वर्ष - 32
अंक - 20
13-05-2023

ऑल इंडिया लॉयर्स एसोसिएशन फॉर जस्टिस

[ऑल इंडिया लॉयर्स एसोसिएशन फॉर जस्टिस (आइलाज) संविधान के मूल मूल्यों को बनाए रखने के लिए कानूनी पेशेवरों का एक प्रतिबद्ध अखिल भारतीय संगठन है. आइलाज अपनी स्थापना  काल  ही से, खास तौर पर कानूनी पहलुओं का विश्लेषण करते हुए, सामाजिक महत्व के मुद्दों को उठाता और आंदोलन करता रहा है.

अवैध जहरीली शराब के सेवन से बिहार भर में हालिया मौतों पर आइलाज गहरी चिंता जाहिर करता है. बताया जा रहा है कि अकेले सारण जिले में मरने वालों की संख्या 82 है, जबकि सीवान जिले में 5 और बेगूसराय जिले में दो लोगों की मौत हुई है.[1] 2016 में  पूर्ण शराबबंदी कानून को बिहार में जिस तरह से लागू किया गया है, वो पिछले 6 सालों में राज्य में अवैध शराब और नशीली दवाओं की खपत में वृद्ध की बड़ी वजह है. शराब पीना एक सामाजिक बुराई है जिसका समाज पर बुरा असर पड़ता है, खास तौर से उन महिलाओं पर जो अपने शराबी पतियों द्वारा प्रताड़ित होती हैं. शराब पीने को एक सामाजिक समस्या के बजाय सिर्फ कानून और व्यवस्था की समस्या के बतौर मानने से शराब पीने की प्रथा भूमिगत हो गयी है और इसकी पूर्ति हेतु अवैध रूप से शराब बनाने और बेचने का अवैध कारोबार फल-फुल रहा है. बिहार में बढ़ते शराब माफिया के कारोबार सहित जहरीली शराब से हो रही मौतों में बढ़ोतरी के अलावा बिहार मद्यनिषेध कानून के तहत दायर किए मुकदमों की वजह से जमानत के मामलों में भी अत्यधिक वृद्ध देखी जा रही है, जिससे अदालतें जाम हो रही हैं और हजारों लोग जेल में सड़ रहे हैं. ये कैदी शराब माफिया, डॉन या अन्य दबंग व्यक्ति नही हैं, बल्कि ज्यादातर आदिवासी और महादलित समुदायों सहित हाशिए के वर्गों के गरीब लोग जो पारंपरिक रूप से शराब के कारोबार में लगे हुए हैं.[2] इन सब बातों से स्पष्ट  है कि शराबबंदी कानून  का परिणाम भयावह हैं और कानून खुद कई खामियों से ग्रस्त है, जिन पर नीचे चर्चा की गई है.]

बिहार मद्यनिषेध और उत्पाद अधिनियम-2016 और इसकी संवैधानिकता

बिहार सरकार द्वारा 2016 में  ‘बिहार मद्यनिषेध और उत्पाद अधिनियम, 2016’ को पारित किया गया था जिसमें अन्य बातों के साथ-साथ शराब की बिक्री और उपभोग पर कठोर प्रतिबंध लगा दिया गया. इस प्रतिबंध के तहत फांसी से लेकर किसी व्यक्ति के शराब पीने पर पूरे परिवार को जिम्मेदार ठहराने सहित आदतन कानून तोड़ने वालों को जिलाबदर करना भी शामिल किया गया था. इन प्रावधानों पर नाराजगी के बाद इस कानून  में 2018 और फिर 2022 के संशोधन के बाबजूद यह कानून बेहद चिंता का कारण है.

1. राज्य द्वारा अत्यधिक शक्तियों का प्रत्यायोजनः

इस कानून के तहत शराब के उपभोग के मामलों के लिए सुनवाई का अधिकार न्यायपालिका के बजाय  कार्यकारी मजिस्ट्रेटों को दे दिया गया है. इस कानून को लागू करने के मामले में राज्य द्वारा सत्ता का केंद्रीकरण अत्यधिक चिंता का विषय है, क्योंकि यह न केवल शक्ति सिद्धांत के पृथक्करण को गंभीर रूप से कमजोर करता है[3], बल्कि प्रभावी तरीके से राज्य को उन व्यक्तियों पर मुकदमा चलाने की अनुमति देता है जिनके ऊपर वह जूरी के रूप में खुद है. यह भी ध्यान देने की जरूरत है कि निष्पक्ष सुनवाई की गारंटी कार्यकारी मजिस्ट्रेटों द्वारा नहीं दी जा सकती है, क्योंकि न तो कानूनी रूप से वे इसके काबिल हैं और न ही न्याय देने के लिए प्रशिक्षित हैं. इसलिए यह कानून भारत के संविधान के अनुच्छेद 50 का पूर्ण उल्लंघन है, जिसमें कहा गया ह :

‘राज्य द्वारा राज्य की सार्वजनिक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने के लिए कदम उठाया जाएगा’.

