वर्ष - 29
अंक - 38
12-09-2020

– अरिंदम सेन  -- 

बाबरी मस्जिद के ध्वंसावशेष पर राम मंदिर के वास्तविक निर्माण के साथ, और वह भी भारत के एकमात्र मुस्लिम-बहुल राज्य में बर्बर दमन लादे जाने की सबसे लंबी और अब तक जारी अवधि की वर्षगांठ पर, सरयू किनारे की मंदिर नगरी को भगवा राजनीति का ताजा रंग दे दिया गया है. और, इसे गौरवशाली व शक्तिशाली हिंदू राष्ट्र के सर्वप्रमुख ‘राष्ट्रीय’ प्रतीक के बतौर उछाला जा रहा है जिसने ‘भगवान राम’ की कथित जन्मभूमि को ‘आंतरिक दुश्मन बन बैठे विदेशी आक्रांताओं’ के चंगुल से अब मुक्त करा लिया है. लेकिन, यह तो झूठी छवि है जो अयोध्या की वास्तविक तस्वीर पर ओढ़ा दिया गया है और जिसे इतिहास को झुठलाने की संघी परियोजना के अनुकूल जानबूझ कर विकृत किया गया है, ताकि वे अपने मौजूदा एजेंडा को आगे बढ़ा सकें. अयोध्या की असली तस्वीर और उसकी सच्ची भावना को पुनः समझने के लिए हमें कुछ पहले के अतीत में जाना होगा.

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का उफान केंद्र

अपनी उपजाउफ भूमि के लिए सुविख्यात अयोध्या की देशी रियासत को लोभी ब्रिटिश शासकों ने 1856 के तत्कालीन समझौतों का खुला उल्लंघन करते हुए अधिग्रहीत कर लिया (रुचि रखने वाले पाठक मार्क्स के लेख ‘अवध का अधिग्रहण’ में इस धूर्ततापूर्ण कार्रवाई को देख सकते हैं).

उस समय वाजिद अली शाह को पेंशन देकर कलकत्ता निर्वासित कर दिया गया और उनकी दूसरी पत्नी बेगम हजतर महल तथा उनके अल्पवय पुत्रा को लखनऊ में ही छोड़ दिया गया. जब मई 1857 में ईस्ट इंडिया कंपनी के देशी सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया तो हजरत महल ने अपने नाबालिग पुत्र को राजा घोषित कर उसकी तरफ से रिजेंट के बतौर शासन की कमान संभाल ली. दिल्ली से, बहादुर शाह जफर ने इस कार्रवाई को मुगल सल्तनत की मान्यता दे दी जिससे उस राजा और रिजेंट की वैधता को, प्रतीकात्मक तौर ही सही, काफी बल मिला. स्थानीय तालुकदारों ने भी नाबालिग राजा और रिजेंट के प्रति अपनी निष्ठा जाहिर की और अंग्रेजों के खिलाफ अंतिम सांस तक लड़ने का संकल्प लिया. हजरत महल ने युद्ध-भूमि में बागी सिपाहियों का खुद से नेतृत्व किया और उनकी बहादुरी, साहस और संकल्प उन सिपाहियों के लिए बड़ा प्रेरणा स्रोत बन गया.

वे भारतीय सैनिक – जो ‘वर्दीधारी किसान’ थे और जो (आम तौर पर हिंदू) किसान परिवारों से आए थे – जल्द ही, अधिग्रहण के पश्चात लागू की गई नई राजस्व प्रणाली के बोझ तले कराह रहे तमाम किसानों के विद्रोह का नेतृत्व करने लगे. अयोध्या के इस उफान का केंद्र बन जाने का एक बड़ा कारण यह था कि वह बंगाल रेजिमेंट के लिए एक बड़ा आपूर्ति स्थल था – यहां से लगभग 75000 लोग सेना में शामिल थे.

