीरों पर संपत्ति कर और उत्तराधिकार कर को चार प्रतिशत तक बढ़ाकर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगारोन्मुखी योजनाओं के लिए अतिरिक्त संशाधन जुटा सकती थी. मगर केंद्र की मोदी सरकार ने देश की पूंजी और संशाधनों पर एकाधिकार करती जा रही इस छोटी सी जमात के लिए ही अपना आशीर्वाद जारी रखा है. मोदी राज में कौड़ियों के भाव देश की बेशकीमती परिसंपत्तियों की नीलामी और बाजार के बढ़ते ऋण ने भारत की अर्थव्यवस्था को बर्बादी की दिशा में धकेल दिया है.
सरकार और मीडिया संस्थानों ने इस बजट में सबसे ज्यादा चर्चा 12 लाख तक आमदनी वाले लोगों को आयकर में पूरी छूट देने के निर्णय पर सीमित कर दी. आखिर इस देश में एक लाख से ऊपर की आमदनी वाली आबादी है ही कितनी! वर्ष 2023-24 के आयकर रिटर्न भरने वालों के आंकड़ों पर गौर करें तो 145 करोड़ की आबादी में से मात्र 7.54 करोड़ लोगों ने अपना आयकर रिटर्न भरा था. इनमें से 5.54 करोड़ लोगों की आमदनी सलाना 7 लाख रूपये से नीचे थी और उन्हें कोई आयकर नहीं भरना पड़ा. खुद को दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का ढोल पीटने वाली मोदी सरकार देश में आय असमानता की बढ़ती इस खाई पर चुप्पी साधे रहती है. उच्च आय वर्ग व आजीविका के साधनों के लिए संघर्षरत हमारी आबादी के बीच इतना अंतर है कि भारत की कुल आबादी का 2.2 प्रतिशत हिस्सा ही आयकर अदा करने वालों की श्रेणी में आता है. जबकि फ्रांस की 78.3, यूएसए की 50.1, जर्मनी की 61.3 और यूके की 59.7 प्रतिशत आबादी की आमदनी इतनी है कि वह आयकर के दायरे में आती है. बिहार के लिए इस बजट में हुई घोषणाओं से बिहार के गरीबों और किसानों-मजदूरों को क्या मिलने जा रहा है? बिहार में पूर्व में हुए आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार वहां की दो तिहाई आबादी सलाना 10 हजार रूपये से कम आमदनी पर अपना जीवन बसर कर रही है. बिहार के लिए बजट में हुई घोषणाओं में प्रदेश की इस बड़ी आबादी के लिए तो कुछ भी नहीं है. हां, कारपोरेट कम्पनियों को ठेके और उनके लिए बुनियादी ढांचा खड़ा करने की घोषणाएं जरूर हैं. बिहार के लिए बजट में शामिल कृषि उत्पादक संघ और मखाना बोर्ड बिहार के किसानों को कारपोरेट कम्पनियों के साथ अनुबंध खेती में बांधने के षड़यंत्र के अलावा कुछ भी नहीं हैं.
पिछले पांच वर्षों में जब देश जीडीपी ग्रोथ 6 का आंकड़ा नहीं छू पा रहा था, तब हमारे देश में 10 करोड़ से ज्यादा वार्षिक कमाने वाले कुल 31800 लोगों की आमदनी 121 प्रतिशत बढी है. सालाना 50 लाख से ज्यादा कमाने वाले लोगों की संख्या भी इस बीच 49 प्रतिशत बढी. स्टैटिस्टा-कॉम की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2022 तक देश के एक प्रतिशत वयस्क लोगों की आय कुल राष्ट्रीय आय का 22.6 प्रतिशत थी. जबकि सबसे निचले पायदान पर खड़ी हमारी 50 प्रतिशत आबादी की हिस्सेदारी राष्ट्रीय आय में मात्र 15 प्रतिशत थी. ‘विश्व असमानता रिपोर्ट 2022’ के अनुसार एक तरफ भारत में गरीब लोग बढ़ रहे हैं और दूसरी ओर अभिजात्य वर्ग और समृद्ध हो रहा है. देश के 50 प्रतिशत लोग वार्षिक 53,610 रुपए यानी 4500 रुपए प्रतिमाह ही कमाते हैं और इनमें से आधे लोगों की आय में इस बीच 13 प्रतिशत की गिरावट आई है. जबकि शीर्ष 10 प्रतिशत अमीरों की आय देश की कुल आय का 57 प्रतिशत है. रिपोर्ट के अनुसार भारत की निचली 50 प्रतिशत आबादी के पास सम्पत्ति के नाम पर 66,280 रूपये की औसत संपत्ति है. जो कुल सम्पत्ति का मात्र 6 प्रतिशत है. जबकि शीर्ष एक प्रतिशत के पास कुल सम्पत्ति का 33 प्रतिशत और शीर्ष 10 प्रतिशत के पास कुल सम्पत्ति का 65 प्रतिशत है.
