- इन्द्रेश मैखुरी
बीते दिनों उत्तराखंड के जोशीमठ ब्लाॅक के सुभाईं गांव का नाम चर्चाओं में आ गया. इस गांव के दलित परिवारों ने 15 जुलाई को जोशीमठ कोतवाली में आकर शिकायत दी कि एक धार्मिक आयोजन में ढोल न बजाने को लेकर उन पर गांव के सवर्ण लोगों ने पांच हजारा जुर्माना कर दिया, उनके सामाजिक बहिष्कार और गांव से तड़ीपार करने का प्रस्ताव भी पारित कर दिया. शिकायत में उन्होंने जातिसूचक शब्दों के प्रयोग का आरोप भी लगाया. इस मामले में पंचायत के वीडियो भी सोशल मीडिया में वायरल हुए हैं.
उक्त प्रकरण में जोशीमठ कोतवाली में मुकदमा दर्ज कर दिया गया है. गांव में पीएसी तैनात कर दी गयी है. इस बीच 18 जुलाई को जोशीमठ में पीड़ितों की ओर से एक महापंचायत भी आयोजित की गयी. 22 जुलाई को दलित संगठनों की ओर से सुभाईं में दलित उत्पीड़न के दोषियों पर कार्यवाही के लिए गोपेश्वर में प्रदर्शन किया गया.
एक आधुनिक समाज के तौर पर देखें तो ये बेहद हैरत में डालता है कि इस तरह की ‘खाप’ नुमा पंचायतें उत्तराखंड में काम कर रही हैं, जो ढोल न बजाने को इतना जघन्य अपराध मानती हैं कि पूरे दलित समाज का इसके लिए बहिष्कार करने पर उतारू हो जाती हैं और प्रस्ताव में बाकायदा ‘तड़ीपार’ जैसे शब्दों का प्रयोग करती हैं! उत्तराखंड के बारे में भले ही यह दावा किया जाता रहे कि यहां दलितों के साथ भेदभाव नहीं होता, लेकिन हकीकत यह है कि सुभाईं कोई अपवाद नहीं है बल्कि दलित उत्पीड़न या भेदभाव के सिलसिले की एक और कड़ी है. यह अलग बात है कि कुछ घटनाएं ज्यादा चर्चित हो जाती हैं और कुछ पर कम ही ध्यान जाता है.
पौड़ी के कल्जीखाल ब्लाॅक के थनुल गांव के एक दलित परिवार के पुत्रा एवं माता के साथ सवर्णों द्वारा 16 जून 2024 को मारपीट, गाली-गलौज और जातिसूचक शब्दों का प्रयोग किए जाने की घटना सामने आई. इस मामले में 27 जून 2024 को प्रादेशिक शिल्पकार कल्याण समिति ने जिलाधिकारी, पौड़ी को पत्र भेज कर कार्यवाही किए जाने की मांग की.
23 जून 2024 को द्वाराहाट के एक गांव में 19 वर्षीय दलित युवती को जबरन नशीला पदार्थ पिला कर बलात्कार की घटना सामने आई. इस मामले में पुलिस द्वारा आरोपी युवक को गिरफ्तार कर लिया गया है. इस मामले में अन्य युवकों के भी शामिल होने की आशंका पीड़िता के परिवार द्वारा जताई गयी.
29 जून 2024 को अल्मोड़ा जिले के ताड़ीखेत ब्लाॅक के दूरस्थ गांव में 14 वर्षीय दलित लड़की खेत में काम कर रही थी. वहां उसके साथ एक सवर्ण व्यक्ति द्वारा दुष्कर्म किया गया. इस मामले में युवती के पिता की तहरीर पर राजस्व पुलिस द्वारा आरोपी को गिरफ्तार कर लिया गया है.
10 जुलाई 2024 को चंपावत जिले के गुदमी गांव में राहत सामग्री बांटने गयी महिला ग्राम प्रधान के साथ कुछ लोगों की बहस हुई. इस दौरान उनके गले में जूतों की माला डाल दी गयी. महिला ग्राम प्रधान अनुसूचित जनजाति से हैं. उक्त घटना के वायरल वीडियो को देख कर साफ लगता है कि महिला प्रधान के गले में जूतों की माला डालने की घटना, योजना बना कर अंजाम दी गयी. वीडियो में साफ दिख रहा है कि एक कोने पर जूतों की माला छुपा कर रखी गयी है. जब महिला प्रधान बहस के बीच घटना स्थल से जाने लगती है तो एक महिला पीछे से जाकर महिला प्रधान के गले में जूतों की माला डाल देती है.
इस मामले में भी टनकपुर में एफ़आईआर दर्ज हुई है और जांच चल रही है. हालांकि यह मामला दलित उत्पीड़न का नहीं लेकिन कमजोर अनुसूचित जनजाति की महिला के उत्पीड़न का जरूर है. इसमें भी एक जातीय विद्वेष की झलक तो है ही!
