रांची से पूरब-दक्षिण 135 किलोमीटर दूरी एवं टाटा स्टील, जमशेदपुर से 60 किलोमीटर की दूरी पर सरायकेला-खरसावां स्थित है. सरायकेला-खरसावां पहले पश्चिम सिंहभूम में था. 2001 में यह स्वतंत्र जिला बना.
गुलाम भारत में 13 अप्रैल 1919 को हुए जालियांवाला बाग जनसंहार को, जिसमें अंग्रेज ब्रिगेडियर जनरल डायर के नेतृत्व में सैंकड़ों भारतीय लोगों को गोलियों से भून डाला गया था, पूरी दुनिया जानती है. लेकिन 1947 में भारत की आजादी मिलने के ठीक साढ़े चार महीने बाद आजाद भारत में नववर्ष के पहले ही दिन 1जनवरी 1948 को हुए खरसावां जनसंहार को बहुत कम लोग जानते हैं. तब अपने देश की पुलिस ने बिहार (अब झारखंड) के खरसावां में आदिवासी लोगों का खून बहाया था. यह आजाद भारत में पुलिस द्वारा जनसंहार की पहली घटना थी.
सभा में उपस्थित महिलाओं व बच्चों का तनिक भी ख्याल न करते हुए उड़ीसा मिलिट्री पुलिस ने अचानक मशीनगनों से फायर करना शुरू कर दिया और हजारों आदिवासियों की क्रूरतापूर्ण तरीके से हत्या कर दी, मृतक लोगों के शव व अधमरे लोगों को खींच-खींच कर दर्जनों ट्रकों में भरा और उन्हें जंगलों-पहाड़ों व गड्ढों में फेंक दिया और यहां तक कि जमींदार राजा के द्वारा बनाये हुए कुएं में लाशों को डाल कर उपर से मिट्टी भर दिया गया. उसी कुंए पर आज खरसावां शहीद स्थल निर्मित है और एक ओर जहां आदिवासियों की संघर्ष और सामूहिक बलिदान तो दूसरी ओर देशी रियासतदारों के जुल्म व क्रूरता का दस्तावेज बन गया है. आज तक मृतकों की सही संख्या सामने नहीं आई लेकिन कोल्हान क्षेत्र के आदिवासी हर साल के 1 जनवरी को अपने बलिदानी पुरखों की याद में यहां शोक व शहादत मनाने के लिए जमा होते हें.
खरसावां गोलीकांड का इतिहास
खरसावां गोलीकांड का इतिहास झारखंड राज्य के निर्माण की बुनियाद है. जयपाल सिंह मुंडा जो संविधान सभा के सदस्य भी थे भौगोलिक, सांस्कृतिक व स्वशासन की परंपरा के आधार पर ‘विशेष स्वायत्त क्षेत्र’ का निर्माण करना चाहते थे. उन्होंने बिहार के दक्षिण छोटानागपुर, उड़ीसा के मयूरभंज, बंगाल के पुरुलिया, बांकुड़ा व पुराना मानभूम और मध्यप्रदेश के सुरगुजा सहित अन्य 26 जिलों को मिलाकर एक बृहद् झारखंड राज्य की मांग उठाई थी. अंग्रेजी राज के खिलाफ कोल्हान समेत झारखंड के समस्त आदिवासी क्षेत्रों में विद्रोह, संघर्ष और बलिदान का इतिहास भरा पड़ा है. 15 अगस्त 1947 को देश को आजादी मिलने के बाद गृहमंत्री सरदार बल्लभभाई पटेल ने कुछ रियासती घरानों की असहमति के कारण उनको छोड़कर देश के छोटे-बड़े 562 रियासतों को मिलाक रराज्य पुनर्गठन आयोग बनाया. इसी के तहत सरायकेला, खरसावां व मयूरभंज को भाषा-बोली के आधार पर उड़ीसा राज्य में शामिल करने का निर्णय लिया गया. जयपाल सिंह मुंडा ने इसका विरोध किया लेकिन मयूरभंज के राजा ने इसका समर्थन किया.
