वर्ष - 28
अंक - 27
22-06-2019

आजादी को लड़ाई वो अंतिम दौर में तेलंगाना किसान विद्रोह के जरिये देश में मुकम्मल भूमि सुधार की चुनौती कम्युनिस्टों ने पेश कर दी थी. आजादी के बाद भारत में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, मद्रास, असम एवं बाम्बे राज्य सबसे पहले अपने यहां 1949 में जमींदारी उम्मूलन बिल लाए. इन सब ने गोविन्द वल्लभ पन्त के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश जमींदारी उम्मूलन समिति की रिपोर्ट को अपने बिल का आधार बनाया. 1950 में भारत सरकार भी जमींदारी उम्मूलन कानून ले आई. पर जमींदार इसके खिलाफ अदालत में चले गए क्योंकि संविधान में उस वक्त संपत्ति के अधिकार से सम्बंधित अनुच्छेद 19, 31 संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार का दर्जा देते थे. 1951 में केंद्र सरकार ने संविधान संशोधन कर संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार का दर्जा देने वाले प्रावधान बदले. इससे देश में जमींदारी उम्मूलन कानूनों को लागू करने का रास्ता साफ हुआ.

जमीन के बदले जमींदारों को दिया मुआवजा और बांड

इसके बाद राज्य सरकारों ने 1700 लाख हेक्टेयर जमीन का अधिग्रण किया. इसकी एवज में जमींदारों को 670 करोड़ रुपए मुआवजा बांटा गया. कई राज्य सरकारों ने जमींदारों से फंड लेकर उन्हें जमीन के 10 से 30 साल के बांड जारी कर दिए, ताकि जमीनों पर उनका नियंत्रण बना रहे.

कश्मीर में भारत का पहला क्रांतिकारी भूमि सुधार

नेशनल कांफ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला जो कि वामपंथी विचारों से प्रभावित थे, ने सर्वप्रथम जम्मू कश्मीर में एक क्रांतिकारी भूमि सुधार कार्यक्रम लागू किया. 1950 में उनके द्वारा लाये गए (बिग लैंडड एस्टेट्स अबोलिशन एक्ट) के तहत (1) भूमि की अधिकतम सीमा 182 कैनाल (22.75हेक्टेयर) तय कर दी गई. इसमें बागानों, चारागाहों, जलाऊ और न जोतने योग्य बेकार भूमि को शामिल नहीं किया गया, (2) बटाई पर खेती करने वाले किसानों को जमीन का मालिकाना दिया गया, (3) जिन किसानों को जमीन उपलब्ध कराई गई उनके लिए 160 कैनाल की सामा निर्धारित की गई जिसमें पहले से मालिकाने की जमीन भी शामिल थी, (4) मुआवजे के सवाल पर यह व्यवस्था दी गई कि राज्य की विधानसभा इसे बाद में तय करेगी. बाद में विधानसभा में फैसला लिया गया कि किसी तरह का मुआवजा नहीं दिया जाएगा. इस तरह जम्मू और कश्मीर भारत का इकलौता राज्य बन गया जहां बड़े जमींदारों को जमीनों के बदले कोई मुआवजा नहीं दिया गया, (5) पुंछ क्षेत्र के सभी गैर मौरूसी काश्तकारों को उनकी जमीनों का मालिकाना दे दिया गया, (6) उधमपुर में शिकार के लिए आरक्षित की गई जमीनों का आरक्षण समाप्त कर दिया गया और किसानों को इन जमीनों पर खेती करने की अनुमति दी गई, (7) शिकार के नियमों में बदलाव करके जंगलों के आसपास के गांवों के किसानों को उन जंगली जानवरों पर गोली चलाने के अधिकार दिए गए जो उनकी खेती को नुकसान पहुंचाते थे और (8) 13 अप्रैल 1947 के बाद जमीन के अंतरण के सभी आदेश और डिक्रियों को अमान्य घोषित कर दिया गया ताकि इस कानून की भूल भावना से खिलवाड़ न हो सके. पर कुछ वर्ष बाद केंद्र सरकार ने शेख अब्दुल्ला की सरकार को बर्खास्त कर उन्हें जेल में डाल दिया.

