वर्ष - 32
अंक - 29
15-07-2023

- अवनि चोकशी व क्लिफ्रटन डी रोजारियो

सहूलियत और जरूरत के मुताबिक प्रशासनिक कार्रवाइयों से अलग अदालती फैसले कानून पर आधारित होते हैं, अर्थात सही और गलत पर, और हमेशा चर्चा की सुर्खियों में रहते हैं. कानून शायद राजनीतिक संघर्षों के सभी हथियारों में सबसे घातक है, क्योंकि वह हक और इंसाफ के आभामंडल से घिरा  है. 
- फ्रांज न्यूमैन, बेहेमोथ

न्यायपालिका की आजादी संविधान की एक बुनियादी खासियत है और यह कार्यशील लोकतंत्र के लिए बेहद ही जरूरी है. यह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का अहम हिस्सा है, जिसका उद्देश्य राज्य की अन्य संस्थाओं की ज्यादतियों को रोकना है.

कार्यपालिका की ज्यादतियों के मसले पर संवैधानिक अदालतें, खास तौर से सर्वाेच्च न्यायालय की अधिकारिता संविधान की हिफाजत करना और शक्तियों के केंद्रीकरण को रोकना, जवाबदेही सुनिश्चित करना और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सुनिश्चित करना है. शक्तियों के पृथक्करण की इस संरचना के तीनों अंगों – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में एक दूसरे पर प्रभुत्व के लिए निरंतर संघर्ष की प्रवृत्ति होती है. आपातकाल के दौरान कार्यपालिका के नजरिये से असहमत न्यायाधीशों को बदल दिए जाने के बाद से भारतीय न्यायपालिका ने कई फैसलों के जरिये एक हद तक सरकारों को जवाबदेह ठहरा अपनी अहमियत जताई, पर 2014 में मोदी के सत्तासीन होने बाद पिछले 9 सालों में हम बड़े पैमाने पर न्यायपालिका के समझौतापरस्त रवैये के गवाह हैं.

घोषित और टाले गए फैसले 

सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2014 के बाद से दिए गए फैसलों के कुछ उल्लेखनीय अपवादों – जैसे संवैधानिक न्याय के इर्दगिर्द महिलाओं के अधिकारों, एलबीजीटीक्यूआईए+ अधिकारों, निजता के अधिकार आदि मामलों को छोड़कर, मोदी सरकार के एजेंडे के साथ न्यायिक मिलीभगत की तेज रुझान की पुष्टि होती है.

काले धन से लड़ने के मोदी का दावा थोथा साबित हुआ जब आयकर विभाग द्वारा कुख्यात बिड़ला और सहारा पेपर्स की जब्ती से रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार का खुलासा हुआ, जिसमें केंद्रीय मंत्रियों और राज्य सरकारों में मंत्रियों को किए जा रहे नियमित भुगतान की प्रविष्टियां भी शामिल थीं. काॅमन काॅज नाम के एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट का रुख कर जनहित याचिका दायर कर मांग की कि एक आपराधिक मुकदमा दर्ज कर जांच की निगरानी अदालत द्वारा की जाए. सुप्रीम कोर्ट ने एक असाधारण आदेश में सिर्फ मामले को ही खारिज नहीं किया, बल्कि यहां तक कहा कि उपलब्ध दस्तावेज अपराध की पुष्टि व मुकदमा दर्ज करने के लिए पर्याप्त नही है. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से बिड़ला और सहारा पेपर्स में किए गए रिश्वतखोरी के विस्फोटक दावों की किसी भी जांच पर रोक लग गई. राफेल सौदा मामले का भी यही हाल हुआ, जब सौदे में भ्रष्टाचार के आरोपों की अदालत की निगरानी में जांच की मांग को भी खारिज कर दिया गया.

