- गेल ओम्बेट
समकालीन लोकयुद्ध आजादी के 75वें वर्षगांठ के मौके पर (स्व.) गेल ओम्बेट का यह लेख सिलसिलेवार ढंग से प्रकाशित कर रहा है. पहले हम गेल के जीवन साथी और कार्यकर्ता भरत पाटंकर द्वारा लिखित संक्षिप्त भूमिका पेश कर रहे हैं - सं
[‘स्वतंत्रता’ और भारतीय इतिहास के जिस मोड़ पर यह हमें मिली, उसके बारे में चल रही बहस की पृष्ठभूमि में डा. गेल ओम्बेट का यह शोधपत्र काफी महत्वपूर्ण योगदान देता है, जिसमें स्वतंत्रता आन्दोलन के उन पहलुओं को उजागर किया गया है जिनके बारे में हमें काफी कम जानकारी है. यह दिखाता है कि उन महत्वपूर्ण कारकों को समझने के लिए अभी भी बहुत शोध की जरूरत है, जिनके चलते ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासकों को हमेशा के लिए भारतीय उप महाद्वीप को छोड़ना पड़ा. गेल ने तत्कालीन कांग्रेस पार्टी द्वारा ‘भारत छोड़ो’ और ‘करो या मरो’ का नारा जब दिया गया था, उसके बाद स्वतंत्रता आन्दोलन के अंतिम चरण में महाराष्ट्र के सतारा जिले में ‘समानांतर सरकार’ आन्दोलन का विश्लेषण किया है. इस जिले के अधिकांश इलाके में नौजवानों के सेवादल थे, जन-अदालतें थीं जिसने ब्रिटिश अदालतों को फालतू बना दिया था, हर गांव में प्रगतिशील किताबों से भरे पुस्तकालय थे. ब्रिटिश सरकार के दमनकारी तंत्र के सबसे निचले स्तर के प्रतिनिधि ‘पुलिस पाटिलों’ को इस्तीफा देने के लिए बाध्य होना पड़ा, या फिर उन्होंने खुद ही अपने पदों से इस्तीफा दे दिया. स्वतंत्रता सेनानी उस इलाके में खुलेआम घूमते-फिरते थे. 1943 से 1946 तक ब्रिटिश सरकार इस समानांतर सरकार को शिकस्त नहीं दे सकी थी. चूंकि यह सरकार सामंती भूस्वामियों, सूदखोरों, अपराधियों, बलात्कारियों और महिलाओं पर अत्याचार करने वालों के खिलाफ न्याय देती थी, इसीलिए जनता अपनी समानांतर सरकार को ब्रिटिश हुकूमत के उत्पीड़नकारी तंत्र से रक्षा कर रही थी. गेल ने वर्गीय, जातीय और लैंगिक विश्लेषण के साथ इस इतिहास को सामने लाया है और मुक्तिकामी जनता के सपने को साकार करने की ओर आगे बढ़ने की इसकी क्षमता को उजागर किया है.
गेल का विश्लेषण स्वतंत्रता आन्दोलन के इस किस्म के पहलुओं की शक्ति और संभावना को सामने लाता है. इसी के साथ, वे शोषित जन समुदायों के बीच से ही जीवंत बुद्धिजीवियों के पैदा होने की संभावना को भी दिखाती हैं. उनका विश्लेषण दिखाता है कि ऊची जातियों और वर्गों के बीच से आने वाले तथाकथित स्वातंत्रय योद्धाओं की भूमिका इन जीवंत बुद्धिजीवियों की तुलना में पांच प्रतिशत भी नहीं थी, फिर भी उनका ही गुणगान किया जाता है.
