वर्ष - 32
अंक - 29
15-07-2023

- मनोज भक्त

देश खास मुकाम पर खड़ा है. अमृत काल चल रहा है और आज हम स्वाधीनता संग्राम और इसके विजय से मिली उपलब्धियों को बचाने की जद्दोजहद कर रहे हैं. मोदी की फासीवादी सरकार वह सब छीन रही है जो आजादी के पहले और बाद के जन आंदोलनों से हासिल हुआ. 1857, प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से लगभग 2 साल पहले हूल जनक्रांति ने आजादी की दिशा की उद्घोषणा की थी. जमीन पर अधिकार, स्वशासन और जमींदारी-महाजनी से मुक्ति हूल जनक्रांति का नारा था. आजादी की लड़ाई एक रैखिक नहीं थी. सामंती उत्पीड़न से लेकर पितृसत्ता के वर्चस्व से मुक्ति और आदिवासी स्वशासन से लेकर जातीय उत्पीड़न से आजादी के लिए संघर्षों को जोड़ते हुए स्वाधीनता संग्राम अपने मुकाम तक पहुंचा. सिद्धू मुर्मू ने ललकारा था कि होड़ – अपने लोगों की रक्षा के लिए हूल करो. बिरसा ने आह्वान किया था – ‘हेंदे रामड़ी केचे-केचे, पुंड़ी रामड़ी केचे-केचे’. भगत सिंह ने कहा कि – ‘स्वाधीनता केवल गोरे साहबों के हाथों से भूरे साहबों के हाथों में सत्ता हस्तांतरण नहीं है’. अंबेडकर ने ‘जातीयों के उन्मूलन’ का आहवान किया था.

बंटवारे के खून से लथपथ आजादी के बाद भी भारत ने संविधान को अंगीकार कर खुद को गणतंत्र घोषित किया. संविधान भारत को लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और समाजवादी दिशा देता है. आजादी पश्चात भी राह आसान नहीं रही. अपने अधिकारों को पाने के लिए जनसमुदायों का संघर्ष जारी रहा. जातियों के आरक्षण का अधिकार हो, आदिवासी अंचलों की स्वायतत्ता का अधिकार हो, जमीन पर अधिकार हो, रोजगार का अधिकार हो, जातीय-लैंगिक उत्पीड़न से मुक्ति का अधिकार हो या फसलों की कीमत पर किसानों का अधिकार हो, शिक्षा का अधिकार हो. आजादी के बाद भी ये संघर्ष चलते रहे. संघर्षों में कुर्बानियां होती रहीं और बड़ी-बड़ी जीतें भी मिलीं. आंदोलनों ने लोकतंत्रा और संविधान को मजबूती दी. इन उपलब्धियों में झारखंड का गठन भी महत्वपूर्ण मुकाम है.

इन महत्वपूर्ण उपलब्धियों के बावजूद भारतीय राज्य जन्मकाल से ही बड़ी कमजोरियों की गिरफ्त में रहा है. औपनिवेशिक उत्पीड़न एवं दमन के औजार कायम रहे. दलाल-काॅरपोरेट पूंजी इनका इस्तेमाल करती रही. राष्ट्र-द्रोह, टाडा, यूएपीए जैसे कानून भी बनते रहे. सामंती अवशेषों और ब्राह्मणवाद ने राज्य के दमन-तंत्र का मनचाहा इस्तेमाल किया. धार्मिक अल्पसंख्यकों, महिलाओं, दलितों एवं आदिवासियों के खिलाफ दमन भी सत्ता और शासक वर्गों की मर्जी पर निर्भर था. गांधी की हत्या से लेकर बाबरी मस्जिद की शहादत और गुजरात जनसंहार तक संघ की आक्रामकता, कानून और संविधान से ऊपर होती गई. काॅरपोरेट की सह पर संघी ताकतें आज केंद्र में काबिज हैं. अल्पसंख्यक की माॅब लिंचिंग या उसके घर को ढाह देना सामान्य दिनचर्या का हिस्सा है. महिला के साथ दुराचार करनेवाले के सर पर सत्ता का संरक्षण है. किसी आंदोलनकारी या सच लिखने-कहनेवालों को जेल में डाल देना और न्यायतंत्र को सुन्न कर देना रोज की बात है. भारतीय राज्य का संघीय स्वरूप भी कुचला जा रहा है. स्वायतत्ता और राज्य के अधिकार जब्त हैं. झारखंड भी इसका भुक्तभोगी है.