शायद हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए सबसे विवादास्पद फैसलों में से एक जज लोया का मामला है. 2014 में जज बीएच लोया की संदेहास्पद परिस्थितियों में मौत हुई थी और वे  2005 में सोहराबुद्दीन शेख की तथाकथित मुठभेड़ में हत्या के मामले की सुनवाई कर रहे थे. उनकी मौत की स्वतंत्र जांच की मांग को लेकर एक याचिका दायर की गई थी. विशेष रूप से, जज लोया के परिवार ने उनकी मौत से जुड़ी परिस्थितियों पर सवाल उठाते हुए आरोप लगाया कि उन्हें आरोपी अमित शाह के पक्ष में फैसला देने के लिए 100 करोड़ रुपये की पेशकश की गई थी. वर्तमान सीजेआई जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ द्वारा दिए गए एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने स्वतंत्र जांच की इस याचिका को एक मिनी ट्रायल में बदल दिया और यह कहते हुए मामले को खारिज कर दिया कि जस्टिस लोया की मृत्यु प्राकृतिक कारणों से हुई थी. दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और भारत के विधि आयोग के पूर्व अध्यक्ष न्यायमूर्ति एपी शाह ने सार्वजनिक रूप से फैसले की निंदा करते हुए इसे ‘कई मायनों में पूरी तरह से गलत और न्यायिक रूप से गलत’ बताया.

ऐसा ही एक अहम फैसला भीमा कोरेगांव मामले में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की कथित तौर पर प्रतिबंधित भाकपा (माओवादी) से संबन्ध रखने और भीमा कोरेगांव में हिंसा भड़काने के फर्जी मुकदमे और गिरफ्तारी के खिलाफ था. सबूत अविश्वसनीय होने और अभियोजन पक्ष की कहानी स्पष्ट रूप से मनगढ़ंत होने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट की बहुमत पीठ ने आरोपों की जांच के लिए विशेष जांच दल (एसआईटी) गठित करने की याचिका खारिज कर दी. इस मामले में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने असहमतिपूर्ण राय देते हुए अब तक की गई जांच को दोषपूर्ण करार दिया था. इसके अलावा इस फैसले ने भीमा कोरेगांव के आरोपियों को लंबे समय तक कैद में रखने को बाध्य कर दिया है और गिरफ्तारी के पांच साल बीत जाने के बावजूद मुकदमा तक शुरू नहीं हुआ है. सच तो यह है कि अभी तक कई सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों की लंबे समय तक जेल से रिहा नही होना भी नागरिक स्वतंत्रता में कटौती को प्रदर्शित करता है.

बाबरी मस्जिद मामले में संवैधानिक पीठ के फैसले में मस्जिद का विध्वंस ‘कानून के शासन का गंभीर उल्लंघन’ था, लेकिन अवैध विध्वंस की इस आपराधिक कृत्य पर तथाकथित मान्यताओं को प्राथमिकता देते हुए बहुसंख्यक हिंदुओ को जमीन दे दी गई. तथ्य यह है कि शीर्ष अदालत का सुन्नी वक्फ बोर्ड को मस्जिद को स्थानांतरित करने की सलाह देते हुए मंदिर निर्माण के लिए पूरी जमीन सौंपने का फैसला तथ्यों और इंसाफ के तकाजे का त्याग कर आस्था को तरजीह देना है, और इस फैसले के संभावित परिणाम सांप्रदायिक अभियानों की बढ़ोतरी में नजर आते हैं.

महामारी के दौरान प्रवासी श्रमिकों के हितों की हिफाजत न कर पाने की सुप्रीम कोर्ट की विफलता भारतीय न्यायपालिका के सबसे काले पन्नों में से एक है. सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश गोपाल गौड़ा ने इसे सुप्रीम कोर्ट की सबसे बड़ी नाकामी कहा है.