यह लेख पाठकों के सृजनात्मक चिंतन को अनुप्रेरित करेगा जिससे वे समकालीन सच्चाई को, और मुक्तिकामी जनता के सपने को साकार करने की दिशा में समाज को बदलने के वैकल्पिक रास्तों के बारे में अपनी समझ विकसित कर सके. - भरत पाटंकर ]
नाना पाटिल : मैं नहीं जानता, मैंने और मेरे सहकर्मियों ने सतारा जिले में जो कार्रवाइयां चलाई हैं, वे आपके सत्य और अहिंसा के दर्शन से मेल खाते हैं या नहीं. लेकिन अपना काम करने में हमने यथासंभव आपके उसूलों को लागू करने का प्रयास किया है. हमने ट्रेनों को ध्वस्त किया है, लकिन एक भी पैसेंजर ट्रेन हमने नहीं नष्ट नहीं किया. किंतु हमने हत्या, बलात्कार या लूट-पाट करने वालों के हाथ तोड़े हैं और हमने पुलिस के मुखबिरों को भी पीटा है. लेकिन अगर हमने ऐसा नहीं किया होता, तो हम कुछ भी करने में समर्थ नहीं हो पाते. हम कोई आन्दोलन नहीं खड़ा कर पाते. आपने हमें अगस्त 1942 में ‘करो या मरो’ की जो सलाह दी थी, और आपने हमें यह जो सलाह दी कि अगर राष्ट्रीय नेताओं को जेल भेजा जाता है, तो हर भारतीय खुद को स्वतंत्र समझे और अपनी समझ के मुताबिक अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने के लिए आन्दोलन संगठित करे, उसी सलाह पर हमने अमल किया. हमने शिवाजी महाराज के छापेमार तरीकों के जरिये अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई की.
गांधी : नाना पाटिल, आपका आन्दोलन मेरे दर्शन से मेल खाता है या नहीं, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह तथ्य कि आपने 1942 के आन्दोलन को जिंदा रखा, और सतारा ने इस आन्दोलन के नाम की हिफाजत की. मैं उनमें से एक हूं जो महसूस करते हैं कि एक बहादुर की हिंसा एक कायर की अहिंसा से बेहतर है!
(गांधी और नाना पाटिल के बीच एक वार्तालाप, मई-जून 1944)
1942 में 9 अगस्त को तमाम बड़े कांग्रेसी नेताओं की गिरफ्तारी के बाद अगस्त क्रांति फूट पड़ी. बंबई में ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी (एआइसीसी) द्वारा ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव स्वीकार किए जाने से प्रेरित होकर दसियों लाख आम किसान, मजदूर, छात्र, मध्यवर्गीय पेशाकर्मी, शिल्पकार और कर्मचारी रैलियों, प्रदर्शनों, पुलिस के साथ मुठभेड़ों, तोड़फोड़ और अन्य विभिन्न किस्म की भूमिगत कार्रवाइयों में शामिल होने लगे थे - इस जोशीले विश्वास के साथ, कि स्वतंत्रता संघर्ष की अंतिम लड़ाई आ गई है. इस बार वे लोग सिर्फ इस विचार से नहीं लड़ रहे थे कि वे हिंसक तरीकों समेत तमाम तरीके अपनाने के लिए स्वतंत्र हैं, बल्कि इस सोच के साथ भी कि किसी न किसी रूप में वे अपना भविष्य अपने हाथों में लेंगे और अपनी खुद की सरकार बनाएंगे. कुछ ही महीने में मूलतः यह नेतृत्वविहीन जन उभार राष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटिश सैन्य शक्ति के द्वारा कुचल दी गई. लेकिन तोड़फोड़ और अन्य गुरिल्ला कार्रवाइयां एक साल तक मजबूती से और छिटपुट ढंग से उसके बाद भी चलती रहीं, और स्थानीय स्तर पर कुछ भूमिगत गतिविधियां तो तबतक चलती रहीं, जबतक कि स्वतंत्रता एक निश्चित तथ्य के बतौर नहीं दिखलाई नहीं पड़ने लगी और 1946 में चुनाव की घोषणा न हो गई.
