वर्ष - 30
अंक - 1
01-01-2021

 

कड़ाके की ठंड के बावजूद 29 दिसंबर को पटना की सड़कों पर हजारों की तादाद में किसानों के उमड़े जनसैलाब ने दिल्ली और पूरे देश में चल रहे किसान आंदोलन में एक नया मोड़ ला दिया है. तीनों काले कृषि कानूनों के खिलाफ विगत एक महीने से दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन को भाजपा व संघ गिरोह ने विभिन्न तरीकों से बदनाम करने व उसमें फूट डालने की ही कोशिश की है. उसमें उनका सबसे बड़ा तर्क यह था कि यह आंदोलन पंजाब का आंदोलन है, बड़े फार्मरों का आंदोलन है, बिहार जैसे राज्यों में तो किसी भी प्रकार का आंदोलन है ही नहीं. दरअसल बिहार में मंडियों को भाजपा-जदयू सरकार ने बहुत पहले 2006 में ही खत्म कर दिया है. वे इसी बात को प्रचारित कर रहे थे कि मंडियों की व्यवस्था खत्म हो जाने से किसानों को ही फायदा होगा कि वे कहीं भी अपना अनाज बेच सकते हैं. भाकपा-माले महासचिव काॅ. दीपंकर भट्टाचार्य ने भाजपा द्वारा फैलाए जा रहे इस भ्रम पर टिप्पणी करते हुए कहा कि यदि मंडियों को खत्म कर देने से किसानों की हालत में सुधार होता, तो आज बिहार के किसान सबसे खुशहाल होते. लेकिन हकीकत ठीक विपरीत है. बिहार के किसानों की हालत देश में सबसे खराब है. यहां एमएसपी पर कभी धान अथवा अन्य फसलों की खरीददारी नहीं होती. यहां के किसान 800-900 रु. प्रति क्विंटल की दर से अपना धान बिचैलियों के हाथ बेचने को मजबूर हैं. दिल्ली के बाॅर्डर को घेर चुके पंजाब के किसान भी लगातार कह रहे थे कि मंडियों को खत्म कर देने से बिहार के किसानों की जो हालत हुई है, वही चीज अब हमारे ऊपर थोपा जा रहा है. इस कारण बिहार से किसान आंदोलन की एक मजबूत आवाज उठना आज की सबसे फौरी मांग थी.

और सचमुच 29 दिसंबर को बिहार के किसानों ने दिखला दिया कि वे भाजपा-जदयू की हर एक चाल को समझते हैं. तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने, बिजली बिल 2020 वापस लेने, न्यूनतम समर्थन मूल्य पर धान सहित सभी फसलों की खरीद की गारंटी करने और मंडी व्यवस्था फिर से बहाल करने की मांग पर हजारों की तादाद में वे पटना पहुंचे.

पखवारे भर पहले शुरू हुई तैयारी

तीनों काले कृषि कानूनों के खिलाफ बिहार के किसानों को संगठित करने के उद्देश्य से अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के वर्किंग ग्रुप के सदस्य व बिहार-झारखंड के प्रभारी राजाराम सिंह ने विगत 14 दिसंबर को सभी सदस्य संगठनों की एक बैठक पटना में बुलाई. इस बैठक में अखिल भारतीय किसान महासभा के अलावा सीपीआई, सीपीआईएम से जुड़े किसान संगठनों के अलावा अन्य कई किसान संगठन शामिल हुए. इसी बैठक से 29 दिसंबर को किसानों का राजभवन मार्च करने का प्रस्ताव लिया गया. राजभवन मार्च की तैयारी में अखिल भारतीय किसान महासभा ने पूरे बिहार में किसान संघर्ष यात्राओं और किसान पंचायतों का आयोजन किया. राज्य में लगभग 2000 के करीब किसान पंचायतें आयोजित की गईं. इन पंचायतों से तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने के प्रस्ताव लिए गए. पदयात्राओं का आयोजन किया गया. किसान पंचायतों में बड़ी संख्या में किसानों की भागीदारी हुई. छोटे-मझोले-बटाईदार किसानों के साथ-साथ मध्यवर्गीय किसानों व कृषक मजदूरों की व्यापक भागीदारी दिखी. 26 दिसंबर को बिहार में सैंकड़ो स्थानों पर किसानों ने किसान आंदोलन के एक महीने पूरे होने पर भी मोदी सरकार की संवेदनहीनता के खिलाफ धिक्कार दिवस का आयोजन किया और 27 दिसंबर को प्रधानमंत्री मोदी के ‘मन की बात’ को बकवास कहते हुए थाली पीटकर अपने गुस्से का इजहार किया. भोजपुर, सिवान, पटना, अरवल, जहानाबाद, मुजफ्फरपुर, रोहतास, गया, नालंदा, नवादा सहित अधिकांश जिलों में इन आंदोलनों के जरिए राजभवन मार्च में शामिल होने के लिए किसानों की गोलबंदी पर जोर दिया गया.

