- सुचेता डे
कोलकाता के आरजी कार मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में एक जूनियर महिला डॉक्टर के साथ हुए वहशियाना बलात्कार और हत्या ने पूरे देश की अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया है. यह तथ्य कि एक महिला डॉक्टर को ड्यूटी के दौरान, कोलकाता जैसे महानगर के सरकारी अस्पताल में इतनी बेरहमी से पेश आया जा सकता है, हमारे समाज में चारों तरफ मौजूद बलात्कार की संस्कृति की नंगी हकीकत को उजागर करता है. कॉलेज प्रशासन द्वारा इस घटना को आत्महत्या करार देने की शर्मनाक कोशिश और उसके बाद पीड़िता को ‘देर रात अकेले होने’ के लिए दोषी ठहराने के प्रयासों ने चारों तरफ फैलते आक्रोश को जन्म दिया और इंसाफ के लिए एक निरंतर आंदोलन को आगे बढ़ाया.
अगस्त की शुरुआत में शुरू हुआ यह आंदोलन प्रतिरोध के नए-नए रूपों को गढ़ता हुआ लगातार आगे बढ़ रहा है. स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर, ‘रिक्लेम द नाईट’, यानी रात के साए में भी, हम आज़ादी का अहसास करेंगे का आह्वान किया गया. विभिन्न सामाजिक पृष्ठभूमियों की हजारों महिलाएं, अन्य नागरिकों के साथ, आधी रात को पश्चिम बंगाल की सड़कों पर उतर आईं. इस आह्वान की गूंज अन्य राज्यों में भी काफी दूर तक महसूस की गई. ‘रिक्लेम द नाईट’ पहल ने वास्तव में आंदोलन की भावना को मूर्त रूप दिया, तथा एक स्पष्ट संदेश दिया : महिलाएं और हाशिए पर पड़ी लैंगिक पहचानें, इंसाफ, बराबरी और आजादी के लिए दिन और रात, दोनों वक्त, अपनी आजादी को फिर से पाने के लिए दृढ़ संकल्प से भरे हैं.
आरजी कार अस्पताल में एक युवा डॉक्टर पर हुए वहशियाना हमले से शुरू हुए आंदोलन ने एक ऐसी ज्वाला प्रज्वलित की है जो महिलाओं और हाशिए पर पड़ी यौन अल्पसंख्यकों के पितृसत्तात्मक उत्पीड़न और अमानवीयकरण के हर दृष्टांत को चुनौती देती है. हर दिन सड़कों पर, घरों में, सार्वजनिक परिवहन, और काम करने की जगहों पर सर्वव्यापी यौन उत्पीड़न से लेकर महिलाओं पर थोपे गए ‘सम्मान’ और ‘शर्म’ की पितृसत्तात्मक धारणाओं तक, आंदोलन ने इन गहराई से जड़ जमाए मुद्दों का सामना करने की दृढ़ आकांक्षा पैदा की है. महिलाएं जिम्मेदारी ले रही हैं और विरोध प्रदर्शनों में सक्रिय रूप से भाग ले रही हैं. वे आवाज उठा रही हैं और आंदोलन का नेतृत्व कर रही हैं. यह महिलाओं के प्रति लैंगिक भेदभाव और घृणा की रोजमर्रा की स्वीकार्यता को चुनौती देने और उसे बदलने के उनके दृढ़ संकल्प को दर्शाता है.
बलात्कार आखिरकार सत्ता का अपराध है – एक ऐसी सत्ता जो समाज के हर ढांचे में, हर संस्थान में, और लोगों के साथ उनके लिंग, वर्ग या जाति के आधार पर हमारे रोजमर्रा के व्यवहार में व्यवस्थित रूप से समाहित है. ‘रिक्लेम द नाइट’ विरोध प्रदर्शन के आयोजकों ने स्पष्ट रूप से कहा है कि वे ‘सुरक्षा’ के नाम पर महिलाओं और अन्य लैंगिक अल्पसंख्यकों की गतिशीलता, स्वतंत्रता और उनकी स्वायत्तता पर प्रतिबंधों को उचित ठहराने के किसी भी कोशिश को दृढ़ता से इंकार करते हैं.