1942 और 1943 की शुरूआत में पूरे पश्चिमी महाराष्ट्र में ऊंचे स्तर की गुरिल्ला गतिविधियां और विद्रोह की लहरें फैली हुई थीं, हालांकि बिहार के जितना नहीं. लेकिन सतारा जिले में ये कार्रवाइयां कुछ आगे बढ़ गई थीं : अंग्रेजों के दमन और कांग्रेसी नेतृत्व की उपेक्षा के बावजूद यहां भूमिगत गतिविधियां लंबे समय तक जारी रहीं और एक समानांतर सरकार भी गठित की गई जो 1946 तक काम करती रहीइन गतिविधियों में जन-अदालतें (न्यायदान मंडल) और विभिन्न किस्म की हथियारबंद कार्रवाइयां और रचनात्मक कार्यक्रम भी शामिल रहे. आन्दोलन के अधिकांश कार्यकर्ता 1944 तक गिरफ्तारी से पूरी तरह बचते रहे, उसके बाद कुछ लोग तो गांधी की सलाह पर खुद ही पकड़ा गए और कुछ अन्य को पकड़ लिया गया. लेकिन दूसरे लोगों ने उनकी जगह ले ली और अधिकांश लोग तो कभी पकड़े ही नहीं जा सके. सच पूछिये तो, इस समानांतर सरकार ने उस समय प्रभावी ढंग से काम करना शुरू किया था जब भारत में अन्य जगहों पर ऐसे आन्दोलन दबा दिए गए थे, और यह सरकार आजादी मिलने तक चलती रही थी. पुलिस के साथ इसकी अंतिम हथियारबंद मुठभेड़ (जिसमें दो लोगों की मृत्यु हुई) 1946 में नौ-सेना विद्रोह के बाद हुई थी.
1942 के आन्दोलन ने ब्रिटिश हुकूमत के अंत का संकेत कर दिया. आन्दोलन से स्पष्ट हो गया था कि लगातार शक्तिशाली हो रहे संगठित विरोध के सामने साम्राज्यवादियों के पास बलपूर्वक इस देश पर शासन करने की कूव्वत नहीं रह गई थी. चंद किताबें जो अंग्रेजी में हैं, और स्थानीय विद्रोहों के बारे में जो लेख आने शुरू हुए हैं, उनमें इस आन्दोलन का कोई गंभीर अध्ययन नहीं है. लगता है कि यह आन्दोलन ब्रिटिश हुक्मरानों के लिए ही नहीं, बल्कि जिस पार्टी के हाथों सत्ता सौपी गई, उसके लिए भी एक चुनौती थी - सिर्फ इसलिये नहीं कि इसका उभार अ-हिंसा की विचारधारा के प्रतिकूल था, बल्कि उससे भी ज्यादा इसलिए कि इसका आधार उन खास वर्गों और राजनीतिक शक्तियों के बीच था जो भिन्न किस्म की आजादी, एक ‘मजदूर-किसान’ राज्य, की मांग करने के लिए खुद को तैयार कर रहे थे. सतारा के दृष्टांत ने एक विडंबना को जन्म दिया - जहां काग्रेस के प्रमुख मराठा नेतागण यह दावा करने को मजबूर हुए कि यह आन्दोलन उनकी विरासत है, वहीं इस आन्दोलन के वास्तविक नेता उनके स्थायी विपक्ष बने रहे. कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर खोजा जाना अभी बाकी है - यह आन्दोलन खास तौर पर सतारा जिले में कैसे विकसित हुआ, और पश्चिमी महाराष्ट्र की राजनीतिक सत्ता और सामाजिक संरचना के विकास के लिए इसका क्या महत्व है?
