- गेल ओम्बेट
समानांतर सरकार का गठन: अगस्त 1942 से लेकर जून 1943 तक
9 अगस्त: ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन में प्रसिद्ध ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव ग्रहण किये जाने के चंद घंटों बाद ही औपनिवेशिक राज्य तंत्र राष्ट्रवादी आन्दोलन के नेताओं पर टूट पड़ा. लेकिन शीर्षस्थ नेताओं की गिरफ्तारी से भारत में सबसे बड़ा जन विद्रोह उभर पड़ा.
उसके बाद जो मार्च निकले, हमले और तोड़-फोड़ हुए और यहां-वहां जो भूमिगत कार्रवाइयां चलीं, उन्हें ‘स्वतःस्फूर्त क्रांति’ कहा गया है. लेकिन अपनी तमाम हिंसाओं के साथ यह ऐसी क्रांति थी जो गांधी के प्रत्यक्ष नेतृत्व में न चलते हुए भी खुद उनके द्वारा शुरू की गई थी. क्योंकि अगस्त 1942 के पहले के वर्ष में गांधी ने संभावित जापानी आक्रमण के खिलाफ आत्मरक्षार्थ हिंसा को जायज ठहराते हुए खास बयान दिये थे, अल्कि उन्होंने ब्रिटिश शासन के प्रति अपनी नैतिक भर्त्सना इस प्रकार जाहिर करने लगे थे जिससे यह संकेत मिलता था कि उसके खिलाफ ऐसे तरीके भी इस्तेमाल किये जा सकते हैं. जन समुदाय की मानसिकता लगातार जुझारू होती जा रही थी, एक सच्चे रैडिकल आन्दोलन के लिए वामपंथियों की तरफ से दबाव बढ़ता जा रहा था, और धीरे-धीरे गांधी ऐसे सत्याग्रह अभियान की तैयारी करने लगे थे जिसके बारे में कांग्रेस की पांतों में यकीन हो चला था कि वी अभियान अबतक का सबसे बड़ा अभियान होगा – एक ‘खुला विद्रोह’ होगा जिसमें हर ज्ञात तरीके और कुछ नए तरीके भी इस्तेमाल किए जाएंगे. तमाम सरकारी एजेंसियों का बहिष्कार, राजस्व न देना, सामूहिक नागरिक अवज्ञा, सरकारी नौकरशाही और सैन्य कर्मियों पर अपने पदों से इस्तीफा देने के लिए अहिंसक दबाव डालना, संचार साधनों में ‘शांतिपूर्ण’ अवरोध्, तथा समानांतर सरकारों का गठन – इन सभी बातों उल्लेख था, हालांकि इसके लिए कोई आधिकारिक कार्यक्रम नहीं पेश किया गया था. नेताओं की गिरफ्तारी से ऐसे जन अभियान के लिए नेतृत्व की संभावना खत्म हो गई थी. लेकिन विद्रोही तेवर वाली जनता को (और सतारा के भूमिगत कार्यकर्ताओं को भी) दो बुनियादी बातें अच्छी तरह याद थीं: ‘करेंगे या मरेंगे, और हर किसी को अपना खुद का नेता बन जाना है’. और, इतना ही काफी था. नतीजा यह हुआ कि सतारा के भूमिगत कार्यकर्ताओं ने न केवल गांधी के नाम पर कार्रवाइयां संचालित कीं, बल्कि वे अबतक दावा करते रहे कि वे लोग दरअसल ‘गांधी के रास्ते’ पर ही चल रहे हैं – और उन्होंने तार काटे, ट्रेन लूटे, राइफलें छीनीं, पुलिस और डकैतों के साथ बंदूकों से लड़ाइयां कीं, जनता की अदालतों में दोषी पाए जाने वाले जजों को पीटा और 1944 में उन्होंने गांधी द्वारा जाहिर की गई इस इच्छा का पालन करने से इन्कार कर दिया कि वे आत्मसमर्पण कर दें.