एक-दो महीने के अंतराल पर हुई इतनी सारी दलित एवं कमजोर तबकों के उत्पीड़न की घटनाएं, उस दावे की धज्जियां उड़ाने के लिए पर्याप्त हैं, जिसमें कहा जाता है कि उत्तराखंड में जातीय भेदभाव और उत्पीड़न नहीं होता. इसमें 2016 में चक्की छूने के लिए बागेश्वर में दलित की शिक्षक द्वारा गला काट कर हत्या से लेकर, 2019 में जौनपुर के इलाके में शादी में दलित के कुर्सी पर बैठने के लिए पीट-पीट कर मार डाले जाने, चंपावत में दलित भोजनमाता के हाथ से सवर्ण बच्चों के खाना खाने से इंकार, 01 सितंबर 2022 को अंतरजातीय विवाह करने के लिए अल्मोड़ा जिले के भतरौजखान में राजनीतिक कार्यकर्ता जगदीश चंद्र की हत्या और दलित नाबालिग बच्चियों व युवतियों के साथ दुष्कर्म की कई घटनाओं को जोड़ लिया जाये तो तस्वीर और भी भयावह हो जाती है.
इसलिए सुभाईं की घटना कोई अलग-थलग घटना नहीं है बल्कि सवर्ण बहुल राज्य उत्तराखंड में जो जातीय भेदभाव और उत्पीड़न का सिलसिला है, उसका ही जारी रूप है. सुभाईं के ग्रामीण दलित उत्पीड़न के लिए होने वाली कानूनी कार्यवाही से भले ही नावाकिफ होने का दावा करें पर जातीय श्रेष्ठता का नकली बोध तो जन्म से ही रगों-नसों में दौड़ रहा होता है!
और हां, यह सारा मामला शुरू हुआ ढोल बजाने से इंकार करने से! कभी आपने सुना कि ब्राह्मण ने किसी जगह पूजा करने से इंकार किया तो उस पर जुर्माना हुआ, उसका सामाजिक बहिष्कार हुआ? तो फिर ढोल न बजाने के लिए ऐसा क्यूं होगा? क्यूंकि ढोल वाले के प्रति एक दासता का भाव है. उसके इंकार करने से इस भाव को, तथाकथित श्रेष्ठता को गहरी चोट पहुंचती है! अहम और अहंकार पर लगी चोट का नतीजा है - जुर्माना और सामाजिक बहिष्कार!
हमारे तथाकथित उच्च वर्णीय संस्कृतिकर्मी, ढोल के खत्म होने पर जब-तब भावविह्नल होते रहते हैं. लेकिन जिस दलित के गले में ढोल है, ना उसके जीवन के बोझ की चिंता, उनके सरोकार में आती है, ना ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी ढोल की रस्सी से छिले उसके कंधों पर उनकी नजर जाती है. ढोल बचे यह चिंता तो है, होती रहती है, चलती रहती है! लेकिन ढोल बजाने वाले की जिंदगी, उसकी पीढ़ियों का भविष्य सुधरे, संवरे, इसकी चिंता तो कहीं दूर-दूर तक नहीं है! ढोल की महिमा बखान करता हुआ ढोल सागर तो है लेकिन ढोल बजाने वालों की पीड़ा, व्यथा का वर्णन करने वाला कोई ग्रंथ है क्या कहीं? वो लिखा जाये तो जैसे कबीर गुरु गुण लिखने के मामले में कहते हैं ना कि ‘सात समुद्र की मसि करूं’, उसी तरह समुद्रों को स्याही बना कर लिखने से भी उस पीड़ा, उस बहिष्कृत व्यथा का बखान मुश्किल ही हो सकेगा!
उत्तराखंड में दलित उत्पीड़न की निरंतर जारी घटनाओं के बीच यह विचारणीय है कि आखिरकार इस आधुनिक दौर में भी कब तक हम जाति और जाति के नाम पर होने वाले भेदभाव को बर्दाश्त करते रहेंगे? जातीय श्रेष्ठता का नकली बोध हमारे समाज पर कदर हावी है कि संविधान के समानता के प्रावधान और कानून का भय इसके सामने बेअसर नजर आता है! इसका एक राजनीतिक पहलू यह भी है कि जैसे-जैसे धर्म की राजनीति ऊपर चढ़ती गयी, वैसे-वैसे दलित उत्पीड़न की घटनाओं में भी वृद्धि होती गयी.
लेकिन एक समाज के तौर पर अगर हमको वास्तव में तरक्की करनी है तो इस तरह की सड़ी-गली, पिछड़ी मूल्य-मान्यताओं से तो मुक्ति पानी ही होगी. इसके लिए संविधान और कानून तक भले मामला सीमित न रहे, लेकिन संविधान और संवैधानिक मूल्यों की कसौटी पर ही खरा उतरने लायक तो समाज को बनाना ही होगा. डाॅ. अंबेडकर के कथनानुसार ‘एक व्यक्ति-एक मूल्य’ तो स्थापित करना ही होगा. इसके लिए सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी निरंतर, अनवरत संघर्ष की जरूरत है.