ये किसान युद्ध में अकेले नहीं थे. उनके साथ तालुकदार भी थे, क्योंकि बहुतेरे तालुकदारों के इस्टेट हड़प लिए गए थे; और हस्तशिल्पी भी थे जिनका रोजगार नए शासकों द्वारा मशीनी उत्पादों को बढ़ावा देने के चलते छिन गया था. इनके अलावा और भी कई तबके विद्रोहियों के साथ थे. साझी आर्थिक बर्बादी के साथ-साथ, हिंदुओं और मुसलमानों के मन में अपनी समझ के अनुसार अपने धर्म व संस्कृति पर हो रहे हमले के चलते भी गुस्सा भरा हुआ था, और इस वजह से विदेशी गुलामी से मुक्ति के लिए व्यापकतम जन-गोलबंदी करने में बड़ी मदद मिली जिसके केंद्र में किसान-सैनिक हथियारबंद संघर्ष था. ब्रिटिश शासन से लड़ने के लिए जाति की सीमाओं से परे भारतीय जनता की बड़ी आबादी (रुहेली, बुंदेली, जाट, गुज्जर, पासी, मुगल, राजपूत, ब्राह्मण, पठान, सतनामी, बहावी, कोल व अन्य जनजातियां – जो उस वक्त खुद को हिंदू या मुसलमान नहीं मानती थीं) एकजुट हो गई थी. उस विद्रोह के बुद्धिजीवियों में शामिल थे अजीमुल्ला शाह, जिन्होंने भारत का पहला राष्ट्रगान लिखा था – “हम हैं इसके मालिक / हिंदोस्तां हमारा है”.

शुरूआती सफलताओं के बाद आजादी के योद्धाओं पर ब्रिटिश सैनिकों ने काबू पा लिया और 1958 में उन्होंने लखनऊ पर पुनः अधिकार जमा लिया. बिखरे तौर पर लड़ाइयां चलती रहीं, अक्सरहा गुरिल्ला संघर्ष के रूप में. दुश्मन सेना हजतरत महल का पीछा करती रही, लेकिन वे किसी तरह आम जनता और तालुकदारों (मुख्यतः हिंदू) की मदद पाकर तेजी से स्थान बदलती रहीं. जंगलों और नदियों से होकर उनकी यात्रा का अंत नेपाल आकर हुआ, जहां उन्होंने राजनीतिक शरण ली. जब 1858 में महारानी विक्टोरिया ने भारत की जनता को खुश करने और उनके मन से विद्रोह की भावना निकाल बाहर करने के लिए क्षमादान की घोषणा की, तो हजरत महल ने भी निर्वासित रिजेंट रानी की हैसियत से एक घोषण की. उन्होंने विक्टोरिया को झुठलाए गए वायदों के कई दृष्टांत स्मरण दिलाए और जनता से अपील की कि वे अंग्रेजों पर विश्वास न करें. हजरत को व्यक्तिगत तौर पर ब्रिटिश पेंशन लेकर भारत आने का निवेदन किया गया, लेकिन उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया. 1879 में काठमांडू में उनका निधन हुआ – निर्धनता में, लेकिन गर्वोन्नत मस्तक के साथ!

अयोध्या से आनेवाले उस विद्रोह के सर्वाधिक उल्लेखनीय नेताओं में मौलवी अहमदुल्ला शाह का जिक्र जरूर करना होगा जो एक समृद्ध सुन्नी मुस्लिम परिवार के सदस्य थे. भारत और विदेशों की काफी यात्रा कर चुके उस विद्वान “फैजाबाद के लाइटहाउस (प्रकाशस्तंभ)” ने 1857 का गदर फूटने के काफी पहले ही ‘फतह इस्लाम’ शीर्षक से एक पर्चा लिखा और उसमें ब्रिटिश शासकों के खिलाफ ‘जेहाद’ (बगावत) करने का आह्वान किया. इसके चलते उनको गिरफ्तार कर लिया गया. लेकिन, विद्रोह फूटने के साथ ही जब फैजाबाद की जेल के फाटक को जबरन खोल दिया गया, तो वे बाहर निकल आए.