इस कानून  के तहत शराब के सेवन के लिए गिरफ्तार किए गए लोगों के पहली बार कानून तोड़ने पर जुर्माना  या जुर्माना व जेल तथा दूसरी बार कानून तोड़ने वालों पर जुर्माना और जेल की सजा जो भी उचित लगे, का निर्धारण करने का अधिकार राज्य ने खुद रख लिया है.[4], सरकार के पास इस जुर्माना राशि और कारावास की अवधि तय करने का कोई सीमा नहीं है. विधान द्वारा प्रत्यायोजित इन शक्तियों की वैधता का परीक्षण करते हुए हमदर्द दावाखाना बनाम भारत संघ[5], मामले में न्यायालय ने कहा कि इससे विधायी कार्य का परित्याग नहीं करना चाहिए. सजा और सजा का निर्धारण एक विधायी कार्य है जिसे संविधान के अनुच्छेद 21 को ध्यान में रखते हुए तय किया जाता है. सजा देने व तय करने जैसे मुख्य विधायी कार्य की शक्तियों का अत्यधिक प्रत्यायोजन बिना किसी दिशा-निर्देश का कानून के तहत अस्वीकार्य है.

2. उचित कानून प्रक्रिया और आनुपातिकता का अभाव

इस कानून के तहत 10 साल की अनिवार्य न्यूनतम सजा[6], व 10 लाख रुपये तक का जुर्माना[7], से लेकर संपति की सीलिंग[8], और जब्ती[9], जैसे अन्य व्यापक और कठोर प्रावधान हैं. ये सजा और जुर्माना के प्रावधान आनुपातिकता पर महत्वपूर्ण कानूनी सवाल खड़े करते हैं.

सर्वाच्च न्यायालय ने अपने कई मामलों में आनुपातिकता के कानूनी सिद्धांत पर व्यापक रूप से विचार किया है. कोई भी सजा जो दी जाती है वह अपराध से होने वाले नुकसान के अनुपात में होनी चाहिए. यह विक्रम सिंह बनाम भारत संघ[10], और मिठू सिंह बनाम पंजाब राज्य[11], जैसे कई निर्णयों में निर्धारित किया गया था.

किसी भी कानून के तहत सजा का निर्धारण करते समय मुख्य विचार हमेशा यह होना चाहिए कि यह नुकसान के अनुपात में है या नहीं. यह दिखाने की जरूरत है कि इस तरह की कठोर सजाएं अनुपातिक रूप से राज्य में शराब की समस्या को हल करने में सफल हैं और कोई अन्य तरीका नहीं है जो इस समस्या से निपटने में समान रूप से प्रभावी हो. इस कानून में इन पहलुओं पर विचार नहीं किया गया है. शराब के भंडारण या परिवहन जैसी गतिविधियों के लिए 10 साल सजा तय करना अनुपातिक रूप से अत्यधिक है. इस कानून की तुलना नशीली दवाओं के उपयोग पर अंकुश लगाने वाले एनडीपीएस कानून से करने पर पाते हैं कि इसमें नशीली पदार्थों के उपयोग पर अधिकतम 1 साल की सजा है. एनडीपीएस कानून में नशीली पदार्थों के दुरुपयोग की गंभीरता के आधार पर श्रेणीबद्ध सजा का प्रावधान भी है. इसके विपरीत बिहार मद्यनिषेध अधिनियम द्वारा असमान रूप से अत्यधिक सजा निर्धारित करने की वजह से इसे न्यायालयों में निरस्त किया जाना है.

इस कानून के कुछ कार्यवाहियों के तहत न दोषी साबित होने का प्रमाण के बिना ही दोषी मान लिया जाना  आपराधिक कानून के प्रमुख सिद्धांत के विपरीत है. इसे सर्वाच्च न्यायालय द्वारा सुभाष काशीनाथ महाजन बनाम महाराष्ट्र राज्य में मान्यता दी गई है, जिसमे निर्दाष होने की धारणा की तुलना ‘मानव अधिकार’ से की गई है. इस कानून मे ऐसे प्रावधानों को शामिल करने के लिए कोई तुक या औचित्य नहीं है. यह तर्कहीन, अनुचित और संवैधानिक रूप से अमान्य है.

अग्रिम जमानत नामंजूर

वर्तमान में इस कानून के तहत कोई व्यक्ति न्यायालय से अग्रिम जमानत की मांग नहीं कर सकता है. हालांकि अग्रिम जमानत एक मौलिक अधिकार नहीं है, फिर भी यह अत्यधिक महत्व का अधिकार है, क्योंकि यह व्यक्तियों के जीवन और स्वतंत्रता को सुरक्षित करता है. इस अधिकार का प्रयोग नहीं करने देना जैसे किसी भी कदम को न्यायोचित ठहराना पड़ेगा. इस कानून के तहत अपराध किसी भी तरह से उनके लिए इतने गंभीर नहीं हैं कि अग्रिम जमानत हासिल करने पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाया जा सके.

जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है कि यह कानून कानूनी और संवैधानिक रूप से असमर्थनीय होने के अलावा, जिस तरह से कानून को लागू किया गया है, उससे यह भी साफ है कि सरकार ने यह देखने के लिए कोई कदम नही उठाया कि मौजूदा संस्थान और संसाधन इस कानून को लागू करने के लिए पर्याप्त हैं या नहीं.

इसे सुप्रीम कोर्ट ने मोनू कुमार बनाम बिहार राज्य (23.02.2022 का आदेश, सीआरएल 1426/2022) में भी कहा था कि इस कानून के तहत दायर मामलों के कारण बिहार में ट्रायल कोर्ट और उच्च न्यायालय जाम होने की स्थिति में पहुंच गयी है, और बिहार सरकार से पूछा कि शराबबंदी कानून लागू करने से पहले और बाद उससे विधायी कार्य पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किया गया है या नही. यह स्पष्ट है कि कानून को लागू करने से पहले राज्य ने या तो यह देखने के लिए कोई प्रयास नहीं किया है कि क्या अभियोजकों, न्यायाधीशों आदि सहित कोई बुनियादी ढांचा है जो कानून को लागू कर सकता है.

यह बात फिर से समझना चाहिए कि शराब पीने की आदत एक गहरी जड़ वाली समस्या है. इसने परिवारों को तबाह करने के साथ स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा पैदा किया है और घर में महिलाओं के साथ बढ़ती बदसलूकी और शोषण में बड़े पैमाने पर योगदान दिया है. शराब पीने की लत को बीमारी और एक व्यापक सामाजिक समस्या के बजाय इसे व्यक्तिगत नैतिकता और कानून और व्यवस्था की समस्या के रूप में मानना स्थिति को बेहतर बनाने के बजाय और भी बदतर बनाने में योगदान दे रहा है. शराब पीने की समस्या से निपटने का यह कारगर तरीका नहीं है कि इसके लिए ऐसे कठोर कानून लागू हों जो लोगों को उनके जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित करते हों और गरीबों और हाशिए पर रहने वाले लोगों पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हों. बल्कि राज्य को शराब पीने की लत  समस्या के समाधान के लिए अन्य उपायों पर भी गौर करने के साथ नशामुक्ति केंद्रों की स्थापना, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार और काउंसलिंग वगैरह का प्रावधान करना चाहिए. इस एक्ट की उपरोक्त कानूनी खामियों और शराबबंदी कानून के विपरीत परिणामों से अवैध शराब से हो रही मौतें, हाशिए की आबादी वाले वर्गों पर भेदभावपूर्ण असर और जेलों में बढ़ती भीड़भाड़ के मद्देनजर आइलाज निम्नलिखित मांगें करता है :

1. अवैध शराब के सेवन के कारण परिवार के सदस्यों को खोने वाले शोक संतप्त परिवारों को पर्याप्त और उचित मुआवजा दिया जाए.

2. शराब पीने और इससे पनपने वाली समस्याओं खासकर महिलाओं के साथ हिंसा से निपटने के लिए राज्य सरकार को ‘बिहार मद्यनिषेध और उत्पाद अधिनियम, 2016’ को जारी रखने के बजाय अवश्य ही अन्य प्रभावी और गैर-अपराधकारी कदमों पर विचार करना चाहिए.

3. ‘बिहार मद्यनिषेध और उत्पाद अधिनियम, 2016’ के तहत सभी मुकदमों को वापस लिया जाए और इस कानून के तहत आरोपित सभी कैदियों को तत्काल प्रभाव से रिहा किया जाए.

फुटनोट : 

1. https://newsonair.gov.in/News?title-Death-toll-in-Bihar-Hooch-tragedy-Rises-to-82&id=452496#:

2. https://www.indiaspend.com@bihars-women-win-against-alcohal-but-lose-to-elicit-liquar-drugs/

3. शक्तियों का पृथक्करण – विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच – भारत के संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा है. देखें यूनियन ऑफ इंडिया बनाम मद्रास बार एसोसिएशन. (2010) 11 एससीसी 1;  केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य, (1973)

4. बिहार उत्पाद एवं मद्यनिषेध अधिनियम की धारा 37

5. एआईआर 1960 एससी 554, संविधान पीठ.

6. अधिनियम की धारा 30, धारा 33, धारा 34, धारा 35, धारा 36, धारा 37

7. अधिनियम की धारा 30, 33, 34, 35, 36, 37, 38, 39, 40, 41, 43,47

8. धारा 62

9. अधिनियम की धारा 56

10. (2015) 9 एससीसी (502)

11. (1983) 2 एससीसी 277.