दूसरा बड़ा भूमि सुधार केरल में

1957 में केरल प्रदेश में चुनाओं के जरिये दुनिया की पहली निर्वाचित कम्युनिरट सरकार का. नम्बुदरीपाद के नेतृत्व में सत्ता में आई. सत्ता में आते ही इस सरकार ने राज्य में भूमि सुधार और शिक्षा में सुधार की वड़ी मुहिम चलाई. राज्य के भूमिहीनों को खेती लायक उपयुक्त जमीनें आवंटित की गयी. किसानों, खेत मजदूरों के कर्ज माफ किए गए और जमींदारों की ताकत को कमजोर किया गया. शिक्षा के क्षेत्र में व्यापक सुधार शुरू हुए, स्कूलों में पढ़ाने का समय निर्धारित हुआ, निजी स्कूलों में अनिवार्य रूप से सरकारी पाठ्यक्रम चलाना व सरकार के नियमों की अवहेलना करने पर स्कूलों का अधिग्रहण इसके मुख्य कदम थे. इन दोनों कदमों से परेशान राज्य के प्रभुत्वशाली वर्ग ने बड़े पैमाने पर सरकार के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया. बाद में नेहरू सरकार ने 1959 में नम्बूदरीपाद सरकार को बर्खास्त कर दिया.

भूदान में मिली जमीनें और उनकी लूट

तेलंगाना आंदोलन के बाद भी जमींदारी प्रथा के खात्मे और जमीनों के बटवारे के लिए देश भर में कम्युनिस्टों के नेतृत्व में आन्दोलन चलते रहे. किसान आन्दोलन की इस आग को कुछ ठंडा करने के लिए सवोंदयी नेता विनोवा भावे ने 1951 में भूदान आन्दोलन की शुरूआत की. इसके तहत उन्होंने देश भर में जमींदारों, राजे-रजवाडों से 4763617एकड़ जमीन दान में ली. इसमें सर्वाधिक 21 लाख एकड़ से ज्यादा जमीने संयुक्त बिहार से मिली थी. बिहार के जमींदारों ने 648593 एकड़ और झारखंड के जमींदारों ने 1469280 एकड़ जमीनें विनोबा जी को दी थीं. इनमें से ज्यादातर जमीनें आज तक भूमिहीनों को नहीं दी गई है. बिहार में मात्र278320 एकड़ जमीनें को आज तक बंट पायी हैं, जबकि झारखंड में मात्र 488735 एकड़ जमीनें ही भूमिहीनों तक पहुंच पाई हैं. इनमें भी उसका मालिकाना पट्टा आज तक अधिकतर लोगों को नहीं मिला है. अधिकतर जमीनों को दलालों और भ्रष्ट नौकरशाहों से लेकर भूदान समिति से जुडे लोग अनफिट और बेकार जमीन घोषित किए हुए हैं और नदी-नाला व पहाडी जमीन के नाम पर ये जमीनें लूट की शिकार हो रही हैं.

जमींदारी उन्मुलन कानून के बावजूद जमींदारी प्रथा जारी

जमींदारी उन्मुलन और सीलिंग कानूनों के बावजूद भारत में सत्ता के संरक्षण में सामंतों और बड़े जमींदारों का न सिर्फ बड़े पैमाने पर जमीनों पर एकाधिकार बना रहा, बल्कि ग्रमीण समाज और राज्यों की राजनीति पर भी उनका प्रभुत्व बना रहा. उत्तराखंड की तराई, उत्तर प्रदेश के पीलीभीत से लेकर बिहार के चम्पारण तक जो नेपाल की सीमा से सटे क्षेत्र हैं, आज भी सैकड़ो व हजारों एकड़ के बड़े फार्म व इस्टेट मौजूद हैं.

