(23 जनवरी 2024 को जगजीवन राम संस्थान, पटना में आयोजित समाजवादी समागम में का. दीपंकर भट्टाचार्य का वक्तव्य)
सबसे पहले कर्पूरी जी को नमन करता हूं. यह अच्छा लग रहा है कि हम उनके विचारों और आज के संदर्भों पर बात कर रहे हैं. अक्सर दिक्कत यह रहती है कि व्यक्तियों को तो याद कर लेते हैं, उनकी पूजा भी कर लेते हैं, लेकिन उनके विचारों-संघर्षां व विरासत से सरोकार नहीं रखते.
आज का दौर एक बेहद खतरनाक दौर है. 22 जनवरी को एक मंदिर का महज उद्घाटन नहीं हुआ. अयोध्या का मसला कभी भी मंदिर या मस्जिद का सवाल था ही नहीं. वह देश को बदल देने का अभियान था. आज हमारे सामने 22 जनवरी बनाम 26 जनवरी है. इस समय जो लोग सत्ता में बैठे हैं, कह रहे हैं कि राम को लेकर लाए हैं, शायद राम पहले थे नहीं, अब उनके नाम पर कुछ भी किया जा सकता है. यह सवाल हमारे सामने है कि देश 22 जनवरी के रास्ते आगे बढ़ेगा या फिर 26 जनवरी यानी संविधान की भावना से आगे बढ़ेगा. संयोग से कर्पूरी जी का जन्मदिन इन दो तिथियों के बीच में आता है. ये 22 जनवरी वाले लोग, जो जल-जंगल-जमीन हड़पने वाले हैं, विचारों को भी हड़पने में माहिर हैं. कर्पूरी जी को भारत रत्न देकर उन्हें भी हड़पने की कोशिश करेगे. 22 जनवरी के संकेत बहुत साफ हैं. जैसे हम किसी राजशाही के दौर में चले गए हों. वे बार-बार कहते हैं कि उन्हें भगवान ने चुना है. एक तरह से जिसे हम धर्मतंत्र कहते हैं, उसकी ध्वनि निकल रही है. संस्थाबद्ध फासीवाद के इस खतरे के खिलाफ कर्पूरी जी हमारे लिए प्रेरणा स्रोत हैं. ऐसे में हम समाजवादियों-कम्युनिस्टों को नए संदर्भ में सोचना होगा.
कर्पूरी जी का आखिरी दौर सबसे ज्यादा याद करने लायक है. उस दौर में हमारा आंदोलन भी सामने आ रहा था. हमारे साथ सोशलिस्टों की एकता की संभावना बनने लगी थी. अरवल जनसंहार के बाद विधानसभा घेराव किया गया था. नागभूषण जी सहित कई नेताओं को नजरबंद कर दिया गया था, तब कर्पूरी जी ही थे जिन्होंने हमारे नेताओं की रिहाई के लिए आवाज उठाई थी. संयोग से कुछ ही दिन बाद उनकी मौत हो गई. आज उस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की जरूरत है. हम लोगों के बीच संवाद व एकता बढ़नी चाहिए.
इस फासीवादी सरकार के खिलाफ किसानों ने आवाज उठाई, मजदूरों ने आवाज उठाई, आदिवासी लड़ रहे हैं. जनता के अधिकार को आगे बढ़ाने वाली लड़ाई आगे ही बढ़ेगी. इसी तरह संविधान की रक्षा के लिए हर कोने से आवाज निकली है. किसी ने नहीं सोचा था कि इंडियन पीनल कोड को बदलकर जो नए दमनकारी कानून आए हैं, उसके खिलाफ सबसे पहले ट्रक ड्राइवर सड़क पर उतर जायेंगे. धर्म व राजनीति के घालमेल पर हमलोग बोलते रहे हैं, लेकिन हमने सोचा भी नहीं था कि धर्माचार्य इसके खिलाफ उतर आयेंगे. जैसे-जैसे फासीवाद का दबाव बढ़ रहा है उसके खिलाफ साहस के साथ आगे बढ़ने की परिस्थितियां भी बन रही हैं. यह जो फासीवाद है, वह दरअसल कॉरपोरेट, पुलिस और हिन्दू बहुसंख्यक का स्टेट है. इसके हर पहलू के खिलाफ लड़ाई है और वह आगे बढ़ेगी.