28 दिसंबर की शाम से ही बसों व अन्य वाहनों के जरिए दूर-दराज के इलाके के किसान पटना पहुंचने लगे. 29 दिसंबर की सुबह गांधी मैदान में हजारों की तादाद में किसान एकत्रित हो गए. पूरा गांधी मैदान किसानों के लाल झंडे के सैलाब से जैसे उमड़ पड़ा. मार्च निकलने के पहले जगह-जगह किसानों का जत्था गीतों के माध्यम से अपने आक्रोश का इजहार करते रहे. भोजपुर के लोकप्रिय गायक कृष्ण कुमार निर्माेही के गीतों पर लोग लगातार ताल दे रहे थे – भइया किसनवां हो, मोर्चा बनाव बरियार. जैसे-जैसे समय चढ़ने लगा किसानों की तादाद बढ़ने लगी. लगभग पटना पहुंचने वाली तमाम सड़कों से बसों में भरकर किसान आते रहे. प्रशासन का रूख बेहद नकारात्मक रहा. गांधी मैदान के गेट नंबर 10 से मार्च निकालने की बात थी, लेकिन प्रशासन ने उस गेट को खोला तक नहीं. काफी हुज्जत के गेट नंबर 6 खोला गया. 12 बजे मार्च आरंभ हुआ. अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के मुख्य बैनर के सबसे आगे अखिल भारतीय किसान महासभा के महासचिव काॅ. राजाराम सिंह थे. उनके साथ अन्य दूसरे संगठन के नेतागण भी शामिल थे. अखिल भारतीय किसान महासभा के अन्य नेताओं में राज्य सचिव रामाधार सिंह, किसान सभा के वरिष्ठ नेता केडी यादव, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष शिवसागर शर्मा, विधायक व किसान नेता सुदामा प्रसाद, राज्य अध्यक्ष विशेश्वर यादव, उमेश सिंह आदि नेता शामिल थे. माले विधायक महबूब आलम, बीरेन्द्र प्रसाद गुप्ता, सत्यदेव राम, अरूण सिंह, मनोज मंजिल, संदीप सौरभ, महानंद सिंह, रामबलि सिंह यादव, अजीत कुशवाहा आदि नेता भी मार्च में शामिल थे. मार्च में खेग्रामस के सम्मानित राष्ट्रीय अध्यक्ष व पूर्व सांसद रामेश्वर प्रसाद, खेग्रामस के महासचिव धीरेन्द्र झा, ऐपवा की महासचिव मीना तिवारी, ऐपवा की राज्य अध्यक्ष सरोज चौबे, आशा कार्यकर्ताओं की नेता शशि यादव, ऐक्टू नेता आरएन ठाकुर आदि शामिल हुए. इस तरह किसान मार्च को खेतिहर मजदूर संगठनों का भी व्यापक समर्थन हासिल हुआ.