जकिया जाफरी मामले में 2002 के गुजरात नरसंहार में मोदी की भूमिका पर एसआईटी की क्लीन चिट को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज करके सुप्रीम कोर्ट को और अधिक बदनामी का सामना करना पड़ा है. न्यायालय ने न केवल तीस्ता सीतलवाड को जकिया जाफरी को पीड़ा का फायदा उठाने के लिए दोषी ठहराया, बल्कि यह भी कहा कि उन्हें और दूसरों को भी गुजरात पुलिस के बयानों  का खंडन करने के उनके प्रयासों के लिए ‘कटघरे में’ खड़ा किया जाना चाहिए. और 24 घंटे के भीतर ही गुजरात आतंकवाद विरोधी दस्ते ने तीस्ता सीतलवाड, आरबी श्रीकुमार और अन्य के खिलाफ एफआइआर दर्ज कर ली और उन्हें गिरफ्तार कर लिया. सुप्रीम कोर्ट ने गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार के साथ भी ऐसा ही व्यवहार किया, जिन्होंने छत्तीसगढ़ में सुरक्षा बलों द्वारा आदिवासियों की मौत की स्वतंत्र जांच की मांग करते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया था. सुप्रीम कोर्ट ने अनुचित तरीके से आरोप लगाया कि उन्होंने सुरक्षा बलों पर झूठा आरोप लगाया है और उन पर 5 लाख रुपये का जुर्माना कर दिया.

सुप्रीम कोर्ट ने धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) पर अपने फैसले से नागरिक स्वतंत्रता पर किये जा रहे हमलों को बरकरार रखा है. इस फैसले में पहले असंवैधानिक करार किये पीएमएलए के कई कठोर प्रावधानों को बरकरार रखा गया है, जिसमें जमानत के लिए दोहरा परीक्षण भी शामिल है, साथ ही बेगुनाही के प्रमाण आरोपितों को खुद देने के प्रावधान ने प्रवर्तन निदेशालय के पास बेलगाम शक्तियों को मंजूरी दे दी, जिसमें आरोपी को एफआइआर की प्रति नहीं देने के साथ ही पूछताछ के दौरान दर्ज किए गए बयानों को उसके खिलाफ वैध सबूत के रूप में उपयोग करना शामिल है.

आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10% कोटा को बरकरार रखने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने अगड़ों को भी आरक्षण दे सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की संवैधानिक नीति को असरदार तरीके से  काफी कमजोर कर दिया. सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग, जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं, उन्हें आरक्षण का लाभ लेने की अनुमति नहीं है. इसका लाभ प्राप्त करने का मानदंड 67,000/- प्रति माह से कम की मासिक आय है – जो उत्पीड़ित समुदायों की वास्तविक गरीबी का मजाक है.

अदालत के ये फैसले  मौजूदा सरकार के नीतिगत नुस्खों और राजनीतिक एजेंडे से सहमति की मानसिकता की झलक देते हैं.

सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसलों की बात करते हुए हमें उन मामलों का भी उल्लेख करना होगा जिनमें निर्णयों को टाला गया है, जिसे संवैधानिक वकील गौतम भाटिया ने ‘न्याय की चोरी’ के बतौर संदर्भित किया है, जहां संवेदनशील समकालीन संवैधानिक चुनौतियां पेश करने वाली याचिकाओं पर राज्य की मंशा पूरी होने तक फैसला टाला जाता है. इस तरह से भाजपा की कर्नाटक सरकार की छात्राओं को हिजाब पहन स्कूल न आने देने [धर्म के आधार पर अलग नागरिकता प्रदान करने के लिए नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, अनुच्छेद 370] को निरस्त कर जम्मू और कश्मीर राज्य को बिना स्वयत्तता के जबरन दो केंद्र शासित प्रदेशों में बदलने, राजनीतिक दलों को गुमनाम काॅर्पाेरेट फंडिंग की अनुमति देने वाले चुनावी बांड के खिलाफ दायर याचिकाओं और कई अन्य मामलों को लंबित रख भाजपा को इन असंवैधानिक कृत्यों से फायदा पहुंचाया गया है. नोटबन्दी के मामले में गुण-दोष के आधार पर याचिका पर तब तक सुनवाई करने से बचा गया, जब तक यह मुद्दा महज अकादमिक महत्व का न हो गया और इस वजह से इंसाफ की बड़ी नाकामी को नजरअंदाज कर दिया गया.