अहमदुल्ला तुरत ही बागियों की पांत में शामिल हो गए और उन्हें 22वीं पैदल रेजिमेंट का प्रधान चुन लिया गया. सूबेदार घमंडी सिंह और सूबेदार उमराव सिंह की कारगर मदद के साथ उन्होंने जून 1857 में प्रसिद्ध चिनहट लड़ाई जीत ली और लगभग एक साल तक फैजाबाद शहर पर हमलों को सफलतापूर्वक नाकामयाब करते रहे. उनके सर पर 50000 चांदी के सिक्के का मोल लगाया गया था; और इस भारी-भरकम राशि के लोभ में राजा जगन्नाथ सिंह नामक एक जमींदार ने धोखे से उनको मरवा दिया.

लक्ष्मी बाई, नाना साहेब और अन्य योद्धाओं की भांति हजरत महल और अहमदुल्ला की गाथा भी हमें बताती है कि हमारे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में किस तरह हिंदू और मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर लड़े थे. लेकिन यह मान लेना भी भूल होगा कि उन दिनों सांप्रदायिक रिश्ते समय-समय होने वाले तनावों व टकरावों से पूरी तरह मुक्त थे. दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर सैयद जहीर जाफरी अपने अत्यंत बोधपूर्ण लेख ‘19वीं सदी के मध्य में अयोध्या में सांप्रदायिक टकराव के आज के अवध के लिए सबक’ में हमारा ध्यान “भारत में, और खासकर अवध क्षेत्र में, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच टकराव और सह-अस्तित्व की जटिल गत्यात्मकता” की ओर खींचते हैं. अपनी बात को समझाने के लिए प्रोफेसर जाफरी वास्तविक जीवन की कहानी बताकर दिखाते हैं कि कैसे आपसी वैर-भाव साझा शत्रु के खिलाफ मजबूत दोस्ती में बदल जाता है. यहां पेश है उस लेख का एक छोटा उद्धरण – [ ] में हमने जो शब्द दिए हैं, वे इस उद्धरण को थोड़ा संक्षिप्त बनाने के लिए हैं.

जाफरी लिखते हैं, फ्पफरवरी 1856 में अवध राज्य के जबरन अधिग्रहण के महीनों पहले अयोध्या की हनुमानगढ़ी घटना से उस राज्य के दो मुख्य संप्रदायों के बीच न केवल काफी कटुता फैल गई, बल्कि इससे शिया और सुन्नियों के बीच की संकीर्णतावादी खाई भी चैड़ी हो गई. वह विवाद हनुमानगढ़ी परिसर के अंदर एक पुरानी कनाती मस्जिद [अस्थायी शिविर-नुमा मस्जिद, जिसकी छत शामियाने की बनी होती है] को अपवित्र करने और उसे ढहा देने से संबंधित था. हनुमानगढ़ी का मौजूदा ढांचा उस जमीन पर खड़ा था जिसे अवध राज्य के दूसरे नवाब अब्दुल मंसूर सफदरजंग ने एक बैरागी (साधू) को दान में दिया था. उस बैरागी के वारिसों ने उसमें और भी बड़ा रकबा शामिल कर लिया जिसमें वह परित्यक्त कनाती मस्जिद भी शामिल थी, जिस पर उस इलाके के मुसलमान अपना दावा जताते थे. बैरागियों ने आखिरकार उस मस्जिद को नवाबी काल में ही ढहा दिया.

फ्उस मस्जिद के (पुनः)निर्माण कराने से प्रशासन के इन्कार के बाद [सैयद गुलाम हुसैन ने] जेहाद का आह्वान किया. सुन्नी मुसलमानों ने इस आह्वान का भारी तादाद में जवाब दिया; लेकिन हुसैन, जो खुद एक सुन्नी थे, को बैरागियों ने मार डाला. उसके बाद, [अमेठी के पीरजादा मौलवी अमीर अली के द्वारा] उस ढहाई गई मस्जिद को फिर से बनाने और अन्य मस्जिदों की हिफाजत करने के लिए और बड़ी गोलबंदी की गई... [लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों और कुछ राजपूत तालुकदारों ने अली और उनके अनुयाइयों को मौत के घाट उतार दिया... अब अहमदुल्ला की बारी थी, जिन्होंने जेहाद की अपील करनी शुरू कर दीउनकी गिरफ्तारी और रिहाई के बाद, जैसा कि पहले कहा गया, फैजाबाद के हिंदुओं और मुसलमानों ने उन्हें अपना नेता चुन लिया.]

