डॉ. सुच्चा सिंह गिल
पंजाब के किसानों को कृषि, पानी और पर्यावरण को बचाने के लिए पिछले साढ़े तीन दशकों से कृषि विविधीकरण का मॉडल सुझाया जा रहा है. कृषि विविधीकरण हासिल करने के लिए कॉरपोरेट कंपनियों को कृषि उपज के प्रसंस्करण और विपणन के लिए अपनी इकाइयों स्थापत करने और उनको सभी जरूरी सुविधाऐं प्रदान पर जोर दिया जा रहा है. संसार के विभिन्न देशों में किसानों को बर्बाद करने और पर्यावरण को नष्ट करने में निजी कॉरपोरेट कंपनियों की प्रत्यक्ष भूमिका के बावजूद, कुछ विशेषज्ञ और विचारक अभी भी इसी मॉडल की वकालत कर रहे हैं, इसलिए इस मामले में पंजाब के अनुभव से सबक सीखने और निजी कॉरपोरेट कंपनियों की भूमिका पर पुनर्विचार करने की जरूरत है.
नेशनल एग्रीकल्चरल प्राईस कमीशन के अध्यक्ष डासरदारा सिंह जौहल की अध्यक्षता में बनी जौहल समिति -1 ने 1986 में पंजाब सरकार को सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में पंजाब में कृषि विविधीकरण का सुझाव पहली बार दिया था. इस आधार पर पंजाब सरकार ने भारत सरकार की मंजूरी से 1988 में निजी बहुराष्ट्रीय कंपनी पेप्सी के साथ एक समझौता किया. यह समझौता पंजाब सरकार के स्वामित्व वाली पंजाब एग्रो इंडस्ट्रीज कारपोरेशन और पेप्सी कंपनी के बीच हुआ था. समझौते के अनुसार पंजाब के कुल कृषि क्षेत्र का 20% गेहूं और धान से हटाकर फल, सब्जियां, डेयरी, दालें, तिलहन आदि के अंतर्गत रखना था. नई फसलों के प्रसंस्करण के लिए कंपनी को पंजाब से ही नई बीजी जाने वाली फसलों की उपज खरीदनी थी. कम से कम 50% तैयार माल को विदेशी बाजार में बेचने पर भी सहमति हुई थी. यह भी बताया गया था कि इस योजना में राज्य के लगभग 40,000 युवाओं को रोजगार दिया जाएगा. पेप्सी कंपनी ने दो संयंत्र शुरू किए थे. एक संयंत्र संगरूर जिले के ग्राम चन्नों में पेप्सी कोला साफ्ट कंसंट्रेट बनाने के लिए और दूसरा संयंत्र होशियारपुर जिले के गांव जहूरा में फलों और सब्जियों के प्रसंस्करण के लिए स्थापित किया गया था. इस कारखाने में आलू से चिप्स और टमाटर से चटनी (टमाटो सॉस) बनाई जानी थी. पंगरूर का वह शीतल पेय केंद्रित संयंत्र अभी भी चल रहा है, लेकिन होशियारपुर करा फल और सब्जी प्रसंस्करण संयंत्र कंपनी द्वारा तीन साल के बाद ही बेच दिया गया और वह करीब तब से ही बंद पड़ा है.
इस तरह पेप्सी कंपनी ने कृषि-विविधता के कारोबार से अपने पैर पीछे खींच लिए. इसका कारण यह था कि कंपनी और किसानों के बीच टमाटर और आलू की खरीद को लेकर जो समझौता हुआ था वह पूरी तरह इकतरफा था, और इसीलिए वह नहीं चल पाया. जब बाजार में इन फसलों के दाम ऊंचे थे, तो कंपनी ने किसानों को आलू और टमाटर की आपूर्ति समझोते में तय (मार्केट से कम रेट पर) दरों पर ही करने को कहा. लेकिन जब बाजार में इनके दाम गिरे, तो पेप्सी कंपनी ने भी इन दरों पर ही आलू और टमाटर खरीदने पर जोर दिया. इससे दुखी होकर किसानों ने कंपनी को इन सब्जियों की आपूर्ति ही बंद कर दी. किसान कभी सैकड़ो टन आलू तो कभी सैकड़ों टन टमाटर जालंधर शहर की सड़कों पर फेंकने को मजबूर हुए थे. अब यह कंपनी पंजाब में सिर्फ शीतल पेय, पेप्सी कोला और बोतल बंद पानी का कारोबार ही कर रही है.
