दिल्ली में किसानों के ऐतिहासिक पड़ाव के साथ ही देश भर में उठ खड़े हुए वर्तमान किसान आंदोलन के साथ देश के दलितों, भूमिहीनों और गरीबों का वैसा जुड़ाव नहीं दिख रहा है, जैसा कि होना चाहिए. तो क्या इस आंदोलन के एजेंडे में सिर्फ किसानों की मांगें ही हैं? क्या तीन कृषि कानूनों का देश के गरीबों, दलितों, भूमिहीनों के जीवन से कुछ भी लेना देना नहीं है?
कुछ संगठन जो खुद को दलितों, भूमिहीनों, गरीबों का प्रतिनिधि बताते हैं, उनके अनुसार यह उन किसानों का ही आंदोलन है, जो ग्रामीण जीवन में उनका आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न करते हैं. इसलिए इन संगठनों की इस आंदोलन से एक दूरी भी दिखती है. जन आन्दोलन की ताकतों का एक हिस्सा ऐसा भी है, जो किसान आंदोलन का सक्रिय समर्थन तो करता है, पर इन मांगों को अपने सामाजिक व वर्गीय आधार से बाहर का मानता है. इसलिए उनकी भागीदारी प्रतीकात्मक ही रह जा रही है. वे अपने सामाजिक आधार की व्यापक गोलबंदी इस आंदोलन में नहीं कर पा रहे हैं.
इस सवाल के हल की तलाश के लिए हमें भारतीय ग्रामीण जीवन की संरचना में आए बदलावों पर निगाह डालनी होगी. वर्ष 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की शर्तों के भारतीय कृषि क्षेत्र में लागू होने के बाद भारत की खेती घाटे का सौदा होने लगी थी. क्योंकि उस सरकार ने डब्ल्यूटीओ के दबाव में कृषि जिंसों के आयात पर लगे मात्रात्मक प्रतिबंध हटा दिए और कृषि जिंसों के लिये वायदा कारोबार के दरवाजे खोल दिये. इससे एक तरफ भारी सब्सिडी पर आधारित अमेरिका यूरोप जैसे देशों के सस्ते कृषि उत्पाद भारत में आने लगे. दूसरी तरफ वायदा कारोबारी फसल के बाजार में आने पर फसल का भाव गिराने लगे. किसानों का आलू, प्याज, टमाटर जैसी फसलों को बाजार में भाव न मिलने के बाद सड़कों में फेंकने या खेत में ही सड़ा देने का दौर वहीं से शुरू हुआ.
वर्ष 2005 आते-आते इस घाटे की खेती से कर्ज में डूबे लगभग चार लाख किसान अब तक भारत में आत्महत्या कर चुके हैं. घाटे की इस खेती ने युवा पीढ़ी को खेती से विमुख करना शुरू किया. धीरे-धीरे सीमांत व मध्यम किसानों के एक हिस्से ने खेती को बटाई या ठेके पर देकर रोजगार के अन्य अवसरों की तलाश शुरू की. आज हमारी खेती का लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा बटाई या ठेके पर होता है. पंजाब जैसे हरित क्रांति के प्रदेश से लेकर बिहार उड़ीसा जैसे अति पिछड़े प्रदेशों तक खेती बटाई या ठेके पर हो रही है. बिहार में तो 60 प्रतिशत से ज्यादा खेती अब बटाई पर होती है.
आखिर सीमांत व मध्यम किसानों की इस खेती को बटाई या ठेके पर लेने वाला कौन सा सामाजिक तबका है? आज अगर आप ग्रामीण संरचना का अध्ययन करें तो गांव के गरीब किसानों, दलितों व भूमिहीनों का एक हिस्सा जो कल तक खेत मजदूर था, आज का बटाईदार किसान बन गया है. क्योंकि वह अपने पारिवारिक श्रम को लगाकर इस घाटे की खेती को बचाए हुए है. कारण कि खेती होने पर अगर मुनाफा न भी हो, तो परिवार के खाने के लिए अन्न और एक-दो दुधारू पशु को पालने के लिए उस खेती से चारे की व्यवस्था हो जाती है. इससे उस बटाईदार किसान परिवार को गांव में टिकने का आधार मिल जाता है.