आरजी कार आंदोलन से उठी इंसाफ की पुकार हम सभी को उस स्त्री-द्वेषी सत्ता संरचना के खिलाफ खड़े होने का हौसला देती है, जो मौजूदा दौर में हमारे देश पर शासन कर रही है. इस सत्ता का महिलाओं की बराबरी, इंसाफ और आजादी के संघर्षों को बलपूर्वक दबाने का लंबा इतिहास रहा है. याद रहे कि आरएसएस और हिंदू महासभा के नेताओं ने 1950 के दशक में महिलाओं के लिए समान अधिकारों की गारंटी देने वाले हिंदू कोड बिल का विरोध किया था, और पिछले दस सालों से वे देश पर शासन कर रहे हैं.
इसी दौरान हमने जम्मू-कश्मीर के कठुआ से लेकर उत्तर प्रदेश के उन्नाव तक सत्तारूढ़ पार्टी के सदस्यों द्वारा बलात्कार के आरोपियों के बचाव में सार्वजनिक रैलियां देखी हैं. हमने 2017 और 2023 में कैंपस में यौन उत्पीड़न के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने वाली बीएचयू की छात्राओं पर क्रूर दमन की कार्रवाई देखी है. प्रधानमंत्री के अपने निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में बीएचयू की छात्राओं को विरोध प्रदर्शन के बाद उनकी गतिशीलता को सख्त प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा.
यहां तक कि साक्षी मलिक और विनेश फोगाट जैसी महिला पहलवानों को भी इसी तरह के राज्य प्रायोजित हमले का सामना करना पड़ा है, जब उन्होंने पूर्व डब्ल्यूएफआई अध्यक्ष और भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह द्वारा यौन उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाई थी. उनके विरोध प्रदर्शनों ने स्पष्ट कर दिया कि यौन उत्पीड़न के मामलों से निपटने के लिए आंतरिक शिकायत समितियां या तो मौजूद नहीं हैं या भारतीय ओलंपिक संघ और भारतीय कुश्ती महासंघ जैसी संस्थाओं में पूरी तरह से अप्रभावी हैं.
यौन उत्पीड़न रोकथाम (PoSH) अधिनियम को लागू हुए एक दशक से अधिक समय हो गया है, लेकिन सवाल यह है कि इसे कितने प्रभावी ढंग से लागू किया गया है? 2024 के जस्टिस फॉर आरजी कार आंदोलन का व्यापक चरित्र 2012 में देश को हिला देने वाले बड़े पैमाने पर बलात्कार विरोधी आंदोलन की याद दिलाता है. निर्भया आंदोलन के नाम से मशहूर, 2012 के सामूहिक बलात्कार विरोधी प्रदर्शनों में प्रगतिशील ताकतों की निर्णायक भागीदारी ने सभी महिलाओं और हाशिए पर पड़े यौन अल्पसंख्यकों के लिए बेखौफ आजादी की मांग को व्यापक तौर से बुलंद किया. इसने ‘पितृसत्तात्मक संरक्षणवाद’ के विचार का विरोध किया, जो महिलाओं की हिफाजत की आड़ में उनकी आवाजाही की आजादी को प्रतिबंधित और नियंत्रित करना चाहता है.
यह 2012 के उस आंदोलन का निरंतर दबाव था जिसने पिछली सरकार को विभिन्न प्रगतिशील कानूनी सुधारों को लागू करने के लिए मजबूर किया. समाज में दूर तक फैली हुई बलात्कार संस्कृति से निपटने के लिए जरूरी कानूनी बदलावों और संस्थागत सुधारों की सिफारिश करने के लिए न्यायमूर्ति वर्मा समिति का गठन किया गया था. जबकि समिति की कुछ कानूनी सिफारिशों को शामिल किया गया है, कई महत्वपूर्ण संस्थागत सुधार आज भी लागू नहीं हुए हैं.
2012 के आंदोलन की वजह से कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 को लाया गया, जिसे आमतौर पर पीओएसएच (PoSH) अधिनियम के रूप में जाना जाता है. इस कानून ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी 1997 के विशाखा दिशा-निर्देशों की जगह ली, जिसमें सभी कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न के निवारण और रोकथाम के लिए यौन उत्पीड़न विरोधी सेल बनाने का आदेश दिया गया था. 2013 के अधिनियम के अनुसार, अब हर कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के मामलों से निपटने और उन्हें रोकने के लिए आंतरिक शिकायत समितियां बनाना अनिवार्य है.