2002 में जौहल कमेटी-2 के द्वारा अपनी रिपोर्ट सौंपे जाने के बाद पंजाब सरकार ने कई निजी कंपनियों के सहयोग से कृषि विविधीकरण कार्यक्रम की फिर से शुरूआत की थी. इस कार्यक्रम में वोल्टा इंडिया लिमिटेड, रैलीज इंडिया, पेप्सी फूड्स, महिंद्रा शुभ लाभ और एडवैंटा इंडिया को नई तजवीज शुदा फसल उत्पादों के विपणन का काम सौंपा गया था. जिन फसलों के माध्यम से कृषि का विविधीकरण किया जाना था, वे थीं – गोभी, सरसो, जौ, शीतकालीन मक्का, दुरुम गेहूं, सूरजमुखी, स्प्रिंग कोरन, जैट्रोपा, मूंगफली, बासमती चावल, सब्जियां, चारा और फल. इन कंपनियों को किसानों को नए बीज, कीटनाशक, उर्वरक एवं परामर्शी सेवायें देनी थीं, पैदा होने वाली जिंसों को खरीदना था और जरूरी खर्च के लिए किसानों से पैसा भी वसूल करना था. इस संबंध में पंजाब सरकार ने अनुबंध अधिनियम -2003 भी पारित किया. लेकिन, यह कार्यक्रम पहले वर्ष में ही विफल हो गया. कई कंपनियों ने किसानों को खराब बीजों की आपूर्ति की जो बुवाई के बाद अंकुरित ही नहीं हुए. किसानों को इस के बदले कोई मुआवजा नहीं दिया गया. एग्रीमेंट साइन करते वक्त किसानों से कृषि परामर्शी सेवाओं के लिए पैसे तो वसूल कर लिए गए थे, लेकिन कुछ कंपनियों ने किसानों की ओर से बार-बार फोन करने पर भी परामर्शी सेवाएं मुहैया करने का काम नहीं किया. जब फसलें तैयार हो गईं तो कंपनियों ने खरीदने में जानबूझ कर देर की और कम दरों पर खरीदारी की.
2020 में तीसरी बार, भारत सरकार ने तीन नए कृषि कानूनों के साथ कारपोरेट कंपनियों को कृषि जिंसों के व्यापार, भंडारण और प्रसंस्करण के काम में लाने की कोशिश की. इसका किसानों, खासकर पंजाब व हरियाणा के किसानों ने कड़ा विरोध किया. अपने पुराने अनुभव से किसानों को चिंता थी कि अब उनकी जमीन भी इन कंपनियों के कब्जे में चली जाएगी. किसानों के बेमिसाल व लंबे आंदोलन के कारण अंततः केंद्र सरकार को इन कानूनों को वापस लेना पड़ा.
गंभीर सवाल यह है कि निजी काररपोरेट कंपनियां कृषि अर्थव्यवस्था में विविधता लाने को तैयार क्यों नहीं हैं? इस प्रश्न के उत्तर में कुछ बिंदुओं पर स्पष्टीकरण की आवश्यकता है. पहला, यह तर्क कि कृषि विविधीकरण केवल निजी कारपोरेट कंपनियों के हस्तक्षेप से ही लाया जा सकता है और इसका कोई और रास्ता नहीं है. यह विशुद्धतः नव उदारवादी अर्थशास्त्र का ही तर्क है जो कि कत्तई सही नहीं है क्योंकि इसमें सहकारी इकाइयों और किसानों के पैदावारी संगठनों (एफपीओ) की भूमिका का कोई उल्लेख ही नहीं है. इस संबंध में पूर्वी एशिया और स्कैंडिनेवियाई देशों के सफल अनुभवों पर विचार किया जाना चाहिए. यदि भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों में भ्रष्टाचार व्याप्त है, तो यह प्रबंधन की गड़बड़ी है जिसे सुधारने की जिम्मेदारी सत्ता पक्ष की होती है. हमारे देश में सार्वजनिक क्षेत्र की कई इकाईयां बहुत सफलतापूर्वक काम कर रही हैं. तेल कंपनियां इसका एक स्पष्ट उदाहरण हैं.