इस बीच हमारे यहां की शीर्ष आईटी कम्पनियों के सीईओ के वेतन में 160 प्रतिशत की वृद्धि देखी गयी. वहीं इसी सेक्टर में नए कर्मचारियों को मात्र 4 प्रतिशत ही वेतन वृद्धि मिली. ‘ईटी नाऊ स्वदेश’ में छपे इन आंकड़ों के साथ इंडियन एक्सप्रेस में छपी फिक्की द्वारा तैयार आंकड़ों की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2019 से 23 के बीच इंजीनियरिंग, मैनुफेक्चरिंग, प्रक्रिया व बुनियादी ढांचा (ईएमपीआइ) क्षेत्र में मजदूरी वृद्धि दर मात्र 0.8 प्रतिशत रही. अगर इसे मुद्रास्फीति से जोड़ा जाए तो यह बढ़ोतरी नकारात्मक रही. उदाहरण के लिए वर्ष 2019 से 24 के बीच ग्रामीण मजदूरी दर में मात्र 5.2 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी. मगर मुद्रास्फीति के कारण वास्तविक मजदूरी में कोई बढ़ोतरी होने के बजाय -0.4 प्रतिशत की गिरावट ही दर्ज की गयी. इधर कृषि क्षेत्र में महिलाओं की श्रम बल भागीदारी बढी है. यह वर्ष 2018-19 में 26.4 प्रतिशत थी जिसमें वृद्धि के बाद वर्ष 2023-24 में यह भागीदारी 47.6 तक पहुंच गयी है. ग्रामीण क्षेत्रों में गैर कृषि कार्यों में रोजगार का अभाव और महिला श्रम बल को कम मजदूरी भुगतान इस बढ़ोतरी की एक वजह है. दूसरी वजह भूमिहीनों और खेत मजदूरों के बीच से बढ़ते बटाईदार किसानों की संख्या है, जो पूरे परिवार के श्रम बल पर किया जाता है. पर इन सभी श्रेणियों के लिए वर्तमान बजट में कुछ भी नहीं है.
हमारी आधी से ज्यादा आबादी आज भी गांवों में है. हमारे श्रम बल का बड़ा हिस्सा किसान और ग्रामीण मजदूर आज भी गांवों की अर्थव्यवस्था से ही अपनी आजीविका चलाते हैं. वे घाटे की खेती और मजदूरी न मिलने के कारण लगातार कर्जजाल में फंसते जा रहे हैं. इसके बावजूद बजट इस क्षेत्र के लिए पूरी तरह न सिर्फ चुप्पी साधे है बल्कि ग्रामीण बजट में कटौती की राह पर ही है. 2024-25 के संशोधित अनुमान के अनुसार कृषि और संबद्ध क्षेत्र में किया गया व्यय 3,76,720.41 करोड़ रूपये था. जबकि 2025-26 के बजट में इसके लिए अनुमानित राशि 3,71,687.35 करोड़ रूपए रखी गयी है. यानी इस वर्ष कृषि व सम्बद्ध क्षेत्र के लिए इस बजट में पिछले वर्ष के बजट से 5042.06 करोड़ रुपए की कटौती की गयी है. अगर इसमें बढ़ी लागत व मुद्रास्फीति भी जोड़ दी जाए तो यह पिछले बजट से लगभग 40 हजार करोड़ रूपये की कटौती है. जहां तक मनरेगा का सवाल है, 2025-26 में इसके लिए आवंटन 85428.39 करोड़ रूपये है, जबकि पिछले साल यह 85279.45 करोड़ था. इसमें मात्र 148.94 करोड़ रूपये की वृद्धि हुई है. रोजगार सृजन और गांवों से शहरों की ओर पलायन को रोकने के बारे में बजट में कुछ नहीं कहा गया है. वर्तमान में मनरेगा के तहत दिए जाने वाले औसत कार्य दिवस मात्र 45 दिन हैं, जबकि वादा 100 दिन का था. मनरेगा मजदूरों की मांग है कि 600 रूपए प्रतिदिन की मजदूरी के साथ वर्ष में 200 कार्य दिवस सुनिश्चित किए जाएं. ऐसे में मनरेगा के लिए राशि को बढ़ाकर 2 लाख करोड़ किया जाना चाहिए था. मगर केंद्र का बजट सबसे निचले पायदान पर खड़े इस श्रम बल की पूरी तरह अनदेखी कर रहा है.