न्यायिक नियुक्तियों के मामले में कभी समझौता तो कभी विवाद

संवैधानिक अदालतों में न्यायधीशों की नियुक्तियों का मामला एक जटिल झगड़े का अखाड़ा बन गई है. भाजपा सरकार जानबूझकर मौजूदा काॅलेजियम प्रणाली को दो तरीकों से कमजोर कर रही है – पहला, इसके मुद्दे के साथ सहानुभूति इजहार करने वालो को नियुक्त करने का प्रयास और दूसरा, केंद्र सरकार की आलोचना करने वाले नामों की सिफारिश को काॅलेजियम को वापस करके.

न्यायाधीशों की नियुक्ति में अहमियत को लेकर कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच खींचतान हाल की नहीं है. आजादी के बाद कार्यपालिका तय करती थी कि कौन न्यायाधीश बनेगा. कुछ छोटी-मोटी उठा-पटक के बाद 1973 में संघर्ष और बढ़ गया जब इंदिरा गांधी ने स्थापित परंपरा का उल्लंघन कर  तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों से इतर चौथे वरिष्ठ न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर दिया. इसके बाद न्यायमूर्ति एचआर खन्ना को एडीएम जबलपुर मामले में उनकी असहमति के लिए पद से हटा कर सजा दिया गया. कार्यपालिका की इन कार्रवाइयों से साफ पता चलता है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में सत्तासीन सरकार के प्रति उनकी आज्ञाकारिता के बीच स्पष्ट संबन्ध है.

जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका की सर्वाेच्चता 1993 तक कायम रही, जब तक सुप्रीम कोर्ट ने जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को काॅलेजियम प्रणाली के तहत अपने अधीन न कर लिया. काॅलेजियम प्रणाली में  वरिष्ठतम जजों का एक समूह संवैधानिक अदालतों में नए जजों की नियुक्ति करता है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह प्रणाली खामियों से भरी है – घोर भाई-भतीजावाद के साथ-साथ दलितों, अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों, महिलाओं और अन्य हाशिए के समूहों के प्रतिनिधित्व की कमी की वजह से न्यायपालिका शुरुआत से ही पुरुष प्रधान, उच्च वर्ग और  सवर्ण जाति की हिंदू संस्था बन गई है.

इस पृष्ठभूमि में भी न्यायपालिका पर हावी होने की मोदी सरकार की कोशिश न्यायिक स्वतंत्रता के लिए और अधिक विनाशकारी साबित होगी. सत्ता में आने पर मोदी सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम लाकर न्यायपालिका पर नियंत्रण करने का प्रयास किया था, जिसे सर्वाेच्च न्यायालय ने असंवैधानिक करार देकर रोक दिया था.

मोदी के सत्ता संभालने के तुरंत बाद पूर्व साॅलिसिटर जनरल गोपाल सुब्रमण्यम का नाम पदोन्नति के लिए काॅलेजियम ने सुझाया था जिसे सरकार ने वापस कर दिया. वह कई मामलों में सुप्रीम कोर्ट में एमिकस थे और उन्होंने सोहराबुद्दीन, कौसर बी और तुलसीराम प्रजापति फर्जी मुठभेड़ मामलों में कड़ा रुख अपनाया था, जिसमें अमित शाह पर आरोप पत्रा दायर किया गया था. मोदी सरकार द्वारा सर्वाेच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में उनकी नियुक्ति से इनकार करने के बाद, उन्होंने यह कहते हुए पदोन्नति के लिए सहमति वापस ले ली कि ‘मैं पूरी तरह से सचेत हूं कि एक वकील के रूप में मेरी स्वतंत्रता यह आशंका पैदा कर रही है कि मैं सरकार की बात नहीं मानूंगा. यह पहलू मुझे नियुक्त करने से इनकार करने में निर्णायक रहा है.’