1 जनवरी को 1948 को इस निर्णय की तामील होनी थी. उस दिन झारखंड के लगभग 50 हजार आदिवासी इस निर्णय का विरोध और स्वतंत्रता अधिनियम 1947, सेक्शन 7(ब) के तहत अपने अधिकारों की मांग करने के लिए खरसावां में एकत्रित हुए. खाने-पीने की सामग्री साथ लेकर तीन दिनों से बिहार, बंगाल व उड़ीसा के आदिवासी लोग यहां पहुंच रहे थे. जयपाल सिंह मुंडा काफी लोकप्रिय नेता थे और सभा में उनके भी आने की सूचना थी. गुरुवार का दिन था जो सप्ताहिक हाट (बाजार) का भी दिन था.
लोगों को इसका अंदाजा नहीं था कि गोलीकांड को अंजाम देने की योजना पहले ही बन चुकी है. खरसावां बाजार पुलिस छावनी में बदल गया था और उड़ीसा की पारा मिलिट्री वहां भारी तादाद में पहुंच चुकी थी. जयपाल सिंह मुंडा को पहले ही नजरबंद किया जा चुका था. जब जयपाल सिंह मुंडा नहीं पहुंच पाए तो आदिवासियों में उबाल पैदा हो गया. आदिवासी खरसावां के राजा से मिलकर उनको अपना मांग पत्रा देने की कोशिश करने लगे. उनकी मांग थी कि सरायकेला-खरसावां को बिहार में ही रहने दिया जाए.
आदिवासी लोग राजा से मिलने के लिए महल की ओर चल पड़े. पुलिस ने एक लाईन खींचकर उनको उसके पार होने से मना किया. लोग हर बार लाईन को पार करते गए और पुलिस पीछे हटती गई और फिर से नई लाईन खींचती गई. अंत में पुलिस ने बंदूकें गाड़कर लाईन खड़ी कर दी और जब लोग उसे भी पार करने लगे तो अपनी मशनगनों से अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी. लोग कटे हुए पेड़ों की तरह जमीन पर गिरने, मरने और भागने लगे. बचने के लिए कुछ ने पेड़ों की ओट ली तो कुछ झाड़ियों में छुप गए. महिलाएं, बच्चे, बृद्ध व नौजवान सब मारे जाने लगे. भारी भगदड़ मच गई और चारों ओर दहशत फैल गई.
पीके देव की किताब ‘मेमोयार ऑफ ए बायगांन एरा’ के मुताबिक इस घटना में दो हजार लोग मारे गए थे. कोलकाता से प्रकाशित अंग्रेजी अखबार ‘द स्टेटसमैन’ ने घटना के तीसरे दिन यानी 3 जनवरी के अपने अंक में इस घटना से संबंधित खबर छापी जिसका शीर्षक था ‘35 आदिवासी किल्ड इन खरसावां’. तीन महीने बाद जयपाल सिंह मुंडा ने चाईबासा के एक सभा में कहा था कि खरसावां गोलीकांड में हजारों लोग मारे गए हैं.
मृतकों की संख्या को लेकर अभी तक कोई स्पष्ट आंकड़ा मौजूद नहीं है. इस घटना की जांच के लिए एक कमेटी भी बनाई गई थी लेकिन कमेटी ने जांच की या नहीं, किसी को नहीं पता. सब कुछ स्वतः खत्म समाप्त हो गया. इस घटना का असर इतना जबरदस्त था कि सरायकेला-खरसावां को उड़ीसा में शामिल करने पर रोक लग गई.
आज भी इस घटना में शामिल व इसके साक्षी लोग मौजूद हैं. उस दिन की घटना को याद कर वे लोग आज भी सिहर उठते हैं. प्रभात खबर के कार्यकारी संपादक अनुज कुमार सिन्हा ने अपनी किताब उनके बयान दर्ज किए हैं.