मार्च काफी आक्रामक था. गांधी मैदान से निकलते ही जेपी चौक पर प्रशासन ने मार्च को बैरिकेड लगाकर रोकना चाहा, लेकिन प्रदर्शनकारी किसानों ने बैरिकेड तोड़ दिया और वे डाकबंगला चौराहा की ओर बढ़ गए. पुलिस के साथ झड़प भी हुई. डाकबंगला चौराहा से पहले भी प्रशासन ने मार्च को रोकने का प्रयास किया, लेकिन प्रदर्शनकारियों की संख्या व आक्रामकता को देखकर वे पीछे हट गए. मार्च डाकबंगला चौराहा पहुंचा, वहां प्रशासन ने मजबूत बैरिकेडिंग कर रखी थी. प्रदर्शनकारी किसानों ने कहा कि उन्हें अपना ज्ञापन पत्र राज्यपाल महोदय को देना है, इसलिए आगे जाने दें. लेकिन प्रशासन अपनी जिद पर अड़ा रहा और अचानक उसने प्रदर्शनकारी किसानों पर लाठीचार्ज कर दिया. किसान नेताओं को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया. इस लाठीचार्ज में गोपालगंज के माले कार्यकर्ता व किसान नेता रवीन्द्र राम का सर फट गया. उनके सर से खून की धारायें बहने लगीं. ऐपवा की महासचिव मीना तिवारी रवीन्द्र राम की रक्षा में आगे बढ़ीं. किसान महासभा के बिहार राज्य अध्यक्ष विशेश्वर यादव पर दर्जनों लाठियां एक साथ पड़ीं. लाठीचार्ज में धीरेन्द्र झा व अन्य दूसरे किसान नेताओं को भी चोटें लगीं. लाठीचार्ज के कारण कई लोग सड़क पर गिर पड़े. उसके बाद प्रदर्शनाकरी किसानों ने अपनी तरफ से बैरिकेडिंग कर दी और गांधी मैदान से डाकबंगला चौराहे की ओर आने वाली सड़क को दोनों ओर से घेरकर सभा आरंभ कर दी.

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किसान नेताओं ने कहा

इस सभा को मुख्य रूप से किसान महासभा के महासचिव राजाराम सिंह, सीपीआई के किसान नेता अतुल कुमार अंजान, नंद किशोर शुक्ला, अशोक धावले आदि नेताओं ने संबोधित किया. अपने संबोधन में राजाराम सिंह ने कहा कि देश के किसान ही देश हैं, हमसे ही देश चलता है, हमसे देश की माटी व धरती बनती है और इतिहास बनता है. मोदी सरकार देश में कंपनी राज चाहती है. हमने एक समय कंपनी राज देखा है. इसी बिहार के चंपारण में नीलहों का राज देखा है और गांधी जी के नेतृत्व में हमने 1917 में चंपारण सत्याग्रह किया था. अब हमें आजादी की दूसरी लड़ाई लड़नी है. भाजपा के लोग कंपनियों व काॅरपोरेटों का भारत बनाना चाहते हैं, और हम किसानों व मजदूरों का भारत बनाना चाहते हैं. आज इसी दो रास्ते की लड़ाई है जो हमें लड़नी है. जिन लोगों ने भाजपा को वोट दिया था, आज वे पश्चाताप में है. कह रहे हैं कि बड़ी भूल हो गई. मोदी सबकुछ बेचते-बेचते अब हमारी खेती बेच रहा है. हमसे खेती छीन रहा है. यह आशंका आज भाजपा के भी आधार में है. आज खेती पर संकट आया है तो लाल झंडे की किसान सभायें देश के कोनेे-कोने तक किसानों के हर हिस्से के पक्ष में मजबूती से खड़ी है. भाजपा के लोग कान खोलकर सुन लें कि यदि हमारी मांगें नहीं मानी गईं तो देश के किसी भी घर में कमल छाप का झंडा दिखलाई नहीं पड़ेगा.

