27/28 सितंबर को शहीदे-आजम भगत सिंह का जन्मदिन मनाया जाता है. अपने साथियों सुखदेव और राजगुरु के साथ शहादत के नौ दशक बाद भी वे आज भारत ही नहीं, पूरे उपमहाद्वीप के सर्वमान्य हीरो हैं और जिस महासंकट से हम घिरे हुए हैं, उसमें उनके विचार आज और भी अधिक प्रासंगिक हो गए हैं.
हर साल की तरह इस बार भी हुक्मरानों द्वारा उन्हें रस्मी श्रद्धांजलि दी जाएगी और उनकी वीरता, साहस और देशभक्ति की तारीफ की जाएगी. लेकिन जो बात नहीं बताई जाएगी, वह यह है कि वे कौन से विचार और आदर्श थे जिनके लिए उन्होंने अपना जीवन न्यौछावर किया, उनके लिए आज़ादी और देशभक्ति का अर्थ क्या था और कैसे वह उनके अनेक समकालीनों तथा आज के हुक्मरानों से अलग था.
आज उन्हें चाहने वालों के ऊपर सबसे बड़ी जिम्मेदारी उस असली भगत सिंह की रक्षा करना है, जिनके क्रांतिकारी विचारों से डर कर ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने उन्हें भौतिक रूप से खत्म करने में अपनी भलाई समझी, और आजादी के बाद देश के नए शासक वर्ग ने भी यथासम्भव उनके विचारों को दबाने और जनता से छिपाने की कोशिश की.
पिछले 2-3 वर्षों में उनके जन्मदिन तथा शहादत दिवस पर श्रद्धांजलि देते हुए प्रधानमंत्री मोदी द्वारा कही गयी बातों को याद करिए –
‘उनकी वीरता और पराक्रम की गाथा लोगों को युगों युगों तक प्रेरित करती रहेगी’, ‘केवल 23 वर्ष की उम्र में उनकी पफांसी ने उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन के उल्लेखनीय नायकों में से एक बना दिया’, ‘वह हर भारतीय के दिल में रहते हैं. उनके साहस, बलिदान ने अनगिनत लोगों के बीच देशभक्ति की चिंगारी प्रज्वलित की. मैं उनके महान आदर्शों को याद करता हूँ’, ‘उन्होंने एक मिशन के लिए सर्वाच्च बलिदान दिया – अन्याय और ब्रिटिश शासन से छुटकारा पाने के लिए’, ‘वे न केवल बहादुर बल्कि जानकार व विचारक भी थे. उन्होंने टीम वर्क के महत्व को समझा, चाहे वह लाला लाजपत राय के प्रति समर्पण हो अथवा चन्द्रशेखर आज़ाद, सुखदेव जैसे क्रांतिकारियों का साथ.’
गौरतलब है कि इन सारी ‘उदात्त’ टिप्पणियों में जो बात सिरे से गायब है, वह है भगत सिंह के विचार और आदर्श! इनसे आप बिल्कुल नहीं समझ सकते कि आखिर वह कौन सी वैचारिक दृष्टि और राजनीतिक समझ थी जिसने भगत सिंह को भगत सिंह बनाया.
उनके टीम वर्क की बात करते हुए मोदी जी यह नहीं बताते कि देश के क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास में भगत सिंह का विशिष्ट योगदान यह है कि उसको उन्होंने वैचारिक-राजनीतिक दिशा दी एचआरए के नाम में जो आर्मी शब्द था, उसे उन्होंने बदलकर एसोसिएशन किया, उसे एक सैन्य संगठन की बजाय एक राजनीतिक संगठन के रूप में कंसीव किया, और सबसे महत्वपूर्ण यह कि उसके नाम में सोशलिस्ट शब्द जुड़वा कर समाजवाद की स्थापना को क्रांतिकारियों का लक्ष्य घोषित किया. हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी (एचआरए) को उन्होंने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) बना दिया.
भगत सिंह के लिए जो आजादी का ध्येय था – समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष राज्य, इन दोनों से कितनी नफरत है संघ-भाजपा को, इसका इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि वे संविधान के प्रस्तावना (च्तमंउइसम) से इसे हटाने के लिए जोर लगाए हुए हैं. (इस नाम पर कि इसे इंदिरा गांधी ने आपातकाल में संविधान में जोड़ दिया था!)
मोदी जी यह नहीं बताते कि साम्प्रदायिकता को भगत सिंह हमारे देश और समाज के लिए उपनिवेशवाद जैसा ही विराट खतरा मानते थे और उसके खिलाफ प्राणपण से आखिरी सांस तक लड़ते रहे. उन्होंने अपने संगठन में किसी भी साम्प्रदयिक संगठन से जुड़े व्यक्ति के प्रवेश पर रोक लगा दी थी. मोदी जी लाजपत राय के लिए उनके समर्पण की बात करते हैं पर यह नहीं बताते कि जब लाजपत राय के अंदर साम्प्रदायिक रुझान दिखे, तब भगत सिंह ने उनकी कटु आलोचना में उतरने में लेशमात्र भी संकोच नहीं किया और उन्हें वर्ड्सवर्थ के लिए रॉबर्ट ब्राउनिंग द्वारा प्रयुक्त ‘जीम स्वेज स्मंकमत’ की संज्ञा से विभूषित किया.
वे यह नहीं बताते कि भगत सिंह जिन मूल्यों के लिए लड़े और अंततः शहादत का वरण किये, आज संघ-भाजपा उसके ठीक विपरीत ध्रुव पर खड़े हैं और उन सारे विचारों, मूल्यों और आदर्शों की हत्या कर देने पर अमादा हैं.