तथ्य यह है कि आरजी कार मेडिकल कॉलेज में एक युवा महिला डॉक्टर के साथ उसके कार्यस्थल पर ड्यूटी के दौरान क्रूर बलात्कार और हत्या हुई है. इससे यह आवश्यक हो जाता है कि कार्यस्थल पर महिलाओं और हाशिए पर पड़े यौन अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की गारंटी के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदमों का तत्काल मूल्यांकन हो, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कार्यस्थल पर लैंगिक भेदभाव वाली कार्य संस्कृति न हो जो उत्पीड़ित लिंगों को हेय नजरिए से देखती है, और उनका अवमूल्यन और अमानवीयकरण करती है.
पीओएसएच अधिनियम के कार्यान्वयन के बाद, 2013 में यूजीसी द्वारा जारी सक्षम दिशा-निर्देशों का उद्देश्य विश्वविद्यालयों और कॉलेजों द्वारा महिलाओं के लिए सुरक्षित कार्यस्थल बनाने के लिए उठाए गए कदमों का मूल्यांकन करना था. 16 साल पहले जारी विशाखा दिशा-निर्देशों पर आधारित इन दिशा-निर्देशों में न केवल यौन उत्पीड़न विरोधी प्रकोष्ठों के गठन के निर्देश दिए गए थे, बल्कि प्रत्येक संस्थान को यूजीसी ने एक पुस्तिका भी भेजी थी. सक्षम रिपोर्ट ने सर्वेक्षण में पाया कि आधे से भी कम शैक्षणिक संस्थानों में महिलाओं के लिए शिकायत सेल थे, जिनमें से कुछ एंटी-रैगिंग सेलों से जुड़ी थीं.
आश्चर्यजनक रूप से, सर्वाच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित लंबे समय से दिशा-निर्देशों के बावजूद, केवल आधे संस्थानों ने यौन उत्पीड़न विरोधी दिशा-निर्देशों को लागू करने की बात कही. जब यौन उत्पीड़न विरोधी ‘शिकायत सेलों’ में दर्ज मामलों की संख्या के बारे में पूछा गया, तो 83.5% संस्थानों ने बताया कि उनके यहां यौन उत्पीड़न की कोई घटना दर्ज नहीं की गई है. यह साफ तौर से हमारे संस्थानों में व्याप्त चुप्पी की संस्कृति की ओर इशारा करता है, जो महिलाओं को बोलने और इंसाफ मांगने से हतोत्साहित करती है.
इससे संस्थानों को यह दावा करने का आधार मिल गया कि यौन उत्पीड़न और लैंगिक भेदभाव की समस्याएं उनके कैंपस में नहीं हैं. सक्षम रिपोर्ट ने परिसरों में आम तौर पर लैंगिक-संवेदनशील माहौल का अभाव पाया. इसमें सुलभ शौचालयों की कमी, अपर्याप्त स्ट्रीट लाइटिंग, अपर्याप्त महिला सुरक्षा कर्मियों की संख्या और रात में यात्रा करने वाली छात्राओं के लिए परिवहन विकल्पों की कमी जैसे मुद्दों का उल्लेख किया गया. सक्षम रिपोर्ट ने स्पष्ट रूप से संस्थानों की अपने परिसरों में लैंगिक समानता के मुद्दे के प्रति छाई उदासीनता से निपटने के लिए और अधिक जागरूकता और कार्रवाई की तत्काल जरूरत को दर्शाया है.
पीओएसएच (PoSH) अधिनियम के लागू होने के छह साल बाद, एसएएफएमए ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को ‘महिलाओं के यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 के तहत स्थानीय शिकायत सेलों की स्थिति और कार्यप्रणाली’ शीर्षक से एक रिपोर्ट सौंपी. इस रिपोर्ट में पीओएसएच (PoSH) अधिनियम की प्रभावशीलता का मूल्यांकन किया गया है. यह उल्लेखनीय है कि 2014 में केंद्र सरकार में बदलाव हुआ था. ‘शिकायत सेल’ जैसी ढांचा का जमीनी संचालन, कानून लागू होने और सरकार बदलने के बाद हुए किसी भी बदलाव का एक प्रमुख संकेतक होगा.