यह गौरतलब है कि शहरों में और उत्तर भारत में तत्काल ही विक्षोभ फूट पड़ने के कुछ समय बाद सतारा में कार्रवाइयां शुरू हुईं. इससें संकेत मिलता है कि हरकत में आने को तैयार वहां का जन समुदाय नेतृत्व की ओर से स्पष्ट कार्यक्रम और इशारे का अथवा शायद नेतृत्व के सामने आने का इंतजार कर रहा था. अप्पासाहब लैड लिखते हैं कि जब लोग ये पढ़ते थे कि बिहार में ब्रिटिश सत्ता ध्वस्त हो गई है तो उनका तत्काल जवाब होता था: ‘हालांकि अब वहां सरकार खत्म हो गई है, फिर भी जनता की रोजमर्रे की समस्याएं कम नहीं हुई हैं. हालांकि सरकारी अदालतें लुप्त हो गई हैं, लेकिन जिन मसलों को लेकर लोग अदालतों में जाते हैं, वे कम नहीं हुए हैं. हालांकि जनता ने पुलिस को झुका दिया है, लेकिन परंपरागत अपराधी अभी भी मौजूद हैं’. वर्षों बाद लिखे गए संस्मरणों को उस समय की जन चेतना का सही विवरण समझ लेना खतरनाक होगा. घटना क्रम और गतिविधियों के लिखित साक्ष्य संकेत करते हैं कि वैकल्पिक सत्ता बनाने के कतिपय विचार वहां शुरू से ही मौजूद थे; गांव स्तर पर कार्यकर्ता आन्दोलन की जरूरतों से उनपर बने दबाव और विभ्रम से प्रेरित होकर ही इन विचारों को अमल में ला रहे थे. जिस तरह से खुली जन कार्रवाइयां भूमिगत विध्वसों और जनता की अदालतों के गठन में विकसित हुईं, उसमें यह प्रक्रिया स्पष्ट देखी जा सकती है.
शीर्षस्थ कांग्रेसी नेताओं की गिरफ्तारी के बाद, बचे रह गए सतारा प्रतिनिधि बंबई में मिले – इनमें शामिल थे वाइबी चह्वाण, रमानंद स्वामी, विट्ठलराव पागे और वसंतदादा पाटिल – और फिर सतारा लौटकर उन्होंने करद में दो-दिनी बैठक की. इनमें से कुछ लोगों का भूमिगत समाजवादियों से संपर्क था. करद की बैठक में दो संगठन बनाने का फैसला लिया गया – एक तो भूमिगत ग्रुप और दूसरा खुला सत्याग्रह ग्रुप. लेकिन शुरू में यह संगठन उस संगठन जैसा लगता ही नहीं था जिसने समानांतर सरकार बनाई थी – न तो व्यक्तियों के रूप में जो नेता के बतौर बचे रह गए थे, और न बुनियदी कार्यक्रम पेश करने के ही लिहाज से. कार्रवाहियों की पहली लहर, जैसे कि तालुकों और अन्य सरकारी केंद्रों पर जनता के मार्च, सच कहिये तो सत्याग्रह थे ही नहीं. वे मूलतः शत्रुओं पर नैतिक दबाव बनाने के लिए अहिंसक प्रयास नहीं थे; जैसा कि एक कार्यकर्ता ने कहा, उनका लक्ष्य था ‘ब्रिटिश सत्ता के केंद्रों पर कब्जा करना’. लोग भालों, कुल्हाड़ियों और अन्य घरेलू हथियारों के साथ आते थे और वे सरकारी दफ्तरों पर चढ़ बैठते थे, इस ख्याल से कि वे अपने हाथों से औपनिवेशिक सत्ता को खत्म कर देंगे और वे खुद उसकी जगह ले लेंगे. 24 अगस्त और 10 सितंबर के बीच ऐसे चार मार्च निकाले गए थे – करद (लगभग 4000 लोग), तसगांव (8000), वाडुज (700) और इस्लामपुर (5000 लोग). लेकिन जब फयरिंग से वाडुज में नौ तथा इस्लामपुर में दो लोग मारे गए, तो सत्ता दखल करने का भ्रम स्वभाविक रूप से खत्म हो गया और नेतागण अपने कार्यक्रम की नादानी को महसूस करने लगे: ‘हमारा विचार था हजारों की तादाद में इकट्ठा होना, कचहरी जाना, यूनियन जैक को उतार देना और राष्ट्रीय ध्वज फहरा देना, मामलेदार और फौजदार को गांधी टोपी पहना देना और फिर घर लौट आना! लेकिन फायरिंग हो गई, और जब हम वापस लौटे तो पुराना झंडा फिर लग गया!’
