-- का. दीपंकर भट्टाचार्य, महासचिव, भाकपा(माले)
आरजी कार मेडिकल कॉलेज में एक जूनियर महिला डॉक्टर के साथ जघन्य बलात्कार और हत्या को लेकर इंसाफ के लिए उठा आंदोलन पश्चिम बंगाल के इतिहास में सबसे व्यापक और दीर्घकालीन आंदोलनों में से एक है. इतने बड़े पैमाने पर लोगों के जायज गुस्से और गहरी भावनाओं को तर्कपूर्ण, शांत और मजबूत प्रतिरोध की भाषा में अभिव्यक्त होते देखना देश के लिए दुर्लभ है. शाहीन बाग और किसान आंदोलन निश्चित रूप से याद आते हैं, लेकिन आरजी कार के लिए न्याय का आंदोलन कुछ ही समय में इतना बड़ा क्यों बन गया? इसका जवाब है – लोगों का संचित गुस्सा और इंसाफ की तीव्र चाहत. इस आंदोलन ने दिखाया है कि कैसे एक घटना समाज के हर तबके को प्रभावित कर सकती है और लोगों को व्यापक दायरे में एकजुट कर सकती है.
इस देश में बलात्कार और हत्या की घटनाएं रोजमर्रा की खबर बन गई हैं. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, हर 16 मिनट में बलात्कार का एक मामला दर्ज होता है. बिलकिस बानो के सामूहिक बलात्कार और परिवार के नरसंहार के दोषियों को देश की आजादी की 75वीं वर्षगांठ पर सम्मानित करते हुए जेल से रिहा कर दिया गया. राम रहीम जैसे अपराधियों को हर चुनाव से पहले लंबे समय के लिए पैरोल पर छोड़ दिया जाता है. बृजभूषण सिंह जैसे दबंग भाजपा सांसद, जिनके खिलाफ पुलिस ने चार्जशीट दाखिल की है, अभी भी कानून की पकड़ से बाहर हैं. एक साल बीत जाने के बावजूद मणिपुर के लिए न्याय देने का कोई प्रयास नहीं हुआ है. महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीड़न, हिंसा और भेदभाव की बेशुमार घटनाओं में इंसाफ मिलना तो बहुत दूर की बात है.
ऐसे हालात में ‘आरजी कार के लिए न्याय’ आंदोलन को इतना बड़ा जनसमर्थन क्यों मिला, यह पश्चिम बंगाल के बाहर के लोगों को आश्चर्यजनक लग सकता है. दरअसल, हम भूल जाते हैं कि 2012-13 में निर्भया आंदोलन के बाद से इस देश में महिलाओं की सुरक्षा और अधिकारों को लेकर समाज में पहले से कहीं अधिक जागरूकता आई है. महिलाओं के उत्पीड़न और बलात्कार संस्कृति को बढ़ावा देने या पुरस्कृत करने की हर घटना ने जनमानस में रोष पैदा किया है. ‘आरजी कार के लिए न्याय’ आंदोलन में उसी संचित रोष का विस्फोट हुआ है.
साथ ही, डॉक्टरों की सुरक्षा का सवाल, चिकित्सा, शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था के मुद्दे, और विशेष रूप से आरजी कार मेडिकल कॉलेज में भ्रष्टाचार, इस व्यापक नाराजगी के साथ जुड़े हुए हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि राज्य सरकार के एक के बाद एक गलत कदमों और मुख्यमंत्रा से लेकर राज्य के सत्तारूढ़ दल के विभिन्न नेताओं के असंवेदनशील और गैर-जिम्मेदार बयानों ने इस आग में घी डालने का काम किया है.
ऐसे में सवाल उठता है कि इस विशाल जन आंदोलन ने अब तक क्या हासिल किया है? ‘हम न्याय चाहते हैं’ – यह नारा आंदोलन की जान है. क्या आंदोलन न होता तो न्याय मिल पाता, यह संदेह का विषय है. न्याय लफ्ज को निजी तौर पर चुपचाप सिसकियां लेते देखने के हम ज्यादा आदी हैं. लेकिन इस आंदोलन ने न्यायिक प्रक्रिया को गति दी है. क्या सीबीआई जांच सच्चाई का पूरा पर्दाफाश करेगी? क्या सुप्रीम कोर्ट दोषियों को सजा दिला पाएगा? ये सवाल अभी भी जवाब की तलाश में हैं.
लोकतंत्र में सत्ता का जनप्रतिरोध को कुचलना एक आम कायदा हो गया है. किसी घटना पर आंदोलन कब और कितना बड़ा रूप लेगा, इसका कोई निश्चित नियम नहीं है. इसी प्रकार, राज्य (ध्यान दें कि अदालत भी राज्य व्यवस्था का एक हिस्सा है) जनप्रतिरोध में कैसे हस्तक्षेप करेगा, इसका भी कोई निश्चित नियम नहीं है. लेकिन एक बात स्पष्ट है – आंदोलन के दबाव ने न्याय की मांग को अनदेखा करना मुश्किल कर दिया है. इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं संज्ञान लिया है. आरजी कार के लिए न्याय आंदोलन के मिजाज ने यह साफ कर दिया है कि न्याय की आवाज को दबाया नहीं जा सकता, यह तब तक उठती रहेगी जब तक न्याय नहीं मिल जाता.