अकथ शहादतों और कुर्बानियों से भरे आंदोलन के बाद झारखंड अलग हुआ. शुरू से ही यह राज्य भाजपा के हाथों में पड़ गया. भाजपा इसे काॅरपोरेट लूट, सांप्रदायिक उन्माद और पुलिस स्टेट के प्रयोगशाला के रूप में विकसित करने की साजिश में लगी रही. काॅरपोरेट के लिए हाथी उड़ा कर जल-जंगल-जमीन की नीलामी का विरोध और पांचवीं अनुसूची के तहत स्वायतत्ता की मांग करनेवाले हजारों आंदोलनकारियों पर देशद्रोह का मुकदमा थोपा गया. आदिवासियों की आवाज बुलंद करनेवालों पर यूएपीए लाद दिया गया. सीएनटी-एसपीटी को तोड़ने-मरोड़ने की कोशिश की गई. आदिवासियों की जमीन की छिनतई जारी है. झारखंड ने जनसंघर्षों से ही इन साजिशों का जवाब दिया है. रघुवर सरकार को जनसंघर्षों ने जबरदस्त धक्का दिया और भाजपा सत्ता से बाहर है. सरकार बदली है लेकिन स्थितियां बहुत नहीं बदली हैं.

यह ठीक है कि आज की स्थितियों के लिए हेमंत सरकार की भी जिम्मेवारी है. लेकिन राज्यपाल श्री रमेश बैस और इडी एवं एनआइए ने राज्य-प्रशासन को लगभग कब्जे में रखा है. भ्रष्टाचार और घोटालों के आरोप विपक्ष पर मढ़े जा रहे हैं. रघुवर राज में हुए घोटाले के लिए भी क्या हेमंत जिम्मेवार हैं? स्थानीयता आधारित रोजगार नीति हर राज्य में लागू है. किंतु भाजपा को झारखंड में खतियान आधारित नीति मंजूर नहीं है. आरक्षण में विस्तार मंजूर नहीं है. इसे लेकर अमित शाह ने खुल्लमखुला बयान दिया है. राज्यपाल ने विधानसभा से पारित बिल को ठुकराया है. भाजपा झारखंड परस्त तमाम नीतियों को न्यायिक जटिलताओं में उलझाती रही है और भाजपा महज विपक्ष भर नहीं है, केंद्र में उसके हाथों सत्ता है. यदि कोई नौजवान स्थानीयता और रोजगार के लिए आंदोलन कर रहा है तो हेमंत सरकार को जवाब देना चाहिए. वह भाजपा-आजसू के विश्वासघात पर भी चोट करेगा. लेकिन यदि कोई भाजपा की गोद में बैठकर यह कर रहा है तो वह झारखंड के साथ गद्दारी कर रहा है.

झारखंड के नवनिर्माण की लड़ाई अधूरी है. आकांक्षाएं धूल-धूसरित हैं. मणिपुर जल रहा है और भाजपा-आजसू आज वही आग बंगाल एवं झारखंड में लगाना चाहती है. हम इस ओर से आंखें नहीं मूंद सकते हैं. झारखंड के सामासिक संस्कृति और समझ को मिटने नहीं दिया जा सकता है. इसे सांप्रदायिक आधार पर या सामुदायिक वर्गीकरण के नाम पर आपस में विभाजित करने की संघी साजिश को कामयाब नहीं होने दिया जा सकता है. इस ओर सतर्कता जरूरी है. झारखंड एक जटिल और दीर्घकालीन संघर्ष की उपज है. हम सिद्धू-कानू, फूलो-झानो, बिरसा मुंडा, माकी मुंडा, बुधु भगत, जयपाल सिंह मुंडा, एके राय, महेंद्र सिंह जैसे नायकों के सपनों को मिटने नहीं दे सकते हैं. हूल और उलगुलान की ऊर्जा और प्रेरणा अभी भी हमारे पास है.

भोगनाडीह के स्थानीय विद्रोह से शुरू हुए हूल ने अपने उरुज में 60000 से अधिक लोगों को प्रतियुद्ध के लिए लामबंद किया था. हूल ने आज के बंगाल, बिहार और झारखंड के दस से अधिक जिलों को कंपनी राज से मुक्त कर दिया था. हालांकि यह आजादी कुछ महीनों की ही थी. हूल में मुख्यतः संताल आदिवासी समुदाय भागीदार था. लेकिन तमाम मेहनतकश जाति-समुदाय साथ हो गए थे. हूल की महान पराजय और नायकों की शहादत के बावजूद वहां जमीन पर जनसमुदायों के अधिकार को शासकीय स्वीकृति मिली. महाजनों को पीछे हटना पड़ा था. कलकता कूच करते हुए सिद्धू ने कहा था कि कलकत्ता में बैठे हुक्मरानों तक हूल को ले जाना होगा. ये दारोगा और जमींदार उनके ही गुलाम हैं. काॅरपोरेट-संघी फासीवाद के खिलाफ झारखंड और पूरे देश में फैलता जनसंघर्ष ही आज का हूल है. यही झारखंड के नवनिर्माण का रास्ता खोल सकता है.

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