वर्ष - 28
14-08-2021

 

15 अगस्त 2021 को भारत, ब्रिटिश राज से आज़ादी के 75वें वर्ष में प्रवेश करेगा. विडंबना यह है कि आज़ादी की उपलब्धियों का उत्सव मनाने के बजाय कोविड 2.0 और मोदी 2.0 की दोहरी मार तले कराहता देश, औपनिवेशिक क्रूरता और दमन को याद करने को विवश है. गौरतलब है कि यह किसी और ने नहीं बल्कि भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना ने ही केंद्र सरकार से पूछा है कि इतने सालों बाद भी उसे औपनिवेशिक शासकों का राजद्रोह का कानून क्यूं चाहिए. राजद्रोह का कानून या भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124 ए  कोई इकलौता कानून नहीं है, जिसका उपयोग अंग्रेज़ शासक भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों का दमन करने के लिए करते थे और जिसका उपयोग वर्तमान हुकूमत द्वारा आलोचनात्मक मतभिन्नता के स्वरों को कुचलने के लिए किया जा रहा है.

क़ानूनों से ज्यादा यह समकालीन हुकूमत की क्रूर प्रवृत्ति का मामला है, भारत के वर्तमान शासकों का देश के नागरिकों के प्रति रुख का मसला है, जो औपनिवेशिक शासन की भावना को पुनर्जागरित करते हुए, नागरिकों से तुच्छ प्रजा जैसा सलूक कर रहे हैं. यूएपीए कानून, जिसका औपनिवेशिकोत्तर कालक्रम है, वह तो औपनिवेशिक काल को भी शर्मिंदा करने वाला कानून है. अस्सी वर्ष से अधिक उम्र के एक पादरी और मानवाधिकार कार्यकर्ता, जिन्होंने झारखंड में आदिवासी अधिकारों और गरिमा के लिए, विस्थापन के विरुद्ध, तथा फर्जी आरोपों में बिना मूलभूत सुविधाओं और अधिकारों के जेलों में बंद आदिवासियों की रिहाई के लिए अपने जीवन का बेहतरीन हिस्सा लगाया, उन्हें झारखंड से उठा कर महाराष्ट्र की जेल में बंद कर दिया गया और जेल में मरने के लिए छोड़ दिया गया. पार्किंसन जैसे गंभीर रोग से पीड़ित फादर स्टेन स्वामी को महीनों तक सिपर और स्ट्रॉ जैसी मामूली चीजें तक नहीं दी गयी और अपनों के बीच रांची में अपने अंतिम दिन बिताने की उनकी इच्छा लगातार खारिज की जाती रही. उनकी जमानत पर सुनवाई की एक तारीख पर ही उनकी मृत्यु की खबर आई.

फादर स्टेन स्वामी कोई इकलौते उदाहरण नहीं बल्कि यह एक व्यापक कार्यप्रणाली  को प्रदर्शित करता है. पूरी तरह से फर्जी भीमा-कोरेगांव केस के 16 बंदियों में से वे एक थे और ऐसे कई अन्य “षड्यंत्र” के मुकदमे हैं जो अधिकार कार्यकर्ताओं और मतभिन्नता रखने वाले नागरिकों के विरुद्ध गढ़े गए हैं. “दिल्ली दंगों” के ऐसे ही मुकदमों में नताशा, देवांगना और आसिफ को हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय से जमानत मिल गयी पर ऐसे ही मामलों में बड़ी संख्या में लोग अभी भी जेल में हैं. इन में से हर मनगढ़ंत मुकदमा हमें याद दिलाता है कि कैसे अंग्रेज़ शासक भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को फँसाने के लिए मनगढ़ंत मुकदमे रचते थे. ब्रिटिश शासक तो क्रूर क़ानूनों और दमनकारी हथकंडों पर ही निर्भर थे, लेकिन मोदी सरकार ने तो जासूसी करने और इलेक्ट्रोनिक सबूत “प्लांट” करने का भयावह निगरानी अस्त्र भी हासिल कर लिया है.