2024 का चुनाव हमारे समाने है. निश्चित तौर पर हमारे लिए यह कठिन चुनाव है. 21 जनवरी को कलकत्ता में था. बंगाल, बिहार व महाराष्ट्र पर पूरे देश की नजर है. क्योंकि 2019 में भाजपा को यहां व्यापक सफलता मिली थी. उन्हें हम कहां तक रोक पाते हैं, यह देखने वाली बात है. लेकिन 2024 में यदि भाजपा को सत्ता से बेदखल करना संभव न भी हुआ तो वह भारत में लोकतंत्र का अंत नहीं होगा. जब हम चुनाव की बात करते हैं तो उसके तमाम पहलू आज भाजपा के ही कंट्रोल में है. चुनाव आयोग की निष्पक्षता खत्म हो गई है. इलेक्टोरल बॉन्ड और ईवीएम की सच्चाई से हम सब वाकिफ हैं. मीडिया का वही हाल है. हमारे पास केवल जनता है. लेकिन वहां तक पहुंचने के लिए एक माहौल चाहिए. चुनाव में हमें अपनी पूरी ताकत निश्चित तौर पर लगानी चाहिए, पूरे देश में कोशिश होनी चाहिए कि एक-एक सीट पर एकता कायम करें और एक-एक वोट की गारंटी करें, लेकिन यह एक चुनाव की लड़ाई भर नहीं है.
संविधान हवा में नहीं आया था. आजादी कैसे आएगी, इसपर मतभिन्नता जरूर थी. लेकिन आजाद हिन्दुस्तान कैसा होगा इस पर मोटे तौर पर सहमति थी. सुभाषचंद्र बोस की आज जयंती है. जापान आदि देशों के साथ उनकी दोस्ती पर बहसें होती रही हैं. लेकिन आजाद हिन्दुस्तान को लेकर उनकी सोच पर चर्चा नहीं होती. जब हम उस पर जाते हैं तो मोटे तौर पर आधुनिक भारत की कल्पना एक जैसी थी. और आज जो संविधान पर हमला हो रहा है वह भी हवा में नहीं हो रहा है. यह हमला इसलिए हो रहा है कि हमारे देश का बैलेंस बदल गया है. देश में लंबे समय तक कांग्रेस का वर्चस्व रहा. उस दौर में सत्ता विरोधी संघर्ष को कांग्रेस विरोधी संघर्ष में बदल दिया गया. उसी को हड़पते हुए पहले कांग्रेस और फिर विपक्ष मुक्त भारत की बातें आज हो रही हैं. फासीवाद ने चुनाव के जरिए ही सत्ता और पूर तंत्र पर कब्जा जमाया है. इस बदले हुए राजनीतिक दौर में नए सिरे से इस देश में लोकतंत्र की लड़ाई कैसे लड़ी जाए, हम सबको सोचना होगा. हमने आजादी को हल्के में ले लिया था. आज हमें हर चीज की कीमत समझ में आ रही है. एक-एक वोट की अहमियत समझ में आ रही है. ऐसे में, समाज के हाशिए पर खड़े लोगों की दावेदारी और सत्ता पर जनता के नियंत्रण व निगरानी की जो शुरूआत कर्पूरी जी ने की थी, उसपर हमलोगों को नए सिरे से सोचना होगा.
आज का दौर आजादी के आंदोलन का ही एक नया दौर है. आजादी की लड़ाई में अलग-अलग विचार के लोग एक साथ आकर लड़ रहे थे. संविधान को बचाने के लिए आज हम एक साथ आ सकते हैं या नहीं, यह बड़ा सवाल है. धीरे-धीरे हम एक हो रहे हैं. लेकिन बात केवल सीट शेयरिंग तक न हो. संघर्ष व विचार के धरातल पर एक होना पड़ेगा. आजादी के आंदोलन के दौर में जेल संवाद की जगहें होती थीं. आज बहुत सारे साथी हमारे जेल में है. कल हम भी हो सकते हैं. बाहर हो या अंदर हों, हमें मजबूती के साथ लड़ाई लड़नी है. कर्पूरी जी के विचारों के धरातल पर खड़े होकर ही हम एक ईमानदार एकता कायम कर सकेंगे.