कारपोरेट के पक्ष में भूमि सुधार को पलटने को प्रक्रिया शुरू

इस वक्त भारत में भूमि सुधार कानूनों को पलटने और खेती की जमीनों, आदिवासियों के जंगल और नदियों को बड़े कारपोरेट के कब्जे में पहुंचने का अभियान जोर-शोर से जारी है. तमाम राज्य सरकारों के माध्यम से भूमि हदबंदी कानूनों को बदला जा रहा है. कृषि भूमि के गैर कृषि उपयोग पर लगे प्रतिबंधों को खत्म किया जा रहा है. अनुसूचित जातियों और जनजातियों की जमीनों को गैर-जातीय लोगों के लिए हस्तान्तरण पर लगी कानूनी रोकों को हटाया जा रहा है. आदिवासियों-वनवासियों को उनके पुश्तैनी अधिकार की जमीनों पर मालिकाना हक देने वाला वनाधिकार कानून 2006 की अवहेलना कर बड़े पैमाने पर उन्हें उनकी जमीनों से बेदखल किया जा रहा है. भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसानों के भारी आन्दोलन के दबाव में 2013 में बने भूमि अधिग्रहण कानून को निष्क्रिय किया जा रहा है. वषों से जन आंदोलनों के बल पर सरकारी जमीनों या ग्राम समाज व सीलिंग की जमीनों पर बसे भूमिहीन और गरीब किसानों को जमीन का मालिकाना हक देने के बजाए फिर से उजाड़ा जा रहा है .

विकास के नाम पर खेती की जमीनों का बड़े पैमाने पर अधिग्रहण

एक तरफ हमारी आबादी लगातार बढ़ रही है, दूसरी तरफ विकास के नाम पर बड़े पैमाने पर खेती की जमीन का अधिग्रहण हो रहा है. एसइजेड के नाम पर लाखों एकड़ कृषि भूमि बड़े कारपोरेट के हवाले की गयी. देश के अन्दर 6 से 8 लेन के 1455.4 किलोमीटर लम्बे 21 एक्सप्रेस-वे वन चुके हैं और7491.1 किलोमीटर लम्बे 27 एक्सप्रेस-वे निर्माणाधीन हैं. इसी तरह 6672 किलोमीटर लम्बे चार क्षेत्रीय रेल कारीडोर और 3360 किलोमीटर लम्बे दो रेल फ्रेट कारीडोर बन रहे हैं. इनके दोनों ओर लाखों एकड़ कृषि भूमि को औद्योगिक गलियारों और व्यवसायिक गतिविधियों के लिए अधिसूचित कर दिया गया है. इसी तरह राष्ट्रीय राजमार्गों और राज्य राजमार्गों के दोनों ओर भी लाखों एकड़ जमीन को व्यवसायिक घोषित कर दिया गया है. हजारों किलोमीटर लम्बी गैस पाइप लाइनें बिछाई जा रही हैं. तमाम राज्य सरकारें कारपोरेट को सहजता से भूमि उपलब्ध कराने के लिए लाखों एकड़ भूमि के भूमि बैंक बना रही हैं. इन भूमि बैंकों में कृषि भूमि के अतिरिक्त ग्रामसमाज, सीलिंग व सरकार की उन जमीनों को शामिल किया जा रहा है, जिन्हें देश के भूमिहीनों, गरीबों में बांटा जाना था.