काॅलेजियम प्रणाली में इस तरह की दरारों का एक और प्रमुख उदाहरण न्यायमूर्ति अकील कुरेशी का है, जिन्हें वरिष्ठता और योग्यता में दूसरों से ऊपर होने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत हुए बिना ही सेवानिवृत्त होना पड़ा. न्यायमूर्ति कुरैशी बेहद स्वतंत्र थे और उन्होंने वास्तव में 2010 में सोहराबुद्दीन शेख फर्जी मुठभेड़ मामले में वर्तमान केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को पुलिस हिरासत में लिए जाने का निर्देश दिया था. उन्हें खुले तौर पर निशाना बनाया गया, सबसे पहले उन्हें गुजरात उच्च न्यायालय का कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश बनने से रोकने के लिए बाॅम्बे उच्च न्यायालय में स्थानांतरण किया गया, फिर मोदी सरकार ने उन्हें मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने की काॅलेजियम की सिफारिश का पालन करने से इनकार कर दिया. स्पष्ट रूप से न्यायपालिका ने झुकते हुए त्रिपुरा उच्च न्यायालय में उनकी नियुक्ति की सिफारिश की. तमाम वरिष्ठता के बावजूद उन्हें सुप्रीम कोर्ट में जज के बतौर पदोन्नत नहीं किया गया.

दिल्ली उच्च न्यायालय के मौजूदा न्यायाधीश न्यायमूर्ति मुरलीधर को उसी दिन आधी रात को पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में स्थानांतरण का सामना करना पड़ा, जिस दिन उन्होंने नफरत भरे भाषणों के लिए तीन भाजपा नेताओं के खिलाफ एफआइआर दर्ज करने में विफल रहने के लिए दिल्ली पुलिस की खिंचाई की थी, जिसके कारण दिल्ली में दंगे हुए थे.

हाल ही में मोदी सरकार ने उच्च न्यायालयों में जज पद के लिए अनुशंसित तीन अधिवक्ताओं की नियुक्ति रोक दी है. बाॅम्बे हाई कोर्ट के वकील सोमशेखर सुंदरेसन को अभी तक केवल इस वजह से नियुक्त नहीं किया गया है कि उन्होंने कथित तौर पर मोदी की आलोचना वाला एक लेख साझा किया था. मद्रास उच्च न्यायालय के वकील जाॅन सथ्यन को नियुक्त नहीं किया गया है क्योंकि वह कथित तौर पर मोदी सरकार की नीतियों के आलोचक हैं. दिल्ली उच्च न्यायालय के वकील सौरभ किरपाल के मामले में उनकी नियुक्ति रोकने की वजह उनकी यौन अभिरुचि और समलैंगिकों के अधिकारों के प्रति प्रतिबद्धता है. वास्तव में, काॅलेजियम द्वारा मोदी सरकार की ओर से उठाई गई आपत्तियों को खारिज कर फिर से उनके नामों की सिफारिश की, जिसके बावजूद नियुक्ति प्रक्रिया को रोका जा रहा है.

दूसरी तरफ, भाजपा महिला मोर्चा की महासचिव विक्टोरिया गौरी को मद्रास उच्च न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया और उनकी नियुक्ति को चुनौती देने वाली याचिका खारिज कर दी गई है.

सेवानिवृत्ति के बाद लाभ

आज सेवानिवृत्ति बाद की नियुक्तियां आदर्श बन गयी हैं – खासतौर से सर्वाेच्च न्यायालय में मोदी सरकार की नीतियों और संघ परिवार के एजेंडे की हिफाजत करने वाले फैसले देने वाले सेवानिवृत्त न्यायाधीशों के लिए.