सतारा जिला
1942 का सतारा (जिसमें आज के सतारा के अलावा आज के सांगली जिले का बड़ा हिस्सा भी शामिल था) शुरूआती समय से ही मराठों का राजनीतिक केंद्र रहा है. शिवाजी के समय से लेकर शुरूआती बीसवीं सदी के ब्राह्मण-विरोधी आन्दोलन, 1930 और 1940 के दशकों में राष्ट्रवादी आन्दोलन, ‘संयुक्त महाराष्ट्र’ आन्दोलन और महाराष्ट्र में कांग्रेस पार्टी के लगभग चुनौती-विहीन वर्चस्व तक, सतारा ने अपना यह केंद्रीय महत्व बरकरार रखा. यह एक खास किस्म का किसान जिला प्रतीत होता था जहां न तो ब्राह्मण प्रभुत्व का कोई साया था जो पुणे से लेकर उत्तर तक दिखता है, और न ही वैसे ‘सामंती’ अवशेष मिलते हैं जो एक समय के कोल्हापुर रियासत से लेकर दक्षिण तक में मिलते हैं. हालांकि आज इनमें से अनेक किसान पूंजीवादी फार्मर बन गए हैं; और गन्ने की हरी-भरी खेत, सहकारी चीनी मिलें, शैक्षिक संस्थाएं, डेयरी और सिंचाई सोसाइटियां इसे महाराष्ट्र के ‘चीनी प्रभुओं’ का केंद्रीय स्थल बना रही हैं जिसने राज्य के नामी-गिरामी राजनीतिक नेताओं को सहारा दिया है - वाइबी चह्वाण (कांग्रेसी नेता, महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री और केंद्र सरकार के एक महत्वपूर्ण मंत्री जिनका निधन 1984 में हुआ), वसंतदादा पाटिल (कांग्रेसी नेता और पूर्व मुख्य मंत्री), राजारामबापू पॉल (पूर्व के कांग्रेसी नेता और 1984 में अपनी मृत्यु के समय तक जनता पार्टी के राज्य अध्यक्ष), एनडी पाटिल (किसान मजदूर पार्टी के नेता). 1850-51 में सतारा ब्रिटिश नियंत्रण में चला गया था और बंबई प्रेसिडेंसी के गजेटियर में इन शब्दों में इसका उल्लेख हुआ है :
सतारा के अनुमंडल - तासगांव, कराड, वाल्वा, जाल्वी और वैई जो सह्याद्रि के सबसे निकट थे - जमीन और आबोहवा के मामले में सबसे उपयुक्त थे, सबसे धनी थे, सबसे उर्वर और सबसे घनी आबादी वाले थे. वे विभिन्न नदियों और मौसमी बारिश से सिंचित इलाके थे. ऊंचे पहाड़ उनके आरपार गुजरते थे जिनकी सीधी ढलानें प्राय: फसलों से भरी होती थीं और जिनके शिखरों पर खेत और गांव होते थे. इन अनुमंडलों में अधिकांश जमीन उन मालिकों के हाथ में होती थीं जिन्हें तबतक नहीं उजाड़ा जा सकता था, जबतक कि वे सरकारी किराया अदा कर सकते थे. इसी वजह से जिले के पश्चिमी हिस्से में सबसे ज्यादा खेती होती थी. ये भूधारी, जिनमें से अधिकांश कुनबी थे, काफी कुशल और परिश्रमी होते थे. वे फसल चक्र, खाद के मूल्य और कुछ जमीन को परती रखकर उसे पुन: उपजाई बनाने की समझ रखते थे. निजी जोतें काफी कम होती थीं. ...
कृष्णा नदी और उसकी उप-धाराओं की इन काली मिट्टी की घाटियों में बसे ये केंद्रीय और पश्चिमी तालुके, जो सह्याद्रियों से घिरे थे, अपने बड़े गांवों के लिए जाने जाते थे - कई गांवों में तो उन्नीसवीं सदी में भी चार से पांच हजार तक की आबादी होती थी और आज वहां 10,000 से भी ज्यादा की आबादी है. किसानों की खाद्यफसल ज्वार (जवारी) होती थी; लेकिन गन्ना, तंबाकू और मिर्च जैसी वाणिज्यिक फसलें, जो आज अर्थतंत्र के लिहाज से केंद्रीय महत्व रखती हैं, 1850 में भी उपजाई जाती थीं और फिर आम के बगीचे, कपास और सागवान के जंगल भी पाये जाते थे. ये तालुके और तत्कालीन वाल्वा के मुख्यतः पर्वतीय इलाके, पाटन और शिरालापेठ, 1942 आन्दोलन के केंद्र थे. खानापुर, खाटव और कोरेगांव के पूर्वी सूखे तालुकों के लोग भी इसमें शामिल रहे थे, लेकिन कम प्रमुखता सेसतारा शहर के उत्तर वाले सतारा जिले के हिस्सों में समानांतर सरकार की पहुंच न के बराबर थी.