जब आमने-सामने का हमला सफल नहीं हुआ, तो तोड़फोड़ मचाना ही अगला कदम रह गया. और यह भी काफी जल्द शुरू हो गया. – तार काटे जाने लगे और 16 अगस्त तथा 10 सितंबर को दो ट्रेन लूटी गईं. कुछ समय के लिए आन्दोलन ऐसी ही कार्रवाइयों पर केंद्रित रहा, और उसे जन कार्रवाइयों की ही तरह सिर्फ दबाव पैदा करने अथवा सरकार को हैरान-परेशान करने की कार्यनीति के बतौर नहीं, बल्कि सत्ता जीतने की ओर बढ़ते कदम के बतौर उचित समझा जाता था. अगर क्रांतिकारी लोग ब्रिटिश सत्ता केंद्रों पा कब्जा नहीं कर सकते थे, तो वे उन संपर्क-साधनों को जरूर तोड़ सकते थे जिसके जरिये ये शहरी केंद्र भारत की हृदय-स्थली, यानी कि गांवों, से जुड़़ते थे. इसीलिए तोड़फोड़, तार काटने, गांवों में पीडब्ल्यूडी के भवनों और अन्य सरकारी मकानों को जलाने, सैन्य पुलिस से राइफलें छीन लेने और हथियारबंद पुलिस के साथ कभी-कभार झड़पें जैसी अनेक कार्रवाइयां हुईं. 1 नवंबर को किसन वीर और पांडु मास्टर यर्वदा में जेल तोड़ कर फरार हो गए – बाद में वे आन्दोलन के नेता भी बने. शिरालापेठ में किसानों ने जंगल की जमीन पर कब्जा करना शुरू कर दिया, और भूमिगत कार्यकर्ताओं ने पुलिस पाटिल से इस्तीफा मांगने का पुराना कार्यक्रम फिर शुरू कर दिया.
लेकिन तोड़फोड़ के इस कार्यक्रम ने एक नया संकट पैदा कर दिया और आन्दोलन दोराहे पर आकर खड़ा हो गया. सरकार ने दमन ढाना शुरू कर दिया – गांवों पर सामूहिक जुर्माने लगाये गए और गिरफ्तारियों की वजह से 1942 के अंत तक सतारा के लगभग 2000 लोग जेल में बंद हो गए. ‘तोड़फोड़ के बावजूद यह स्पष्ट हो गया कि बरतानवी हुकूमत मजबूत ही बनी हुई है. ब्रिटिश पुलिस और उसके एजेंट, गांव में उसके लोग (पाकटल, वतनदार और सावकार) का मनोबल मजबूत होने लगा. पहले तो जनता हमारे पक्ष में थी, लेकिन 1943 की शुरूआत में वे डर गए थे और वे सोचने लगे कि ब्रिटिश शासन खत्म नहीं होने वाला है और इसीलिए वे हमें पकड़वाने में पुजिस की मदद करने लगे’.