पहाड़ व जंगल में रहने वालों को बेदखली

आदिवासी-वनवासी क्षेत्रों में खनिज व वन संपदा से भरपूर आदिवासियों और वन विभाग की लाखों एकड़ जमीनें बड़े कारपोरेट को दी जा रही हैं. पर्वतीय क्षेत्रों में नदी घाटी की उपजाऊ जमीनों को विद्युत् परियोजनाओं के नाम पर कारपोरेट के हवाले किया जा रहा है. राष्ट्रीय पार्कों और वन विहारों के साथ ही ईको सेंसिटिव जोन के नाम पर उन परम्परागत पर्वतीय लोगों, वन वासियों और आदिवासियों को जबरन उनके गावों व जमीनों से बेदखल किया जा रहा है, जो सदियों से इन वनों और ईको सिस्टम को बचाए रखने के मजबूत स्तम्भ रहे है. इन क्षेत्रों में सत्ता के संरक्षण में कारपोरेट की पहुंच ने हमारे पर्यावरण और ईको सिस्टम को भारी नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया है.

देश को खाद्य सुरक्षा खंतरे में

हमारी सरकार कारपोरेट परस्त नीति पर चल रही है. खेती करने वाले किसानों, आदिवासियों, वनावासियों के हाथ से जमीनें निकलती जा रही हैं. यह हमारी बढ़ती आबादी के सामने खाद्य सुरक्षा का बड़ा खतरा खड़ा कर देगा. खेती में बढ़ते मशीनीकरण के प्रयोग से और पशुपालन व ग्रामीण दस्तकारी पर हुए हमले से गांवों में बड़े पैमाने पर रोजगार घटा है. इतनी बड़ी आबादी को खेती और उनके आजीविका के परम्परागत साधनों से बेदखल करने के बाद उन्हें आजीविका का दूसरा साधन देने के लिए हमारी सरकारों के पास कुछ भी नहीं बचा है.

सामन्ती अवशेषों के साथ सामंजस्य बिठाते हुए कारपोरेट पूंजी का बढ़ता नियंत्रण

भारत के आर्थिक जीवन में सामन्ती अवशेषों के साथ सामंजस्य बिठाते हुए कारपोरेट पूँजी का नियंत्रण बढ़ रहा है. कारपोरेट पूँजी का यह नियंत्रण आर्थिक क्षेत्र के साथ ही राज्य की संस्थाओं और संसदीय लोकतंत्र में भी बढ़ा है. भारत का खेती और कृषि में बड़ी और कारपोरेट पूँजी का पहुंच बड़े पैमाने पर बढ़ी है. पर बड़ी पूँजी का यह पहुंच ग्रामीण समाज में मौजूद सामन्ती अवशेषों को खत्म किए बिना और वहां उत्पादन संबधों को बदले बिना हुई है. यह स्थितियां बड़ी पूंजी और साम्राज्यवाद को सस्ते श्रम और कच्चे माल का आसान बाजार उपलब्ध कराती हैं. यही नहीं यह भारतीय समाज में जातियों और सामंती संबंधों को भी टिकाए रखने का आधार देती हैं. यह उत्पादक शक्तियों के विकास में बाधक है और भारतीय समाज व राजनीति के व्यापक लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया को रोके हुए है.

जनता का जनवाद व समाजवाद ही विकल्प है

भारत का वर्तमान कृषि संकट इतना गहरा गया है कि वर्तमान शासक वर्ग के पास उसके समाधान का कोई रास्ता नहीं बचा है. इस कृषि संकट के समाधान के लिए खेती के कारपोरेटीकरण के जिस रास्ते पर भारत आज बढ़ रहा है, वह हमारी खेती-किसानी की तबाही का रास्ता है. हमारी आधी से ज्यादा आबादी कृषि पर निर्भर है. अपनी बढ़ती आबादी का खाद्य व आजीविका का जरूरतों को पूरा करने, देश में उपलब्ध प्राकृतिक व मानवीय संसाधनों के जनपक्षीय उपयोग और मुकम्मल भूमि सुधार के लिए इन साम्राज्यवाद परस्त, कारपोरेट परस्त नीतियों को उलटना जरूरी है . हम समझते है कि खेती किसानी के इस संकट से बाहर निकलना व्यवस्था में श्री क्रांतिकारी बदलाव के बिना संभव नहीं है. यह एक सच्चे जनता के जनवादी भारत के निर्माण और फिर समाजवाद के रास्ते ही संभव है.