“नेतृत्व संभालने के बाद, समाचारों के अनुसार अहमदुल्ला शाह ने हनुमानगढ़ी के मंदिरों को गिराने का आदेश निर्गत कर दिया. लेकिन [जल्द ही] उन्होंने अपना वह आदेश वापस ले लिया [क्योंकि] अब वे अवध की जनता और सिपाहियों, जो हिंदू और मुस्लिम दोनों थे, के नेता बन गए थे. [चिनहट की लड़ाई में उनलोगों ने] ब्रिटिश सेना को पराजित किया था और वह सेना लखनऊ लौट गई.

“यह सचमुच घटनाक्रम में एक महत्चपूर्ण मोड़ था – जो व्यक्ति मौलवी अमीर खां की मौत का बदला लेने और हनुमानगढ़ी मस्जिद को फिर से बनवाने पफैजाबाद आता है, वही व्यक्ति हिंदू और मुस्लिम सिपाहियों का संयुक्त कमांडर चुन लिया जाता है. ... शायद यह समूचा घटनाक्रम उस क्षेत्र की साझी संस्कृति के तत्वों की गहरी जड़ जमाई व मजबूत प्रकृति को सामने ले आता है. ...

“हनुमानगढ़ी वाकये के इर्दगिर्द के घटनाक्रम से अवध और अन्यत्र के लोगों को हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच तथा इस्लाम के पंथों के बीच टकराव व सहयोग के साझे अतीत का स्मरण कर लेना चाहिए. इससे हमें यह भी स्मरण करना चाहिए कि सांप्रदायिक और पंथीय विभाजन अस्थायी चरित्र के होते हैं और कि उपनिवेशवाद-विरोधी, बहुलतावादी मूल्यों तथा शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के व्यापकतर आदर्शों के हक में इन विभाजनों से बचा जा सकता है.” (‘द वायर’, 6 सितंबर 2018)

प्रोफेसर जाफरी इससे ज्यादा सटीक नहीं हो सकते. उथल-पुथल भरे समयों में भी भाईचारा हमेशा से अयोध्या की जनता का अंतर्निहित स्वभाव रहा है. उस देशी रियासत पर कब्जा करने के बाद जब ब्रिटिश शासकों ने सांप्रदायिक झगड़ा भड़काने की कोशिश की और इसमें वे कुछ हद तक सफल भी हुए, तो बाबा रामचरण दास और एक स्थानीय भूस्वामी अच्छन खां ने अपने अपने समुदायों को समझाया कि उन्हें मिलजुल कर उस मस्जिद-मंदिर परिसर में अपने अपने निर्धारित स्थानों पर पूजा अर्चना करनी चाहिए. इस ‘अपराध’ के लिए और विद्रोह का समर्थन करने के लिए 18 मार्च 1858 को, फैजाबाद पर पुनः कब्जा करने के दूसरे ही दिन, उन दोनों को एक साथ कुबेर टीला पर फांसी दे दी गई. लेकिन जिस सांप्रदायिक सद्भाव को उन्होंने बुलंद किया था, वह उनके बाद भी जारी रहा. लगभग एक शताब्दी तक – यानी, दिसंबर 1949 तक – हिंदू और मुस्लिम भक्तगण उसी परिसर के अंदर निर्धारित जगहों पर अपने धार्मिक क्रियाकलाप चलाते रहे.