सुप्रीम कोर्ट मुख्य रूप से इस मुद्दे को डॉक्टरों की सुरक्षा के नजरिए से देख रहा है. महिलाओं की कार्यस्थल पर सुरक्षा, जो लंबे समय से उपेक्षित रही है, को सुप्रीम कोर्ट ने भी अभी तक उतना महत्व नहीं दिया है. राज्य सरकार द्वारा महिला सुरक्षा संबंधी प्रस्ताव में महिलाओं को रात के काम से यथासंभव बाहर रखने के दकियानूसी विचार की निश्चित रूप से सुप्रीम कोर्ट में आलोचना हुई है. इसी तरह, बलात्कार जैसी घटनाओं में मृत्युदंड जैसे कठोर दंड पर जोर देने से दोषियों को सजा दिलाने की संभावना कम हो जाती है, बजाय इसके कि अपराध को रोकने और सभी पीड़ितों को न्याय दिलाने पर जोर दिया जाए.
निर्भया आंदोलन के एक दशक बाद ‘आरजी कार के लिए न्याय’ आंदोलन में महिलाओं की सुरक्षा और स्वतंत्रता का जो मुद्दा जोरदार रूप से उठा है, वह कानून-अदालत के जाल में न फंसे, यह देखने का दायित्व प्रत्येक आंदोलनकारी शक्ति और व्यक्ति का है. संगठित एकजुट शक्ति और दृढ़ निश्चय के आंदोलन के बल पर जूनियर डॉक्टर राज्य सरकार को कुछ हद तक पीछे हटने के लिए मजबूर कर पाए हैं. सरकार ने उनकी कुछ मांगें मान ली हैं, लेकिन डॉक्टर अपने भविष्य की सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं. इसलिए उनका निर्णय है कि सुरक्षा की मांग को लेकर आंदोलन अन्य रूप में जारी रहेगा.
डॉक्टरों की सुरक्षा की तरह ही महत्वपूर्ण सवाल भ्रष्टाचार मुक्त शिक्षा-परीक्षा व्यवस्था और जनता के लिए सुलभ चिकित्सा व्यवस्था का है. सार्वजानिक स्वास्थ्य व्यवस्था को कमजोर करके जनता के हाथ में स्वास्थ्य बीमा का कार्ड थमाकर देश भर में जो स्वास्थ्य व्यवसाय का फंदा फैलाया गया है, उसे काटना भी जरूरी है.
अगर जूनियर डॉक्टरों का आंदोलन पूरे देश में एक व्यापक जन स्वास्थ्य आंदोलन में तब्दील होता है, तो पूरे देश के लोग बंगाल के डॉक्टरों के इस संघर्ष को सलाम करेंगे. ‘आरजी कार के लिए न्याय’ आंदोलन एक सच्चा नागरिक आंदोलन है. यह सिर्फ शहरों के अमीरों या मध्यम वर्ग का आंदोलन नहीं है, बल्कि यह हम सभी भारतीयों का आंदोलन है – चाहे हम गांव में रहते हों या शहर में, अमीर हों या गरीब, सुविधाभोगी हों या वंचित. यह एक ऐसा आंदोलन है जो सभी तबके के लोगों को एकजुट कर रहा है और संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों के लिए लड़ रहा है.
यह आंदोलन न सिपर्फ गांव की महिलाओं को, बल्कि राज्य भर के विभिन्न तबकों और पीढ़ियों के लोगों को सड़कों पर उतार लाया है. यह एक ऐसा जन आंदोलन है जिसने किसी भी राजनीतिक दल को अपने रंग में रंगने से इनकार कर दिया है. मुख्य विपक्षी दल बार-बार इस आंदोलन को अपना हथियार बनाने में नाकाम रहा है. यह आंदोलन आधुनिक समाज और लोकतंत्रा के लिए एक नई चेतना और राजनीतिक भाषा को गढ़ रहा है. मुख्यमंत्री और विपक्ष, दोनों ने इस आंदोलन को अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश की है, लेकिन आंदोलन न्याय की अपनी मांग पर अडिग रहा है.
पश्चिम बंगाल के पिछले दो चुनावों ने दिखा दिया है कि बंगाल के लोग राज्य सरकार से काफी निराश हैं, लेकिन वे राज्य में प्रमुख विपक्षी दल, जो केंद्र में सत्तारूढ़ है, के बारे में भी अच्छी तरह से जानते हैं और उसे राज्य की सत्ता में लाने के लिए कभी उत्साहित नहीं रहे हैं. इसके परिणामस्वरूप, 2021 के विधानसभा और 2024 के लोकसभा दोनों चुनावों में तृणमूल कांग्रेस के वोट और सीटें बढ़ी हैं. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि राज्य सरकार और सत्तारूढ़ दल की बड़ी-बड़ी गलतियों, भ्रष्टाचार और कुशासन को लोग भूल गए हैं. नागरिक समाज के चल रहे आंदोलन का यही मुख्य संदेश है. इसी वजह से बंगाल में अब भाजपा और तृणमूल के अलावा एक तीसरा विकल्प उभर रहा है, जो वामपंथी और उदारवादी विचारधाराओं को जोड़ता है. लैंगिक न्याय के लिए जनता का आंदोलन, सत्ता के अहंकार का जवाब है.
उत्सव का आगमन हो रहा है, लेकिन आंदोलन के जोश में कमी नहीं है. बंगाल के आकाश और हवा में सलिल, सुकांत और हेमंत फिर गूंज रहे हैं. जनता का अपने अधिकारों और समाज में परिवर्तन लाने का संघर्ष लगातार जारी है और जारी रहेगा.
(24 सितंबर को ‘आनंद बाजार पत्रिका’ में छपे लेख के मूल बंगला से अनुवाद)