‘एक नजरिया है कि सेवानिवृत्ति के बाद नियुक्ति न्यायपालिका की न्यायिक स्वतंत्रता पर एक धब्बा है’, जैसे बयान देने वाले भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने अपनी सेवानिवृत्ति के ठीक चार महीने बाद भाजपा सरकार द्वारा राज्यसभा के लिए नामांकन स्वीकार कर लिया. अपने कार्यकाल के दौरान वह कई फैसलों से जुड़े  थे, जिनसे मोदी सरकार को फायदा हुआ, इनमें बाबरी मस्जिद विध्वंस मामला, राफेल सौदा मामला और सबसे महत्वपूर्ण असम एनआरसी फैसला शामिल था.

सेवानिवृत्ति के बाद नियुक्ति पाने वाले एक अन्य लाभार्थी  मानवाधिकार आयोग के मौजूदा अध्यक्ष जस्टिस अरुण मिश्रा रहे हैं, जिन्होंने जज रहते हुए सरकार का पक्ष लेने वाले फैसले दिए थे. उन्हें नियुक्त करने के लिए मोदी सरकार ने मानवाधिकार अधिनियम-1993 में संशोधन करने तक चली गई. मोदी शासन के पक्ष में निर्णय लेने के अलावा अरुण मिश्रा सार्वजनिक रूप से मोदी को ‘अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित दूरदर्शी और विश्व स्तर पर सोचने वाला और स्थानीय स्तर पर काम करने वाला एक बहुमुखी प्रतिभा वाला व्यक्ति’ घोषित करने के लिए भी बदनाम हैं.

नवीनतम लाभार्थी न्यायमूर्ति अब्दुल नजीर हैं, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त होने के केवल 39 दिन बाद ही आंध्र प्रदेश के राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया गया है. न्यायमूर्ति नजीर उन फैसलों से जुड़े रहे हैं जिसमें कार्यपालिका के पक्ष में एक मजबूत रुझान प्रदर्शित होता है, जिसमें बाबरी मस्जिद विध्वंस और नोटबन्दी के मामलों के अलावा मंत्रियों के हेट स्पीच के मामले में सरकार को परोक्ष रूप से उत्तरदायी  नहीं ठहराए जाने का फैसला भी शामिल है.

निष्कर्ष

आज जब फासीवाद हमारे चारों ओर दस्तक दे रहा है, तब न्यायपालिका भी गहन जांच-पड़ताल की मांग करती है. वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने हाल के एक व्याख्यान में इस बात पर गंभीर चिंता व्यक्त की कि कैसे मौजूदा हुकूमत के जरिये संविधान में संशोधन किए बिना ही मूल संवैधानिक मूल्यों को बदला जा रहा है, और बड़े ही चुभते शब्दो में इसे संविधान की अनदेखी और अस्वीकृति की दिशा में उठा कदम बताया.

हाल के दिनों के  कुछ अदालती फैसले, ‘नेशनल लाॅ स्कूल ऑफ इंडिया’ के पूर्व कुलपति प्रोफेसर मोहन गोपाल के संदेह की पुष्टि करते हैं कि न्यायालयों को ‘मजहबी जजों’ से भरा जा रहा है जो संविधान की हिंदू संविधान के रूप में विकृत व्याख्या करते हैं. यहां हमें आरएसएस के अधिवक्ता संगठन अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद (एबीएपी) के संगठित कोशिशों को देखना चाहिए कि किस तरह से उन्हीं ने पहले अपनी विचारधारा के लिए कानूनी बिरादरी के बीच सहमति जुटाने और यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया कि इसके एजेंडे से हमदर्दी जताने वाले लोग संवैधानिक अदालतों में हों. न्यायपालिका को तहस-नहस करने के इन ठोस प्रयासों से मुकाबला करना होगा, ताकि संविधान सभा में अंबेडकर के मशहूर ऐलान की हिफाजत की जा सके कि बिना भय या पक्षपात के इंसाफ देने  के लिए न्यायपालिका की आजादी निहायत ही जरूरी है.