[ एम.एल.अपडेट 14—20 मई के सम्पादकीय का हिन्दी अनुवाद ]

पिछले 7 मई को जब भारत लोकसभा चुनाव के तीसरे चरण से गुजर रहा था, तभी प्रधानमन्त्री की आर्थिक सलाहकार  परिषद ने एक आधार पत्र (वर्किंग पेपर) जारी किया, जिसमें 1950 से 2015 के बीच दुनिया भर के 167 देशों की बदलती धार्मिक जनसांख्यिकी पर तुलनात्मक अध्ययन पेश करने का दावा किया गया है. आधार पत्र में बताया गया है कि भारत की धार्मिक बहुसंख्यक आबादी में गिरावट की दर 1950 में 84.68% से 2015 में 78.06% का होना हकीकत में पूरी दुनिया के औसत गिरावट 22% और खासकर कि विकसित देशों की गिरावट दर के मुकाबले कोई खास मायने नही रखता है. यह औसत गिरावट 'आर्थिक सहयोग और विकास संगठन'(ओईसीडी) देशों में 29% दर्ज की  गई है. यह पाया गया कि भारत की धार्मिक जनसांख्यिकी में परिवर्तन पूरी दुनिया के रुझानों के मुताबिक है.

इस वर्किंग पेपर में अनेक देशों में बदलती जनसंख्या संरचना को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारकों का विश्लेषण नहीं किया गया है. इसके बजाय, इसने केवल अंतिम परिणाम जनसांख्यिकीय पैटर्न में बदलाव पर ध्यान केंद्रित किया है जो गलत है. इन बदलावों में योगदान देने वाले महत्वपूर्ण कारक प्रजनन दर, प्रवास और धर्मांतरण हैं. अधिक समृद्ध और शिक्षित समुदायों की तुलना में शिक्षा तक कम पहुँच वाले गरीब समुदायों में प्रजनन दर अधिक होती है. इन आर्थिक और शैक्षिक कारकों के अलावा, विशिष्ट सामाजिक या ऐतिहासिक परिस्थितियाँ भी अपनी भूमिका निभाती है. इस आधार पत्र में केवल जनसांख्यिकी को आधार बना कर विभिन्न समुदायों की समग्र स्थितियों की तस्वीर पेश कर दी गई है. भारत में मुसलमानों के अनुपात में वृद्धि को एक तर्क के बतौर पेश कर यह दावा किया गया है कि भारत में अल्पसंख्यकों को न केवल संरक्षित किया जा रहा है, बल्कि वे हकीकत में समृद्ध हो रहे हैं.

समूची दुनिया में भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों के हालात पर चिंता जाहिर की जा रही है जो भारतीय मुसलमानों के खिलाफ नफरत और हिंसा की लगातार चलाई जा रही मुहिम को देखते हुए वाजिब है. यहां तक ​​कि मौजूदा चुनावों में भी मुसलमानों के खिलाफ नफरत भड़काने का सबसे जहरीला अभियान चल रहा है, जिसकी रहनुमाई कोई और नहीं बल्कि खुद प्रधानमंत्री कर रहे हैं. ईएसी-पीएम के वर्किंग पेपर का भी उपयोग इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए किया जा रहा है. हमें याद है कि गुजरात में मुस्लिम विरोधी हिंसा के बाद नरेंद्र मोदी ने राहत शिविरों को "बच्चे पैदा करने वाली फैक्ट्रियां" बताया था. उन्होंने "हम पांच, हमारे पच्चीस" जैसे जहरीले और भड़काऊ नारे भी दिए, जिसमें बहुविवाह और जनसंख्या विस्फोट की झूठी कहानी के हवाले मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाया गया था.

अब यह अच्छी तरह से साबित हो चुका है कि मुस्लिम समुदाय में कुल प्रजनन दर (प्रति महिला पैदा होने वाले बच्चों की औसत संख्या) अन्य समुदायों की तुलना में अधिक तेज़ी से घट रही है, और राष्ट्रीय औसत प्रजनन दर के करीब पहुँच रही है. भारत में मुस्लिम आबादी में 1991 और 2001 के दौरान 29.3% की बढ़ोतरी दर्ज की गई, लेकिन अगले दस सालो में 2001 से 2011 के बीच मुस्लिम आबादी की बढ़ोतरी दर 5% घटकर 24.4% हो गई. 2021 की जनगणना कराने में मोदी सरकार की विफलता ने हमें भारत की जनसांख्यिकी के बारे में नवीनतम आँकड़े प्राप्त करने से रोक दिया है. इससे देश की जनसंख्या की संरचना के बारे में बेबुनियाद अटकलें और वैमनस्यता बढ़ाने वाले दुष्प्रचार को बढ़ावा मिला है. 2001 और 2011 के जनगणना के आंकड़ों ने असम और पश्चिम बंगाल राज्यों में बांग्लादेशी मुसलमानों की बड़ी आमद के दावों को पहले ही गलत साबित कर दिया है. 1991 के बाद की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, पश्चिम बंगाल में मुस्लिम आबादी की वृद्धि दर वास्तव में राष्ट्रीय औसत से कम रही है. इन आंकड़ों से जाहिर होता है कि किए जा रहे दावों के ठीक उल्टा भारत में मुस्लिम आबादी की वृद्धि दर हाल के वर्षों में घट रही है.