इसका समाधान यही था कि गांव स्तर पर ही स्थानीय एजेंटों पर प्रहार करके राज्य सत्ता को वहां से काट दिया जाये. एक कुंदल नेता के अनुसार, ‘जब भागने के बजाय हम मुड़कर अपना पीछा करने वालों के खिलाफ अपने हथियार इस्तेमाल करने लगे तो समानांतर सरकार की सच्ची शुरूआत हो गई. एक नए किस्म का स्वतंत्रता आन्दोलन शुरू हो गया. हुआ यह कि भूमिगत कार्यकर्ता पुलिस के मुखबिरों (जो प्रायः गांव स्तर के अधिकारी अथवा कुलीन सावकारों के आदमी होते थे) पर शारीरिक हमले करने लगे. शिराला ग्रुप के कार्यकर्ताओं ने सबसे पहले ऐसा करना शुरू किया. 25 नवंबर को शितूर की एक बैठक में उन्होंने अपने शब्दों में ‘राज्य मशीनरी’ का गठन किया, लोगों के बीच प्राथमिक स्तर का श्रम विभाजन करके उन्हें ‘पुलिस’ और ‘राजस्व’ महकमे आबंटित किए गए, तथा नवंबर और दिसंबर माह में ‘पुलिस प्रशासन’ के दो अधिनियम बनाए गए और मुखबिरों को सजा देने के लिए जनता की ‘अदालतें’ गठित की गईं. जो तरीका यहां अपनाया गया, वह सभी जगह प्रचलित हो गया, और इस तरीके को पत्र लवना कहा जाता था. पत्र लवना का मतलब होता है घोड़े के पांवों में नाल ठोंकना. असल में किया यह जाता था कि मुखबिरों को बांध् कर पैरों में इतना मारा जाता था कि वे कम से कम कुछ दिनों के चल-फिर नहीं पाते थे. इससे सतारा की समानांतर सरकार की चर्चा चारों ओर फैल गई, औा उस वक्त कार्यकर्ता हिंसा-अहिंसा को लेकर कुछ भी नहीं सोचते थे, क्योंकि वे कहते थे कि ‘हम मुखबिरों के मन में आतंक पैदा करना चाहते थे.’
कुंदल इलाके में इस तरह की प्रक्रिया 1943 की पहली तिमाही में शुरू हुई और यहां भी वेसा ही नतीजा निकला: न केवल पुलिस की ओर से पड़ने वाला दबाव खत्म हुआ, बल्कि अब लोग खुद ही अपनी सामाजिक और आर्थिक समस्याओं के निराकरण के लिए कार्यकर्ताओं के पास आने लगे. इस प्रकार, अपनी हिफाजत के लिए मुखबिरों को सजा देने की कार्रवाई अब ‘न्यायदान मंडलों’ में बदल गई जो बाद में सच्चे अर्थो में ‘जनता की अदालत’ – समानांतर सरकार की केंद्रीय संस्था – के रूप में विकसित हुई. और, जैसा कि कुंदल के जीडी लैड ने जोर देकर बताया कि ऐसा नेतृत्व के सचेतन फैसले से नहीं, बल्कि जीवंत जनता की ‘स्वाभाविक’ प्रतिक्रिया से हुआ था.
बहरहाल, फैसला तो लेना ही था. औपचारिक अर्थों में समानांतर सरकार की स्थापना 1943 के प्रथमार्ध में हुई. सतारा के अलग-अलग हिस्सों में – फरवरी में किवल (करद तालुका) तथा उसके बाद 3 जून को कामेरी (वालवा तालुका) में भूमिगत कार्यकर्ताओं की दो बड़ी बैठकों में ये सरकारें गठित की गईं.
किवल में अखिल भारतीय स्तर पर कुचल दिये जाने के बावजूद उस आन्दोलन को जारी रखने, और पूरे अंचल के गांवों में समन्वित प्रयासों के जरिये ‘न्यायदान मंडल’ का गठन करते हुए जनता की सत्ता बनाने तक उसे आगे बढ़ाने का संकल्प लिया गया. इससे नीचे से विकसित हो रही प्रक्रिया की संपुष्टि होती है. उसमें संघर्ष के नये मूल्यों का सृजन भी शामिल था: अब आदर्श स्वतंत्रता सेनानी वे नहीं रह गए जो साहसी, किंतु अ-हिसंक सत्याग्रही थेऋ बल्कि वे थे जो संघर्ष चलाते हुए ब्रिटिश जेलों से बाहर रहने में अथवा जेलों से भाग जाने में सफल हुए थे. मानो, वे कह रहे हों: “गांधी के आह्वान पर हमने ‘करो या मरो’ की शपथ ली है, और हम बाकी जगहों पर क्या हो रहा है, यह देखे बिना हम इस आह्वान को आगे ले जाएंगे”.