भारत में रोजगार को लेकर हो रहे हालिया सर्वेक्षणों से पता चलता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का महत्व बढ़ रहा है. नाबार्ड का एक हालिया सर्वेक्षण बताता है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्र में कृषक परिवारों में तेज वृद्धि हुई है. भारत के कृषक परिवारों की संख्या 2016-17 में 48 प्रतिशत से बढ़कर 2021-22 में 56.7 प्रतिशत हो गई थी. कुल रोजगार में कृषि की हिस्सेदारी 2018 में 42 प्रतिशत थी, जो 2024 में बढाकर 46 प्रतिशत हो गई है. कृषि उत्पादों से ही जुड़ा खाद्य प्रसंस्करण उद्योग संगठित विनिर्माण में सबसे बड़ा नियोक्ता है. संगठित क्षेत्र के रोजगार में इसकी भागीदारी 12.02% है. अगर इसे भी जोड़ दिया जाए तो देश में उपलब्ध कुल रोजगार में 58 प्रतिशत रोजगार अकेले कृषि क्षेत्र ही उपलब्ध करा रहा है. प्रसंस्कृत खाद्य व कृषि उपज देश के कुल निर्यात में 11.7% का योगदान देता है. फिर भी आज एक किसान परिवार (औसतन 5 सदस्यों का) की औसत आय 150 रुपए प्रतिदिन से कम है. 2024 की न्यूनतम मजदूरी भी 178 रुपए यानी 5,340 रूपये प्रति माह प्रति मजदूर है. इसके बावजूद बजट में कृषि क्षेत्र की पूर्ण उपेक्षा और देश की आबादी के मात्र 2 प्रतिशत हिस्से पर सब कुछ लुटाने की मोदी सरकार की नीतियां इस बजट में साफ देखी जा सकती हैं. पिछले एक दशक में ग्रामीण क्षेत्रों के मजदूरों की वास्तविक मजदूरी वृद्धि या तो कम हुई है या नकारात्मक रही है. यह स्थितियां बताती हैं कि कोविड काल के पहले से ही मंदी की मार झेल रही भारतीय अर्थव्यवस्था ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर श्रम बल का अतिरिक्त बोझ लाद दिया है. ऐसे में कृषि और ग्रामीण रोजगार को बजट में विशेष महत्व देकर ग्रामीण क्षेत्र में किसानों की आमदनी और मजदूरों की वास्तविक मजदूरी में वृद्धि के लिए विशेष कदम उठाने की जरूरत थी. आय और वास्तविक मजदूरी में यह वृद्धि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नई गति देने के साथ ही उद्योग और व्यापार के क्षेत्र को भी गति देने में सहायक साबित हो सकती थी.