वैश्वीकरण के कारण पूंजी और उत्पादन की बेलगाम आवाजाही की वजह से विदेशों में बसने की दर में इजाफा हुआ है. अधिकांश विकसित देशों ने इस आप्रवासन को हतोत्साहित करने के लिए सख्त नीतियां लागू की हैं. साथ ही, दुनिया भर में दक्षिणपंथी राजनीतिक दल आप्रवासियों के प्रति पूर्वाग्रह से भरे विरोध में मुखर रहे हैं और यहां तक ​​कि हिंसा का सहारा भी लिया है. 2022 में, 225,620 भारतीयों ने अपनी भारतीय नागरिकता छोड़ दी और विदेशी नागरिकता अपना ली. हम अक्सर अवैध अप्रवास के आरोपों के कारण भारतीयों को वापस भेजे जाने के मामलों के बारे में भी सुनते हैं जो यह दर्शाता है कि बढ़ती तादात में भारतीय दूसरे देशों में बसने की कोशिश कर रहे हैं. यदि ओइसीडी (आर्थिक सहयोग और विकास संगठन) देश धार्मिक बहुसंख्यक की सापेक्ष ताकत में कमी और धार्मिक अल्पसंख्यकों की ताकत में इजाफा का अनुभव कर रहे हैं, तो यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि भारतीय बढ़ती तादात में इस जनसांख्यिकीय बदलाव में योगदान दे रहे हैं.

1970 के दशक में बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक उथल-पुथल की वजह से इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण जनसांख्यिकीय परिवर्तन हुए हैं. हाल के दिनों में बंगलादेश ने जनसांख्यिकीय स्थिरता का उच्च स्तर हासिल किया है और विभिन्न सामाजिक और आर्थिक विकास संकेतकों के मामले में भारत से बेहतर प्रदर्शन कर रहा है, जिसमें भारत की तुलना में कुल प्रजनन दर का कम होना भी है. भारत में मुस्लिमों की आबादी के बढ़ने का दुष्प्रचार करने वाले बंगलादेश पर ही अपना ध्यान केंद्रित करते हैं, लेकिन श्रीलंका के हालात की कोई खोज-खबर नहीं ली जाती. श्रीलंका की तमिल हिंदू आबादी के नरसंहार की वजह से हिंदू आबादी में 5% की कमी आई और बौद्ध समुदाय की संख्यात्मक ताकत में इसी तरह की वृद्धि दर्ज की गई है. भारत में भेदभावपूर्ण और विभाजनकारी नागरिकता संशोधन कानून, जो कथित तौर पर बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के मुद्दे को उठाता  है, श्रीलंका के हालात के बारे में स्पष्ट रूप से चुप है. यह एकतरफा दृष्टिकोण अत्यधिक चिंताजनक है और कानून के पीछे के वास्तविक इरादों पर सवाल उठाता है.

यह वास्तव में बेहद शर्मनाक और चिंताजनक है कि प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद का इस्तेमाल संघ ब्रिगेड के साजिश भरे भयावह राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए किया जा रहा है. हमने देखा कि भारत की स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ के मौके पर प्रधानमंत्री के शीर्ष आर्थिक सलाहकार ने खुले तौर पर डॉ. अंबेडकर द्वारा लिखे गए संविधान को पुराना करार देते हुए एक नया संविधान बनाने का सुझाव दिया था. और अब 167 देशों के अध्ययन की समीक्षा की आड़ में प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकारों का यह समूह जहरीले मुस्लिम विरोधी अभियान को गोला-बारूद प्रदान करने की कोशिश कर रहा है, जिसका नेतृत्व खुद प्रधानमंत्री मोदी कर रहे हैं. भारत की जनसंख्या को एक बोझ के बतौर देखने का माल्थुसियन नजरिया जनसंख्या वृद्धि को एक समस्या मानता है और अतीत के कई गलत नीतिगत निर्णयों की बुनियाद में है. भारतीय जनसंख्या की धार्मिक संरचना पर जोर देना साफ तौर से गलत तरीके से प्राथमिकताओं का निर्धारण है. भारत को तत्काल प्रभावी रोजगार नीतियों की जरूरत है ताकि वर्तमान में बर्बाद हो रहे जनसांख्यिकीय लाभांश का दोहन किया जा सके. इसके अलावा, जाति जनगणना करना अधिक समावेशी प्रतिनिधित्व नीतियों का मार्ग प्रशस्त करने के लिए महत्वपूर्ण कदम है जो भारत की सामाजिक अन्याय और असमानता की गहरी जड़ें जमा चुकी व्यवस्था को चुनौती देता है.