दूसरा बिंदु सैद्धांतिक है. वर्तमान युग पूंजीवाद की पूर्ण प्रतिस्पर्धा का युग नहीं है. अब पूंजीवाद अपूर्ण प्रतिस्पर्धा की स्थिति में पहुंच गया है. इस युग में एक या कई कंपनियां किसी सेवा या वस्तु के उत्पादन को नियंत्रित करती हैं. इन कंपनियों के पास पूंजी और बाजार शक्ति कच्चे माल की आपूर्ति करने वाले किसानों और उपभोक्ताओं की तुलना में बहुत अधिक है. इस संदर्भ में विश्व के विभिन्न देशों में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि अपूर्ण प्रतिस्पर्धा की स्थिति में निजी कंपनियां उपभोक्ताओं को अनुचित लाभ पर अपना माल बेचती हैं. जहां एक कंपनी का एकाधिकार है, वहां कच्चे माल की आपूर्ति करने वाले किसानों और खरीदार को कंपनी की ओर से तय कीमत पर ही हर चीज बेचनी या खरीदनी पड़ती है. जहां कुछ ज्यादा कंपनियां भी हैं, वे आपस में सलाह-मशविरे से अपनी खरीद-बिक्री की कीमतें निर्धारित कर लेती हैं. ऐसी हालत में भी कच्चे माल की आपूर्ति करने वालों व उपभोक्ताओं के पास उन कीमतों पर भुगतान लेने या देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता. इसका एक स्पष्ट उदाहरण भारत में टेलीफोन कंपनियां हैं. तेल और गैस कंपनियों का भी ऐसा ही उदाहरण है. आजकल दवा कंपनियां लागत से कई गुना ज्यादा कीमत ले रही हैं. ये कंपनियां जब प्रसंस्करण के लिए कच्चा माल खरीदती हैं तो बेचने वाले को भी बेदर्दी से लूट लेती हैं. आम तौर पर यह भी देखने को मिलता है कि फलों और सब्जियों के उत्पादकों को कंपनियों द्वारा उपभोक्ताओं से वसूली गई कीमत का बमुश्किल 20-25% ही हासिल होता है. जब किसानों से गेहूं खरीदकर आटे को पैकेट के रूप में बेचा जाता है तो इसकी कीमत दोगुनी हो जाती है, जबकि आटा पिसाई की दर केवल एक रुपये प्रति किलो ही है. इस कारण अब जबकि पूंजीवाद की अपूर्ण प्रतिस्पर्धा का दौर है, तो निजी कंपनियां कृषि विविधीकरण को अपने मुनाफों को कई गुना बढ़ाने का एक अवसर ही मानती हैं. अपूर्ण प्रतिस्पर्धा की इस स्थिति का फायदा उठा कर ये कंपनियां श्रमिकों को भी उनकी योग्यता के अनुसार मजदूरी नहीं देतीं. इन कंपनियों के आकूत धन और शक्ति के कारण सत्ताधारी पार्टियां और उनकी सरकारें भी इनको नियंत्रित करने के बजाये, उल्टे इनकी मर्जी के मुताबिक ही काम करती हैं. हमारे देश का चीनी उद्योग इस विचार की पुष्टि करता है. यह उद्योग किसानों से गन्ना खरीदता है और चीनी और शीरे का उत्पादन कर उसे बेचता है. चीनी मिलें बिक्री के समय खुद तो निश्चित मूल्य वसूल करती हैं, लेकिन कई-कई वर्षों तक किसानों के गन्ने की कीमत का भुगतान नहीं करती हैं. राज्य सरकारें भी किसानों को भुगतान करवाने में अक्सर असमर्थ नजर आती हैं.
इन मिसालों से जाहिर है कि कृषि, पानी और पर्यावरण को बचाने और फसल विविधीकरण के लिए निजी कारपोरेट कंपनियों की भागीदारी सही नहीं है. बल्कि ऐसा करने से ये समस्याएं और बढ़ेंगी. पंजाब और देश को एक वैकल्पिक कृषि मॉडल अपनाने की जरूरत है. इसमें संयुक्त खेती, समूहिक खेती, सहकारी समितियां या किसानों के उत्पादक संगठन शामिल हो सकते हैं. इसे अपनाने के लिए सरकारों को कृषि उत्पादन, विपणन, प्रसंस्करण और बुनियादी ढांचे में काफी मात्रा में नया पूंजी निवेश करना पड़ेगा. इसके अलावा सभी कार्यों एवं प्रबंधन में कृषि में लगे किसानों एवं खेत मजदूरों की सरगर्म भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी. ऐसा करने से ग्रामीण समुदाय की आय में उल्लेखनीय वृद्धि की जा सकती है और रोजगार के बड़े अवसर सृजित किए जा सकते हैं. इसे बनाने में सरकार के साथ-साथ किसानों और श्रमिकों के संगठनों को भी निर्माण कार्य में आगे आना होगा. यह दृष्टिकोण संगठनों को संघर्ष और निर्माण के सिद्धांतों को अपनाने के लिए प्रेरित करेगा. इस सिद्धांत को कुछ हद तक देश के सरकारी बैंकों के ट्रेड युनियन संगठनों द्वारा अपनाया भी गया है.
(लेखक पंजाब विश्वविद्यालय, पटियाला में अर्थशास्त्र विभाग के प्रमुख हैं. का. सुखदर्शन सिंह नत्त ने समकालीन लोक मोर्चा (पंजाबी) में छपे उनके इस लेख का हिन्दी अनुवाद किया है.)