अब अगर नए कृषि कानूनों के लागू होने के बाद कांट्रेक्ट खेती के लिए खेती में बड़ी कंपनियों का पदार्पण होता है, तो जाहिर है कि जमीनों को अपने उत्पादन के लिए हथियाने वाली वो कंपनियां शुरू में खेती के ठेके का ऊंचा भाव लगा देंगी. ऐसे में जमीन के मालिक भी ज्यादा मुनाफे के लिए खेती को गांव के बटाईदारों से छुड़ा कर कंपनियों को दे देंगे. इस तरह अगर देखें तो कांट्रेक्ट खेती कानून के माध्यम से खेती व जमीन से सबसे पहले बेदखल होने वाला यही आज का बटाईदार व ठेका खेती करने वाला किसान होगा. जिनकी बहुतायत भूमिहीन व दलित परिवारों से है. जबकि खेत मालिक किसान को कंपनियों के जाल में फंसने व खेत खोने में ज्यादा समय लगेगा.
इसके साथ ही जैसे ही ज्यादा से ज्यादा जमीनें कांट्रेक्ट खेती के लिए कारपोरेट के अधीन हो जाएंगी, तो वे खेती में मानव श्रम की जगह आधुनिक मशीनों का प्रयोग ज्यादा करने लगेंगे. उसके बाद छोटी जोतों में हो रही खेती में लगने वाले ज्यादा मानव श्रम की जरूरत उस खेती में नहीं रह जाएगी, और अब तक इस खेती में मिल रहे रोजगार में भी भारी कमी आ जाएगी. यह ग्रामीण जीवन में पलायन को और तीब्र कर देगा तथा पहले से ही बेरोजगारी की मार झेल रहे गरीबों की कतार और लम्बी हो जाएगी.
कृषि मंडी से संबंधित जिस कानून को किसानों की आजादी और फायदे का कानून बताया जा रहा है, उसका देश के गरीबों, दलितों, आदिवासियों, खेत मजदूरों के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ने जा रहा है? यह जानना आज बहुत ही जरूरी है.
इस कानून के तहत सरकारी कृषि मंडियों के समानांतर अब प्राइवेट कृषि मंडियों की व्यवस्था की जाएगी. अब तक न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों से सरकारी मंडियों में राज्य सरकारों द्वारा मुख्यतः गेहूं, धान की खरीद की जाती थी. इस खरीद के लिए राज्य सरकारों को केंद्र द्वारा बैंकों के माध्यम से कैश क्रेडिट दिया जाता है. राज्यों द्वारा खरीदे गए इस खाद्यान को बाद में केंद्र सरकार भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के जरिये खरीद कर एफसीआई के गोदामों में जमा कर लेती है. फिर देश में चल रही सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस सिस्टम) के जरिये इसी आनाज को गांव-गांव, कस्बा-कस्बा तक सरकारी गल्ले की दुकानों के माध्यम से सस्ते में जरूरतमंद गरीबों, दलितों, आदिवासियों, भूमिहीनों को बांटा जाता है.
अब नए कानून में सरकारी मंडियों के बाहर समानांतर प्राइवेट मंडियों की व्यवस्था कर दी गई है. इसके बाद केंद्र सरकार राज्यों को फसल खरीद के लिए कैश क्रेडिट देना बंद कर देगी और भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के जरिये राज्यों द्वारा खरीदे गए खाद्यान का उठान बंद कर देगी. ऐसी स्थिति में सरकारी मंडी होने और न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित होने के बावजूद सरकारी मंडियों में किसानों के खाद्यान की खरीद पूरी तरह बंद हो जाएगी. क्योंकि राज्य सरकारों के पास न तो इतनी खरीद के लिए पैसा होता है और न खरीदे गए खाद्यान की खपत के लिए बाजार. ऐसे में सरकारी मंडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित होने के बावजूद किसान अपने उत्पाद को बाहर निजी कंपनियों को बेचने को मजबूर होगा, जिसकी काफी कम कीमत मिलेगी.
