[ संपादकीय, एमएल अपडेट, 30 अप्रैल - 6 मई 2024 ]
भाजपा के वोटरों में पस्ती व उदासीनता और संघ-भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में कुंठा व बैचनी- लोकसभा चुनाव के दूसरे चरण ने पहले चरण में दिखाई दिये इन संकेतों को ही और मजबूत किया है. देश की लगभग 200 सीटों में मतदान हो चुका है. तमिलनाडु, केरल, राजस्थान, उत्तराखंड जैसे राज्य पहले ही 2024 के संभावित परिणाम और उसके लिए गढ़े गए नारे- दक्षिण में साफ, उत्तर में हाफ- के चरितार्थ होने के संकेत दे चुके हैं. पर मतदान के आंकड़ों और चुनावी भविष्यवाणियों से अधिक गौरतलब इस लंबे चुनावी युद्ध से उभर रहा विमर्श है.
भाजपा ने अपना अभियान आक्रामक तरीके से और 400 पार के आत्मविश्वास के साथ शुरू किया, “परिवारवाद” और “भ्रष्टाचार” के नाम पर विपक्ष के खिलाफ विषवमन शुरू किया. पर चुनाव का पहला हफ्ता बीतते-न-बीतते ये नारे सुनाई देना बंद हो गये. संघ ब्रिगेड के रणनीतिकारों को समझ में आ गया कि ये नारे अब कोई लहर पैदा करने में सक्षम नहीं हैं. भाजपा के संभावित क्षरण के स्तर और हर तरफ से भाजपा की छतरी के नीचे इकट्ठा होते भ्रष्ट वंशवादियों पर अब सार्वजनिक विमर्श केंद्रित हो गया है. इसलिए हताश मोदी अब अपने पुराने जांचे-परखे मुस्लिम विरोधी ध्रुवीकरण के मूल एजेंडे पर लौट आए हैं.
“मुस्लिम तुष्टीकरण” के दो बेहूदे आरोप कॉंग्रेस और इंडिया गठबंध पर उछाले जा रहे हैं कि- मंगलसूत्र समेत हिंदुओं की संपत्ति जब्त करके मुसलमानों में बांट दी जाएगी और ओबीसी आरक्षण के कोटे में कटौती करके मुसलमानों को धार्मिक आरक्षण के आधार पर इसके दायरे में लाया जाएगा. योगी आदित्यनाथ ने इसमें दो और ऊटपटाँग आरोप जोड़ दिये हैं कि पूरा देश शरिया कानून से चलाया जाएगा और गौवध को अविछिन्न रूप से पूरे देश में बढ़ाया जाएगा. जो अभियान चार सौ पार के गाजे-बाजे के साथ शुरू हुआ था, वह अब हव्वा खड़ा करके सांप्रदायिक घृणा को बढ़ाने और लोगों को विपक्ष के सत्ता में आने का डर दिखाने के खेल में मगन है.
ये सारे बेतुके आरोप भाजपा खेमे की बढ़ती बेचैनी का ही खुलासा कर रहे हैं. मेहनतकश भारतीयों के रोजगार के नाश, लाखों मध्य वर्गीय परिवारों की आय, बचत और सामाजिक सुरक्षा में क्षरण के लिए जो पार्टी अकेले जिम्मेदार हो, उसके द्वारा गरीबों के नाम पर आंसू बहाने से ज्यादा क्रूर मज़ाक और क्या हो सकता है. तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ कर मुसलमानों को ओबीसी कोटा हड़पने वाले के रूप में प्रस्तुत करके ओबीसी को मुस्लिमों के खिलाफ खड़ा करने की शरारतपूर्ण कोशिश की जा रही है. समुदाय के आधार पर नहीं बल्कि व्यवसाय व जाति के आधार पर, मुसलमानों के कुछ तबके अभी भी आरक्षण पाते हैं और ज़्यादातर राज्यों में अन्य पिछड़ी/अति पिछड़ी मुस्लिम जातियों को समाहित करने के लिए कुल आरक्षण के कोटे को बढ़ाया गया है.
दरअसल असल चिंता तो यह है कि मोदी काल में आरक्षण को व्यवस्थित, दबे-ढके तरीके से कमजोर कर दिया गया है. आर्थिक उद्यमों व सामाजिक क्षेत्रों का बेखटके निजीकरण और नौकरियों के ठेकाकरण ने आरक्षण के दायरे को सीमित कर दिया है, उसे लगभग निष्प्रभावी कर दिया है. नौकरशाही के शीर्ष पदों पर 'लेटरल ऐण्ट्री' द्वारा पीछे से प्रवेश देने की विस्तारित प्रणाली का उपयोग समाज के सभी बहिष्कृत और अत्यधिक कम प्रतिनिधित्व वाले वर्गों के उचित और पर्याप्त प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने वाले आरक्षण के विचार को दरकिनार समाप्त करने के लिए किया गया है. सामाजिक न्याय के नजरिए से आज उठने वाली वास्तविक मांग 'जाति जनगणना' है और इसके आधार पर बढ़ा हुआ आरक्षण जैसा की बिहार में शुरू किया गया है. भाजपा इस विचार की घनघोर विरोधी है और इस विरोध को ढकने के लिए ही ओबीसी बनाम मुस्लिम का छल किया जा रहा है ताकि अपनी आरक्षण विरोधी, ब्राह्मणवादी नजरिए से लोगों का ध्यान हटाया जा सके.