भगत सिंह जहां साम्राज्यवाद विरोध, सांप्रदायिकता विरोध, सामंतवाद-ब्राह्मणवाद विरोध तथा वैज्ञानिक सोच-तार्किकता एवं मजदूर-किसान राज के प्रतीक हैं, वहीं मोदी राज साम्राज्यवादपरस्ती, साम्प्रदायिक फासीवाद, विज्ञान विरोधी अंध आस्था, प्रतिक्रियावादी सोच तथा कारपोरेट राज का प्रतीक है.
मोदी जी का यह आरोप कि नेहरू जी कभी जेल में भगत सिंह से मिलने नहीं गए अथवा संघ द्वारा बहुप्रचारित यह अफवाह कि गांधी जी ने उन्हें छुड़ाने के लिए कुछ नहीं किया, ये दोनों तो तथ्यों की रोशनी में खारिज हो चुके हैं, लेकिन यह इतिहास का एक दस्तावेजी सच है कि संघ के संस्थापक हेडगेवार ने युवाओं को भगत सिंह के साथ जाने से रोकने की व्यक्तिगत स्तर पर कोशिश की थी. इसे देवरस ने स्वयं लिखा है, जो बाद में संघ के सरसंघचालक भी बने.
यह अनायास नहीं है कि आज कर्नाटक की भाजपा सरकार स्कूली पाठ्यक्रम में भगत सिंह का चैप्टर निकाल कर संघ प्रमुख हेडगवार का भाषण शामिल करती है या हरियाणा के भाजपाई मुख्यमन्त्री खट्टर चंडीगढ़ एयरपोर्ट का नाम भगत सिंह की बजाय आरएसएस प्रचारक मंगल सेन के नाम कर देते हैं, जबकि भगत सिंह के नाम के लिए विधानसभा से सर्वसम्मत प्रस्ताव पास हो चुका था.
यह हमारी आजादी की लड़ाई और शहीदों का कितना बड़ा अपमान है कि हाल ही में एक ‘माननीय’ सांसद ने भगत सिंह को आतंकवादी कहा, फिर भी वे बकायदा आजाद भारत की संसद के सदस्य बने हुए हैं. भगत सिंह को लेकर धार्मिक कट्टरपंथी, खालिस्तान समर्थक सिमरनजीत सिंह मान की नफरत तो समझ में आती है क्योंकि भगत सिंह आजीवन कट्टरपंथ के खिलाफ लड़ते रहे थे, परन्तु ‘महान राष्ट्रवादी’ सरकार इस पर क्यों चुप रही?
मान के विरुद्ध पार्टियों की रस्मी बयानबाजी छोड़ दिया जाये तो मोदी सरकार की ओर से इस पर कोई राजनीतिक प्रतिवाद नहीं दिखा. दरअसल, राजनीतिक मजबूरी में भले संघ-भाजपा या मोदी जी भगत सिंह की तारीफ करते हैं, असलियत में तो यह निजाम भगत सिंह के विचारों के खिलाफ ही खड़ा है. इसीलिए एक ओर उनकी देशभक्ति और वीरता की तारीफ दकी जाती है, दूसरी ओर उनके विचारों पर चलने वालों को, उनके आज के वारिसों को आतंकवादी और देशद्रोही बताकर जेल के सींखचों में बंद किया जाता है.
इस कॉरपोरेट साम्प्रदायिक फासीवादी निजाम के खिलाफ लड़ने वाले ही आज भगत सिंह के सच्चे वारिस हैं जिनका सपना ऐसी आजादी थी ‘जहां आदमी के द्वारा आदमी के शोषण का अंत हो जाये.’
जल-जंगल-जमीन बचाने के लिए लड़ते आदिवासी, हमारे राष्ट्रीय संसाधनों और कृषि पर कारपोरेट कब्जे के खि़लाफ लड़ते किसान-मेहनतकश, शिक्षा और रोजगार के अधिकार के लिए लड़ते छात्रा-युवा, जाति-उत्पीड़न के खिलाफ लड़ते दलित-वंचित, पितृसत्ता के खिलाफ लड़ती महिलाएं, साम्प्रदायिक फासीवादी दमन के खिलाफ लड़ते धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्र और नागरिक अधिकारों के योद्धा ही आज शहीदे आज़म भगत सिंह के सपने के सच्चे वाहक हैं.
यह अनायास नहीं है कि इस लड़ाई के योद्धा आज मौजूदा निजाम के निशाने पर हैं और उनमें से अनेक राजद्रोह जैसे उन्हीं काले कानूनों के तहत बंद हैं जिसके तहत अंग्रेज कभी क्रांतिकारियों को सजा देते थे. सुप्रसिद्ध पत्रकार पी साईंनाथ के शब्दों में आजादी के अमृत-महोत्सव वर्ष में आजादी के नारे लगाने वाले आज जेल में हैं. सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, आनन्द तेलतुंबड़े, वरवर राव, तीस्ता सीतलवाड, उमर खालिद जैसे अनगिनत लोगों को सजा दी गयी, उनका अपराध केवल इतना है कि वे भगत सिंह के सपने के अनुरूप 1947 में मिली आजादी को मुकम्मल बनाने तथा राजनीतिक लोकतन्त्र को सामाजिक-आर्थिक लोकतन्त्र बनाने के लिए लड़ रहे हैं, जो चाहते हैं कि आजादी का विस्तार हो, वर्गीय शोषण, जाति-उत्पीड़न, पितृसत्ता, सांस्कृतिक-भाषाई वर्चस्व समेत दमन के हर रूप से देश के प्रत्येक नागरिक को आजादी मिले.
आज देश को कॉरपोरेट साम्प्रदायिक फासीवाद के शिकंजे से बचाने की लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाना और भगत सिंह के सपनों का मजदूर-किसान राज बनाने की राह प्रशस्त करना ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
– लालबहादुर सिंह