जाति के लिहाज से, इस जिले में कुनबियों (मराठा कुनबी) का वर्चस्व था जो 1930 की जनगणना में कुल आबादी का 50 प्रतिशत थे. किसी भी अन्य इलाके की अपेक्षा सतारा जिले में इस प्रसिद्ध ‘किसान योद्धा’ जाति का ज्यादा संकेंद्रण था. ब्रिटिशों की निगाह में एक ओर तो वे असभ्य और लुटेरा समुदाय थे जो उनके साम्राज्य के लिए खतरा थे, तो दूसरी ओर वे समृद्धशाली किसान भी थे जो उसके आर्थिक आधार थे.
मराठा सेनानायक आम तौर पर रूखी जुबान वाले और नासमझ होते थे और वे अपने सामान्य योद्धाओं से इतने मिलते-जुलते होते थे कि वे यूरापियनों की निगाह में आये बगैर अपनी जगह बदल ले सकते थे. मराठा किसानों के मन में अपने राष्ट्र की पहले की विजयों को लेकर गर्व है और वे सैन्य कार्रवाइयों में शामिल होने की थोड़ी इच्छा अभी भी रखते हैं, लेकिन वर्तमान में वे सौम्य और उद्यमशील स्वभाव के हो गए हैं.
आज जो लोग खुद को मराठा कहते हैं, उन्हें पहले के गजेटियरों में ‘कुनबी’ कहा जाता थाऋ लेकिन आज की तरह उस वक्त भी उन्हें विभिन्न समुदायों में बांटा जाता था - कुछ को कुलीन अथवा ‘शाहानाकुली’ का दर्जा दिया गया और शेष सब की हैसियत साधारण कुनबी की थी. लेकिन इस विभाजन पर कुछ विवाद भी थे : इन दो समुदायों के बीच आपस में विवाह होते थे, और दोनों तबकों के अधिकांश परिवार बुनियादी रूप से किसान होते थे और उनकी साझा सैन्य परंपरा भी थी. सैन्यवाद के इन पहलुओं में आपसी पारिवारिक झगड़े-फसाद भी शामिल थे जो जमीन अथवा सामाजिक हैसियत को लेकर शुरू होते थे और पीढ़ियों तक चलते रहते थे. परंपरा तो यह थी कि अगर किसी आदमी की हत्या हुई तो उसके परिवार के एक बच्चे को चुन लिया जाता था और उसका लालन-पालन और प्रशिक्षण इस तरह से किया जाता था कि वह बड़ा होकर हत्या का बदला ले सके. खुद जिला गजेटियर में इस जिले के एक गांव (कासेगांव), जो बाद में विद्रोह का केंद्रस्थल बना, के बारे में उल्लेख है कि उस गांव के निवासी अपराध और झगड़े-फसादों, फसलों को नुकसान पहुंचाने, मवेशियों को जहर देने और लूटपाट करने के लिए जाने जाते हैं, और वाल्वा तथा शिरालापेठ तालुकों के पहाड़ी इलाकों में डकैती तो आम बात है.
दूसरी गैर-ब्राह्मण जातियां, जिनमें धांगरा (गड़ेरिये), कारीगर जातियां और यहां तक कि अछूत भी शामिल थे, आम मराठा संस्कृति को साझा करती थीं. अछूतों के बीच महारों को गांव और विभिन्न सामंती मालिकों के लिए जबरिया श्रम करना पड़ता था, लेकिन तमिलनाडु अथवा केरल राज्यों की तरह उनपर चरम किस्म की गुलामी का बंधन नहीं रहता था. इस जाति ने आधुनिक भारत में डा. अंबेडकर के नेतृत्व में चले सबसे जुझारू दलित आन्दोलन को सामाजिक आधार प्रदान किया.