अन्य वक्ताओं ने कहा कि आज भगत सिंह का पंजाब और स्वामी सहजानंद के किसान आंदोलन की धरती बिहार के किसानों की एकता कायम होने लगी है, इससे भाजपाई बेहद डरे हुए हैं. बिहार की धरती सहजानंद सरस्वती जैसे किसान नेताओं की धरती रही है, जिनके नेतृत्व में जमींदारी राज की चूलें हिला दी गई थीं. आजादी के बाद भी बिहार मजबूत किसान आंदोलनों की गवाह रही है. 70-80 के दशक में भोजपुर और तत्कालीन मध्य बिहार के किसान आंदोलन ने किसान आंदोलन के इतिहास में एक नई मिसाल कायम की है. अब एक बार नए सिरे से बिहार के छोटे-मंझोले-बटाईदार समेत सभी किसान आंदोलित हैं. बिहार से पूरे देश को उम्मीदें हैं. आज 29 दिसंबर के राजभवन मार्च ने साबित कर दिया है कि अब पूरा देश भाजपा के खिलाफ उठ खड़ा हुआ है. सभा को तरारी विधाायक सुदामा प्रसाद ने भी संबोधित किया. वे उसी दिन दिल्ली किसान आंदोलन में अपनी भागीदारी निभाकर पटना लौटे थे. उन्होंने कहा कि पंजाब के किसानों को बिहार के किसानों से बहुत उम्मीद है.

सभा की समाप्ति के उपरांत किसान संघर्ष समन्वय समिति के नेताओं ने अपना एक ज्ञापन बिहार के राज्यपाल को सौंपा. अखिल भारतीय किसान महासभा की ओर से प्रतिनिधिामंडल में घोषी के विधायक रामबलि सिंह यादव शामिल हुए. राज्यपाल की अनुपस्थिति में प्रतिनिधिमंडल ने अपना ज्ञापन बिहार के राज्यपाल के सचिव को सौंपा.

किसान महासभा के राज्य सचिव रामाधार सिंह ने किसानों के राजभवन मार्च पर बर्बर लाठीचार्ज की कड़ी निंदा की और बिहार की नीतीश सरकार को आगाह किया कि इससे किसान आंदोलन का और विस्तार ही होगा. प्रशासन द्वारा माले विधायकों सहित प्रदर्शनकारी किसानों पर मुकदमे थोपने की भी कड़ी निंदा की. माले राज्य सचिव कुणाल ने किसान मार्च में व्यापक भागीदारी के लिए राज्य के किसानों, खेतिहर मजदूरों को बधाई दी और राज्य सरकार से आंदोलनकारी नेताओं पर से मुकदमे वापस लेने की मांग की.

राजभवन मार्च ने दिए नए संदेश

इस मार्च की खासियत यह थी कि इसमें बड़ी संख्या छोटे-मझोले किसानों, बटाईदार किसानों और कृषक मजदूरों की थी. इस ऐतिहासिक किसान मार्च ने दो संदेश देेने का काम किया है – पहला यह कि तीनों कृषि कानूनों के खिलाफ न केवल बड़े फार्मर आंदोलित हैं, बल्कि छोटे-मझोले-बटाईदार किसान भी इस बात को बखूबी समझ रहे हैं कि इन काले कानूनों से पूरी खेती ही खत्म हो जाएगी और खेती पर काॅरपोरेटों का वर्चस्व स्थापित हो जाएगा. उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि बिहार में कटिहार, समस्तीपुर व अन्य स्थानों पर अंबानी-अडानी के गोदाम बनने कैसे आरंभ हो गए? दूसरा यह कि इस ऐतिहासिक किसान मार्च से निश्चित रूप से दिल्ली बाॅर्डर पर लगातार जमे पंजाब-हरियाणा व देश के पश्चिमी हिस्से के किसानों को बल मिला होगा. वे अकेले नहीं है, बल्कि उनके साथ आज बिहार के किसान खड़े हैं और कल पूरा देश खड़ा होगा. यह लड़ाई अब भगत सिंह के पंजाब से लेकर सहजानांद सरस्वती, राहुल सांकृत्यायन, रामवृक्ष बेनीपुरी, मास्टर जगदीश, रामनरेश राम, भोगेन्द्र झा जैसे किसान आंदोलन के नेताओं की सरजमीं रही बिहार तक फैल चुकी है. आंदोलन ने देशव्यापी चरित्र ग्रहण कर लिया है.

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– कुमार परवेज