सामाजिक न्याय और आरक्षण के विचार से आरएसएस का ऐतिहासिक विरोध किसी से छुपा नहीं है. 1990 में वीपी सिंह की सरकार से भाजपा ने समर्थन वापस लेने का कदम इसीलिए उठाया था क्यूंकि मंडल आयोग की अनुशंसाओं के अनुसार ओबीसी आरक्षण लागू करने की ऐतिहासिक घोषणा वीपी सिंह ने कर दी थी. 2014 में मोदी की जीत के बाद, ये कोई और नहीं आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत थे जो भारत में आरक्षण की नीति की समीक्षा के विचार के साथ सामने आए थे. आज वही मोहन भागवत आरक्षण को दो हज़ार साल के जातीय उत्पीड़न के कारण अगले दो सौ साल तक “झेलने” की बात कर रहे हैं. और मोदी के पास वो धृष्टता है कि वे दलित/आदिवासियों को डरा सकें कि विपक्ष की जीत का मतलब आरक्षण का खत्म होना !
भारत में जनता की चिंताएँ आरक्षण के मुद्दे से कहीं आगे तक जाती हैं. भारतीयों के पास अपने देश के संविधान के भविष्य के बारे में चिंता करने के वाजिब कारण हैं. आधुनिक भारत के लिए अंबेडकर के संविधान के प्रति गोलवलकर और आरएसएस के ऐतिहासिक विरोध को नज़रअंदाज़ करना ख़तरनाक होगा. भारत के संविधान को अपनाने से लेकर अब तक आरएसएस ने खुले तौर पर इसकी निंदा की और मनुस्मृति को आदर्श संविधान के रूप में पेश किया. भले ही भाजपा के पास स्वतंत्र बहुमत नहीं था, लेकिन वाजपेयी और आडवाणी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने संविधान के कामकाज की समीक्षा के लिए एक आयोग नियुक्त करने में संकोच नहीं किया. पिछले दस वर्षों में, मोदी सरकार ने पहले ही संविधान पर हज़ारों कट लगाए हैं, हर अवसर पर इसकी भावना, सिद्धांतों और यहाँ तक कि इसके मूल ढांचे को भी नष्ट किया है.
भारत की आजादी की 75वीं वर्षगांठ के खास अवसर पर मोदी के मुख्य आर्थिक सलाहकार बिबेक देबरॉय ने मोदी शासन की नीतियों की क्षमता को पूरी तरह से हासिल करने के लिए एक नए संविधान की वकालत करते हुए एक लेख लिखा था. सबसे परेशान करने वाली बात यह है कि कुछ संघ विचारकों द्वारा अंबेडकर के संविधान को एक औपनिवेशिक दस्तावेज करार देने और 'उपनिवेशवाद से मुक्ति' के नाम पर एक नए संविधान के लिए जोर देने की हिकमत की है. इसलिए यह समय है कि संविधान ग्रहण करने की पूर्व बेला पर दी गयी बाबासाहेब अंबेडकर की चेतावनियों को भारत याद रखे. अंबेडकर के संविधान की मुख्य विशेषताएं - संसदीय लोकतंत्र की प्रणाली, इसकी नियंत्रण और संतुलन की संस्थागत प्रणाली, शक्तियों का पृथक्करण और संघीय ढांचा - सभी गंभीर अस्तित्वगत खतरों का सामना कर रहे हैं. चंडीगढ़ और खजुराहो से लेकर सूरत, इंदौर और अरुणाचल प्रदेश तक- चुनावों के विभिन्न चरणों में, प्रत्याशियों के नामांकन से लेकर वोटों की गिनती तक- चुनावी प्रक्रिया की विश्वसनीयता को ही हर दिन भाजपा के ऑपरेशन लोटस के नए—नए मॉडलों द्वारा चुनौती दी जा रही है.
जब मोदी,शाह और भागवत, भारत को संविधान की स्थिरता और आरक्षण की व्यवस्था की गारंटी देने लगें तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि हुकूमत अपने सामने मौजूद अवश्यंभावी हार को देख कर झूठ बोल रही है. पहले दो चरणों ने इन चुनावों की ध्वनि और दिशा तय कर दी है, हम भारत के लोगों को इसे आगे ले जाना होगा ताकि आने वाले पांच चरणों में इंडिया गठबंधन की स्पष्ट जीत और निर्णायक बहुमत को सुनिश्चित किया जा सके.