इस प्रक्रिया में सारा खाद्यान कारपोरेट कंपनियों के गोदामों में चला जाएगा. भारतीय खाद्य निगम को केंद्र सरकार नीलाम कर देगी. सार्वजनिक वितरण प्रणाली बंद कर राशन की दुकानों से मिलने वाले सस्ते खाद्यान की आपूर्ति गरीबों को बंद कर दी जाएगी. उसकी एवज में गरीबों के खाते में नकद खाद्य सब्सिडी डाली जाएगी. जो उनकी खाद्य जरूरत से काफी कम होगी. इस तरह देश की 70 प्रतिशत गरीब आबादी, जिनमें दलितों, आदिवासियों, भूमिहीनों, गरीब किसानों और शहरी गरीबों की बहुसंख्या है, अन्न के लिए क्रूर बाजार के हवाले कर दी जाएगी. खाद्यान की कीमतें आम गरीब की पहुंच में नहीं रहेंगी.
वर्तमान किसान आंदोलन के एजेंडे में प्रमुख तीन कृषि कानूनों में से तीसरा है ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम संशोधन कानून 2020’ को वापस कराना. केंद्र सरकार ने इस नए कानून के जरिये लोगों के जीवन के लिए आवश्यक खाद्यान्न में से आलू, प्याज, दालों और खाद्य तेल को आवश्यक वस्तु कानून के दायरे से हटा दिया है. दूसरी तरफ यह व्यवस्था कर दी है कि कभी बड़ी आपदा को छोड़ कर यह कानून अब देश में लागू ही नहीं रहेगा. तो क्या इस कानून का किसानों से कोई सीधा लेना-देना है, शायद नहीं! इस कानून का तो सीधा लेना-देना इस देश के 70 प्रतिशत गरीबों, दलितों, भूमिहीनों व आदिवासियों के जीवन से है. इस कानून के लागू होने के बाद खाद्य वस्तुओं की कीमतों और भंडारण पर अब तक सरकार का जो नियंत्रण था, वह खत्म कर दिया गया है. इससे बड़ी बात यह है कि इस कानून के जरिये कंपनियों और जमाखोरों को अपने भंडारों में असीमित खाद्यान का भंडारण करने की छूट मिल गई है. इस छूट से वे बाजार से खाद्य वस्तुओं को गायब कर देंगे और फिर उसकी मनमानी कीमत वसूलेंगे. यानी कि गरीबों के जीवन के लिए आवश्यक खाद्य वस्तुओं को सरकार ने इस कानून के जरिये अब उपभोक्ता वस्तु में बदल दिया है. इसके बाद जिस तरह से अन्य उपभोक्ता वस्तुएं गरीबों की क्रय क्षमता से बाहर हैं उसी तरह अब खाद्य वस्तुवें भी इतनी महंगी हो जाएंगी कि गरीब की थाली से अन्न भी गायब होने लगेगा.
इस तरह देखें तो ये तीनों कृषि कानून जिनके खिलाफ आज किसान सड़कों पर लड़ रहे हैं, कारपोरेट व बहुराष्ट्रीय कंपनियों से किसानों की खेती किसानी को बचाने के लिए ही नहीं, बल्कि इस देश के 70 प्रतिशत गरीबों, दलितों, आदिवासियों, भूमिहीनों की आजीविका और खाद्य सुरक्षा की गारंटी के लिए भी है. इसलिए किसानों के इस ऐतिहासिक आंदोलन की जीत इस देश के गरीबों, दलितों, आदिवासियों, भूमिहीनों की अब तक बची खुची आजीविका और खाद्य सुरक्षा की गारंटी की लड़ाई को आगे बढ़ाएगी. यह देखकर अचरज होती है कि कुछ लोग और संगठन देश के गरीबों, दलितों, भूमिहीनों, आदिवासियों पर इन कानूनों की पहली मार को नहीं देख पा रहे हैं.
– पुरुषोत्तम शर्मा