हम जानते हैं कि दुनिया भर में आतंकवाद और अपराध के खात्मे के नाम पर इज़राइली कंपनी साइबर निगरानी स्पाइवेयर बेचती रही है. कंपनी यह खुलेआम स्वीकार करती है कि उसने यह स्पाइवेयर केवल सरकारों को बेचा है. दुनिया भर में पचास हजार से अधिक फोनों को निशाना बनाया गया है. भारत में अब तक जो नाम सामने आए हैं, उनमें विपक्ष के नेता, चुनावी रणनीतिकार, खोजी पत्रकार, मानवाधिकार कार्यकर्ता (जिनमें फादर स्टेन स्वामी भी हैं), एक चुनाव आयुक्त (अशोक लवासा जिन्होंने 2019 के आम चुनाव में मोदी को आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन का दोषी माना था), पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के खिलाफ यौन शोषण की शिकायत दर्ज करवाने वाली महिला के परिजन, वर्तमान न्यायाधीश से लेकर मोदी के अपने मंत्री तक इस सूची में शामिल हैं. इससे स्पष्ट तौर पर अंदाज लगाया जा सकता है कि किस तरह के महा आक्रांता निगरानी और भयादोहन के बलबूते मोदी-शाह हुकूमत ने अपने राज्य कौशल का शिल्प स्थापित किया है.       

पुलिस, जेल और जासूसी तकनीकों का पूरा दमनकारी तंत्र पत्रकारों और कार्यकर्ताओं व जनांदोलनों के खिलाफ छोड़ दिया गया है, वहीं नफरत से लबालब मुस्लिम विरोधी हिंसक भीड़ों की अगुआई करने वाले आतंकवादियों को खुली छूट दे दी गई है. स्वतंत्रता दिवस से ठीक एक सप्ताह पहले राजधानी में संसद मार्ग पर 5000 हिंदुत्ववादी उन्मादियों की भीड़ द्वारा भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय की अगुआई में मुसलमानों का नरसंहार करने के नारे लगाए गए. इस भीड़ ने यह भी मांग कि भारत में चल रहे 'विदेशी' कानूनों को बदला जाए. ऐसी हिंदुत्ववादी भीड़ों को सड़कों पर उतारने वाला आरएसएस किन कानूनों को 'विदेशी कानून' कहता है? आरएसएस ने राजद्रोह, UAPA या AFSPA जैसे औपनिवेशिक काल के कानूनों का तो कभी विरोध नहीं किया है. यह संगठन तो उल्टे भारत के संविधान को ही "पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता और लोकतन्त्र से प्रेरित" बताता है, और उसकी इच्छा है कि इसके स्थान पर मनुस्मृति - जो महिलाओं व दमित जातियों की गुलामी का दस्तावेज है - को लागू किया जाए.

और अब हमारे पास कोविड 19 महामारी के रूप में वास्तविकता मापने का पैमाना है, खास तौर पर मारक दूसरी लहर, जिसमें दुनिया ने भारतीयों को ऑक्सीजन की कमी से मरते देखा, लाशों को गंगा में तैरते और दफन किए जाने और गरिमाहीन तरीके से सामूहिक तौर पर जलाए जाने की तस्वीरें सबने देखी. लेकिन संसद में सरकार कह रही है कि ऑक्सीजन की कमी से कोई नहीं मरा. टेस्टिंग से लेकर लोगों के इलाज और उनकी मौतों को गिनने तक, मानव जीवन के प्रति जो उपेक्षा का भाव, हम देख रहे हैं, वह स्तब्ध करने वाला है.  महा-अहंकारी और महा-निर्दयी हुकूमत यह संदेश निरंतर दे रही है कि उसे लोगों की कतई परवाह नहीं है. “आपदा में अवसर” तलाशने के मोदी के जुमले को सही सिद्ध करते हुए यह सरकार कॉर्पोरेट मुनाफे और लूट को बढ़ाने के लिए तथा लोगों को उनके संसाधन व अधिकारों और यहां तक कि जीवन से भी महरूम करने के लिए महामारी को अवसरों की शृंखला की रूप में इस्तेमाल कर रही है.

1947 में आधुनिक लोकतांत्रिक गणराज्य के सपने के रूप में और लोक कल्याणकारी राज्य के लक्ष्य के साथ भारत का उभार हुआ. आज भारत को एक चुनावी तानाशाही (इलेक्टोरल ऑटोक्रेसी) में तब्दील किया जा रहा है और भारत के लोग निरंकुशता की काली छाया के साये में रहने को अभिशप्त हैं. दूसरी आज़ादी की लड़ाई वक्त की पुकार है : निरंकुशता से आज़ादी, राज्य प्रायोजित तबाही और बर्बादी से आज़ादी, फासीवाद से आज़ादी.

-    भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माले) लिबरेशन
[ML Update, 10-16 August 2021 का सम्पादकीय]