हालांकि बंबई गजट में इस क्षेत्रा को छोटी जोतों की प्रधानता वाला रैयतवारी इलाका बताया गया है, फिर भी यहां काफी मात्रा में जमींदारी मौजूद थी. एक ओर विभिन्न किस्म के भूमि अलगाव (एलिएनेशन) मौजूद थे और सैनिक अथवा पुरोहिताई सेवाओं के लिए इनाम भी दिये जाते थे. दो दशकों के पेशवा शासन के बाद ब्रिटिश विजय होने तक इसका लाभ मुख्यतः ब्राह्मणों को ही मिला करता था. मराठा सामंतवादी बाद में भी मौजूद रहे और कोल्हापुर तथा (1850 तक) सतारा समेत कुछ अन्य छोटी रियासतों पर मराठों का शासन रहा, लेकिन दो बड़ी रियासतों (मीराज और सांगली) तथा कुछ अन्य छोटी रियरसतों पर ब्राह्मणों का शासन चला करता था. इसके साथ ही, जैसा कि पर्लिन ने दिखाया है, पेशवा काल के अंतिम समयों में रैयतवारी व्यवस्था को खत्म कर मराठा और ब्राह्मण सामंतवादियों ने वहां विभिन्न किस्म के ‘पाटिकी’, देशमुखी या इनाम के अधिकार हासिल कर जमींदारी का आर्थिक आधार बनाना शुरू कर दिया था, और अनेक गांवों का प्रबंधन किसी एक बड़े सामंती परिवार के हाथों में रहता था. इसके साथ-साथ, इस क्षेत्र की समृद्ध कृषि से बढ़ रहे व्यापार को निचले स्तरों पर व्यापारी समुदाय (स्थानीय बनिया, दक्षिणी जैन बनिया और तेली आदि) नियंत्रित करते थे, और ऊपरी संस्तरों पर ब्राह्मण बैंक-मालिकों का नियंत्रण रहता था.
इस प्रकार, इस जिले की सामाजिक संरचना को जातीय-सामंतवादी संरचना कहा जा सकता है. इसके शीर्ष पर होते थे सामंती शासक और जमींदार (मुख्यतः ब्राह्मण और कुलीन मराठे), और उसके बाद आते थे व्यापारी और पुरोहित तथा प्रशासकीय अधिकारी जो उनकी सत्ता को सहारा देते थे. यह सामंती संरचना गांव स्तर पर भी छा गई थी और इसमें स्थानीय इनामधारी, गांव पाटिल के परिवार या वंश और ब्राह्मण मुनीम तथा पुरोहित शामिल रहते थे. शोषित मेहनतकश भी अविभाजित वर्ग के रूप में नहीं थे, बल्कि वे जातियों के आधार पर तीन प्रमुख समुदायों में बंटे हुए थे - खोतिहर किसान, कारीगर और अछूत खेत मजदूरअनेक कारीगरों और अछूतों को उनके काम के एवज में फसल का एक हिस्सा लेने का अधिकार होता था, लेकिन जमीन पर उनका कोई अधिकार नहीं हो सकता था. कुनबी-मराठों का बहुसंख्यक समुदाय भी जमीन पर विभिन्न मात्रा में अधिकार के हिसाब से विभिन्न श्रेणियों में बंटा होता था, और उनका सबसे ऊपरी हिस्सा ब्रिटिश विजय के पहले भी सामंती शोषक श्रेणी में शामिल हो जाया करता था. बहुजन समाज और शेटजी-भटजी के बीच के इस विभाजन की जड़ें इस आरंभिक काल में ही गड़ी हैं और यही विभाजन बाद में गैर-ब्राह्मण आन्दोलन का केंद्रीय विषय बन गया.