पीओएसएच अधिनियम प्रत्येक कार्यस्थल पर एक आंतरिक शिकायत सेल (आईसीसी) और प्रत्येक जिले में एक स्थानीय शिकायत सेल (एलसीसी) का गठन करने का आदेश देता है, जहां संस्थान द्वारा 10 से कम लोगों को रोजगार दिया जाता है या शिकायत नियोक्ता के खिलाफ होती है. इस प्रकार, घरेलू कामगारों सहित अनौपचारिक मजदूरों की बड़ी संख्या द्वारा सामना किए जाने वाले यौन उत्पीड़न के निवारण के संदर्भ में एलसीसी की भूमिका अहम है. इस रिर्पाट में शामिल तीन राज्यों, दिल्ली, हरियाणा और ओडिशा की तस्वीर एक चिंताजनक वास्तविकता को उजागर करती है – जबकि एलसीसी स्थानीय प्रशासन द्वारा गठित किए जाते हैं, लेकिन महिला कर्मचारियों के बीच इन ‘शिकायत सेलों’ के बारे में जानकारी की पूरी कमी व्यवस्था में खामियों को रेखांकित करती है. एलसीसी के पास आवश्यक संसाधनों – कार्यालय स्थान, स्थायी पता, आवश्यक कर्मचारी और जांच करने के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचे की कमी ने भी इसके काम को प्रभावित किया है. इसके अलावा, एलसीसी सीधे शिकायतें भी प्राप्त नहीं करते हैं, जिससे शिकायतकर्ताओं के लिए इंसाफ़ मांगना मुश्किल हो जाता है.
यह रिर्पाट अनौपचारिक क्षेत्र की महिलाओं के कार्यस्थल पर उत्पीड़न की व्यापकता का भी पर्दाफाश करता है. चौंकाने वाली बात यह है कि उत्पीड़न का सामना करने वाली 47% महिलाओं ने चुपचाप सहना चुना, जबकि 24% ने यौन उत्पीड़न से निपटने के तरीके के बारे में जानकारी की कमी के कारण चुपचाप सहन किया. इसके अलावा, 19.5% ने उत्पीड़क का सामना करने का फैसला किया और 19.2% ने अंततः अपना कार्यस्थल छोड़ दिया. इससे भी अधिक चिंताजनक तथ्य यह है कि यौन उत्पीड़न का सामना करने वाले 65% उत्तरदाताओं का मानना था कि अपराधी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी. ये आंकड़े प्रासंगिक कानून के लागू होने के छह साल बाद भी यौन उत्पीड़न की प्रभावी रोकथाम की कमी की कठोर वास्तविकता को उजागर करते हैं. ये हालात कार्यस्थल पर महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों की भयावह तस्वीर पेश करते हैं, खासतौर से 2019 में भारत के मुख्य न्यायाधीश के अधीन काम करने वाली एक महिला कर्मचारी से जुड़े हाई-प्रोफाइल मामले के आलोक में, जिसमें मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोपों के बावजूद, उस महिला को संस्थागत चुप्पी और उत्पीड़न झेलना पड़ा और इंसाफ नहीं मिला.
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि भाजपा सरकार द्वारा हाल ही में लाए गए चार श्रम संहिताओं में पीओएसएच अधिनियम को श्रम कानूनों के दायरे में शामिल नहीं करना बेहद चिंताजनक है. श्रम विभागों के पास पीओएसएच अधिनियम को लागू करने की कोई जिम्मेदारी नहीं होना एक बड़ी चूक है, जो कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ सुरक्षा लागू करने में श्रम विभागों को किसी भी जवाबदेही से मुक्त करती है. जस्टिस फॉर आरजी कार आंदोलन के लैंगिक न्याय की लौ को बड़े सामाजिक परिवर्तन के लिए जलाए रखना होगा और सत्ता में बैठे लोगों की जवाबदेही तय करनी होगी.
सत्ता से करीबी रिश्ता रखने वाले आरोपियों को बचाने, पीड़िता को चुप कराने और डराने-धमकाने, और यौन उत्पीड़न से निपटने और रोकने के लिए मौजूदा प्रक्रियाओं को स्थापित करने में व्याप्त संस्थागत उदासीनता की संस्कृति का मुकाबला करना होगा. अब समय आ गया है कि हम सभी संस्थानों में व्यापक लैंगिक ऑडिट करें और मौजूदा सरकार से तत्काल कार्रवाई की मांग करें. अब समय आ गया है कि हम मौजूदा सताधारियों से पूछें – वे इन महत्वपूर्ण सवालों पर कब तक जवाबदेही से बचते रहेंगे? चुप्पी और निष्क्रियता का समय बहुत पहले बीत चुका है – हमें सच्ची लैंगिक समानता और न्याय की दिशा में निर्णायक कदम उठाने की जरूरत है.
(मूल अंग्रेजी से अनुवाद : मनमोहन)