दशरथ मांझी बताते हैं, ‘गोलीकांड के दिन भारी भीड़ थी. लोग आगे बढ़ रहे थे, साथ में मैं भी आगे चल रहा था. अचानक उड़ीसा पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी. मैंने सात जवानों को मशीनगन से फायरिंग करते देखा. पुलिस की एक गोली मुझे भी लगी. मैं एक पेड़ के नीचे लाश की तरह पड़ा रहा और पुलिस को लाशों को उठाकर ले जाते हुए देखता रहा. बाद में मुझे भी घसीटते हुए खरसावां थाना लाया गया. फिर इलाज के लिए जमशेदपुर और फिर कटक भेजा गया.’
वे लिखते हैं, ‘साधुचरण बीरूआ को कई गोलियां लगी थीं. दर्द की वजह से उन्हें पता ही नहीं चला की एक गोली उनकी बांह में भी लगी है. गोली लगने के 54 साल बाद उनकी बांह में दर्द हुआ. गोली धीरे-धीरे बाहर आने लगी थी, तब उसको निकाला गया.’
झारखंड आंदोलनकारी और पूर्व विधायक बहादुर उरांव की उम्र घटना के वक्त करीब 8 साल थी. उन्होंने बीबीसी को बताया ‘गोलीकांड का दिन गुरुवार और हाट (बाजार) का दिन था. सरायकेला और खरसावां स्टेट को उड़िया भाषा-भाषी राज होने के नाम पर उड़ीसा अपने साथ मिलाना चाहता था और यहां के राजा भी इसे लेकर तैयार थे. मगर इस इलाके की आदिवासी जनता न तो उड़ीसा में मिलना चाहती थी और न बिहार में.’
गिरधारी राम गंझू (हाल के कोरोना से उनकी मौत हुई) रांची यूनिवर्सिटी के जनजातीय और क्षेत्रीय भाषा विभाग के पूर्व अध्यक्ष रहे हैं. उनके मुताबिक आदिवासी दरअसल खरसावां गोलीकांड के दिन दशकों पुराने झारखंड आंदोलन की मांग को आगे बढ़ाने के लिए ही जुटे थे. उन्होंने बीबीसी को बताया, “आदिवासियों की अपने राज्य और स्वशासन की मांग काफी पुरानी है. 1911 से तो इसके लिए सीधी लड़ाई लड़ी गई. इसके पहले बिरसा मुंडा के समय ‘दिसुम आबुआ राज’ यानी की ‘हमारा देश, हमारा राज’ का आंदोलन चला. इसके पहले 1855 के करीब सिद्धू-कान्हू भी ‘हमारी माटी, हमारा शासन’ के नारे के जरिए वही बात कर रहे थे.”
वर्तमान दौर
आजादी के 53 वर्ष बाद 15 अगस्त 2000 को झारखंड अलग राज्य का गठन हुआ. झारखंड में आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन और खनिज की लूट का सिलसिला औपनिवेशिक काल से लेकर आजाद भारत और झारखंड राज्य बनने तक जारी है. मोदी राज में वन में बसे आदिवासियों को जंगलों से बाहर करने तथा जमीन और खनिजों को दोहन करने के लिए कंपनियों को खूली छूट दे दी है. कभी पत्थलगड़ी के नाम पर ‘नक्सली’ करार देकर दमन करती है तो कभी बुलडोजर चलाकर घरों को उजाड़ देती है और खेतों को कब्जा लेती है. विकास के नाम पर विस्थापन व पलायन की समस्या बदस्तूर जारी है. भूमि सर्वे के जरिए आदिवासियों की जमीन छीनी जा रही है. शिक्षा, रोजगार व स्वास्थ्य के लिए उन्हें लाठी खाना पड़ रहा है. भूख से लोगों की मौत हो रही है और धर्म के नाम पर हमला जारी है, आदिवासी धर्म को हिंदू धर्म में बदलने के खिलाफ भी लड़ाई जारी है और वे सरना धर्म कोड की मांग कर रहे हैं. आज भी वे संघर्ष और शहादत की परंपरा को जारी रखे हुए हैं. उनके समानता मूलक समाज के निर्माण तक यह लड़ाई तब तक जारी रहेगी.
– देवकीनन्दन बेदिया