कामेरी में वाइबी चह्वान ग्रुप ने इस फैसले को चुनौती दी थी. चह्वान उस वक्त कांग्रेस पार्टी के अंदर उभरते युवा मराठा नेता थे, और उन्होंने खुद को गिरफ्तार करवा दिया था (अनेक कार्यकर्ताओं के अनुसार, उन्होंने खुद पुलिस को खबर करवाई थी कि उन्हें कहा पकड़ा जा सकता है). जून में उनके लोग तर्क दे रहे थे कि सिर्फ स्थानीय स्तर पर आन्दोलन को आगे बढ़ाने फिजूल है, इससे सतारा के किसानों पर सिर्फ पुलिस का दमन ही बढ़ेगाऋ और कि बंबई में भूमिगत सोशलिस्ट नेता अच्युतराव पटवर्धन ने भी उन्हें आत्मसमर्पण करने की सलाह दी थी.
लेकिन कोई भी प्रतिनिधि उनकी सलाह मानने को तैयार नहीं था. अव्वल तो, इस समय तक शुरूआती न्यायदान मंडलों की स्थापना और पुलिस मुखबिरों को दंड देने से आन्दोलन का तेवर उनके पक्ष में बदल चुका था. भूमिगत कार्यकर्ता भी किसानों को परेशान करने वाले डकैतों का मुकाबला करने लगे थे, ओर कई मामले में तो चुराए गए सामान वापस भी करवाए गए. कार्यकर्ताओं का आत्मविश्वास बढ़ने लगा था और वे महसूस करने लगे थे कि वे न केवल डकैतों से, बल्कि ब्रिटिश नौकरशाही के लुटेरों से भी जनता के ‘जीवन, सम्मान और धन’ की हिफाजत कर सकते हैं; और, बदले में लोग भी सत्ता के केंद्र के बतौर उनपर विश्वास करने लगे थे. और, दूसरा था खुद कार्यकर्ताओं का चरित्र, जो शायद ज्यादा महत्वपूर्ण बात थी. वे लगभग पूरी तरह नए किस्म के लोग थे जिनका कांग्रेस नेतृत्व (ऊपर से लेकर नीचे तक) के साथ कोई संगठित संपर्क नहीं था और जो गांधीवादी विचारधारा से गहरे तौर पर प्रभावित नहीं थे. उनमें से बहुजन समाज ग्रुप ब्राह्मणवाद-विरोध् के विचारों से प्रेरित था जिसने उन्हें कांग्रेस के स्थापित नेतृत्व के प्रति शंकालु बना दिया था और वे यहां तक कि चरमपंथी ‘प्राधिकार’ की भी सलाह मानने को तैयार नहीं थे.
इस प्रकार कामेरी की बैठक में एक बार फिर संघर्ष को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया गया (हालांकि एक प्रतिनिधिमंडल को पटवर्धन की स्वीकृति हासिल करने बंबई भेजा गया, और पटवर्धन ने स्वीकृति दे दी). और इस प्रकार फरवरी-जून 1943 में अखिल भारतीय स्तर पर आन्दोलन को दबा दिये जाने के बाद, कांग्रेस के जिला नेतृत्व समूह में वरिष्ठतम मराठा की सलाह के खिलाफ जाकर, और स्थानीय आत्मनिर्णय और ‘जनता की सत्ता’ की विचारधारा के आधार पर सतारा समानांतर सरकार को स्थापित किया गया.