भारत की जीडीपी में कृषि क्षेत्र की 18.2 प्रतिशत हिस्सेदारी है जबकि उद्योग की 27.6 प्रतिशत हिस्सेदारी है. देश में 82 प्रतिशत छोटे व सीमान्त किसान हैं. 70 प्रतिशत ग्रामीण परिवार कृषि पर निर्भर हैं. सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि कोविड की मार के बावजूद पिछले पांच वर्षों में भारत के कृषि क्षेत्र ने 4.18 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर दर्ज की है. नीतियों व बजट में कृषि क्षेत्र को लगातार हतोत्साहित करने के कारण खाद्य फसलों के क्षेत्र में यह वृद्धि दर मात्रा 2.34 प्रतिशत ही रही है. कृषि आय में 5.23 प्रतिशत वृद्धि के सरकारी आंकड़े में मत्स्य से 9.08 प्रतिशत, पशुधन से 5.76 प्रतिशत और बागवानी का एक दहाई से ऊपर का प्रतिशत बड़ी भूमिका निभा रहा है. देश के बहुसंख्यक किसानों जो खाद्यान जरूरतों के लिए कृषि उत्पादन में लगे हैं, की वास्तविक आय बढ़ती महंगाई और लागत सामग्री की बढ़ती कीमतों के कारण लगातार घट रही है. किसानों की घटती आय और ग्रामीण मजदूरों की वास्तविक मजदूरी में गिरावट ने देश के किसानों और ग्रामीण मजदूरों को कर्ज के मकड़जाल में बुरी तरह फांस दिया है. इसका नतीजा है कि कर्ज में डूबे किसानों की आत्महत्याओं के साथ ही अब माइक्रो फाइनेंस कम्पनियों के कर्ज जाल में फंसे मजदूरों की आत्महत्याओं का भूगोल भी देश में बढ़ता जा रहा है. बड़ी कारपोरेट कम्पनियों को 16 लाख करोड़ से ज्यादा राशि लुटाने वाली मोदी सरकार का बजट एमएसपी गारंटी कानून और किसानों, ग्रामीण मजदूरों की सम्पूर्ण कर्ज मुक्ति की मांग पर भी चुप्पी साधे है. बजट में खाद्य सब्सिडी राशि को 2.05 लाख करोड़ रुपये से घटाकर 2.03 लाख करोड़ रुपये, उर्वरक के लिए 1.64 लाख करोड़ रुपये से 1.67 लाख करोड़ रुपये, ईंधन के लिए 11.9 हजार करोड़ रुपये से 12.1 हजार करोड़ रुपये, ग्रामीण विकास के लिए 2.65 लाख करोड़ रुपये से 2.66 लाख करोड़ रुपये किया गया है. जिसे देखने से साफ हो जाता है कि बजट में इस क्षेत्र को क्या महत्व दिया गया है?
डबल इंजन के बुलडोजर राज के नमूने दिखाने के बाद मोदी सरकार ने अब अपने बजट को भी इंजनों में बांट कर पेश किया है. इसमें कृषि को इंजन 1 के तहत रखकर महत्व देने की कोशिश की गयी है. कृषि के अंतर्गत प्रधानमंत्री धन-धान्य कृषि योजना में 1.76 करोड़ आबादी की मदद करने वाले 100 कृषि जिलों का विकास कार्यक्रम दिया गया है, जिसमें किसानों को उत्पादक संघों में संगठित कर कम्पनियों के साथ अनुबंध खेती में बांधने का प्रावधान किया गया है. एमएसपी पर खरीद की गारंटी के बिना किसानों को दालों के उत्पादन में लगाकर देश को दाल उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने का झूठा सपना दिखाने की कोशिश पेश बजट में है. जबकि सच्चाई यह है कि देश का किसान आज भी दालों और सोयाबीन की फसलों को सरकार द्वारा घोषित एमएसपी पर खरीद की मांग कर रहा है, और उसे हमेशा अपनी फसल को आधे या दो तिहाई मूल्य पर बेचने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. मोदी सरकार ने किसानों की आय बढाने और कर्ज से उनकी मुक्ति के लिए कोई भी प्रावधान बजट में नहीं किया है. उल्टे केसीसी व किसान उत्पादक संघों के गठन के माध्यम से किसानों को और भी कर्ज जाल में फांस कर उनकी जमीनों को छीनने का रास्ता ही तैयार किया है. मोदी सरकार ने फसल बीमा के लिए पिछली बार के बजट में 14, 600 करोड़ रुपए दिए थे. उसे घटाकर इस बार 12,242 करोड़ रुपया कर दिया गया है. सरकार ने बीमा क्षेत्र में एफडीआई की सीमा भी 74 प्रतिशत से बढ़ाकर 100 प्रतिशत कर दी है, जिसका मतलब है कि बीमा क्षेत्र का पूरी तरह निजीकरण कर उसे विदेशी बीमा कम्पनियों के लिए भी पूरी तरह खोल दिया गया है. उधर अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड ट्रंप की धमकी के मद्देनजर मोदी सरकार ने सीमा शुल्क से 7 टेरिफ दरें घटा दी हैं.