हिंदुत्ववादी कुत्तों की शिकार-स्थली

ये सब चीजें भारत बंटवारे के पूर्व के सांप्रदायिक आवेश-भरे माहौल में बदलने लगीं. 1947 के शुरू में बलरामपुर रियासत के प्रधान महाराज पटेश्वरी प्रसाद सिंह द्वारा आयोजित एक यज्ञ में महंथ दिग्विजय नाथ (हिंदू महासभा की उत्तर प्रदेश इकाई के अध्यक्ष और राष्ट्रीय महासचिव), स्वामी करपत्री (राजनीतिक महत्वाकांक्षा वाले एक सन्यासी, जिन्होंने एक साल बाद राम राज्य परिषद की स्थापना की) और केके नायर (इंडियन सिविल सर्विस में कार्यरत एक कट्टर सांप्रदायिक शख्स, जो उस समय गोंडा के जिलाधिकारी थे) एक साथ जुटे थे. यही वह महामिलन था – हिंदू महासभा के एक शीर्ष नेता, एक राजनीतिक सन्यासी, एक आईसीएस अधिकारी और ‘महाराज’ कहलाने वाले एक सामंती भूस्वामी – जहां से राम जन्मभूमि को ‘मुक्त कराने’ का अबतक का अस्पष्ट-सा विचार एक सोची-समझी साजिश का रूप ग्रहण करने लगा.

बहरहाल, इस प्रक्रिया ने तब आवेग पाया, जब जून 1949 में केके नायर का तबादला फैजाबाद जिले में हुआ. वे फौरन अपनी घटिया हरकतों में उतर पड़े और उनका साथ देने उनसे आ मिले फैजाबाद के सिटी मजिस्ट्रेट गुरुदत्त सिंह, जो जल्द ही उनके धनिष्ठ सहयोगी बन गए. अपने पहले कदम के बतौर, उन्होंने स्थानीय निवासियों के एक समूह द्वारा दी गई अर्जी को राज्य सरकार के पास भेजा, जिसमें ‘राम चबूतरा’ पर भव्य मंदिर का निर्माण कराने की अनुमति मांगी गई थी. ऊपर के अधिकारियों ने केके नायर से इस मामले में अपनी रिपोर्ट और सिफारिशें भेजने को कहा. नायर के निर्देश पर गुरुदत्त उस स्थल पर गए और उन्होंने नायर को रिपोर्ट सौंपी, जिसमें कहा गया था: “... मैं उस स्थल पर गया और सब कुछ की विस्तृत जांच-पड़ताल की. मस्जिद और मंदिर अगल-बगल बने हुए हैं और हिंदू एवं मुस्लिम, दोनों अपने धार्मिक अनुष्ठान वहां संपन्न करते हैं. ...कोई रुकावट नहीं है, और अनुमति दी जा सकती है क्योंकि हिंदू आबादी उस जगह पर एक सुंदर मंदिर बनाने को काफी इच्छुक हैं जहां भगवान रामचंद्र का जन्म हुआ था.”

सिंह की रिपोर्ट उस फैसले के खिलाफ थी जो फैजाबाद के सब-जज पंडित हरि किशन सिंह ने ‘चबूतरा’ के महंथ (चबूतरे पर उनका मालिकाना था) की इसी किस्म की अर्जी पर दिसंबर 1885 में सुनाया था. जज ने अपने फैसले में कहा था: “यह जगह कोई ऐसी जगह नहीं है जहां पर उसके मालिक को उसकी इच्छानुसार भवन बनाने का अधिकार हासिल हो. ... अगर उस चबूतरे पर मंदिर बनाया गया तो वहां पर मंदिर की घंटियों और शंख की आवाज गूंजेगी जब वहां से हिंदू और मुस्लिम, दोनों गुजरेंगे; और अगर मंदिर बनाने की अनुमति हिंदुओं को दी जाती है, तो एक न एक दिन आपराधिक मामला शुरू हो जाएगा और हजारों लोग मारे जाएंगे.”

यह देखना काफी आसान है कि यह बहुत उपयुक्त और दूरदृष्टिपूर्ण फैसला था, लेकिन नायर ने यह देखने से इन्कार कर दिया. उन्होंने सीधेसीधी सिंह की रिपोर्ट पर आधारित अपनी अनुशंसा राज्य सरकार के पास भेज दी. लेकिन सरकार कोई जोखिम मोल नहीं लेना चाहती थी. इस प्रकार, कोर्ट को दरकिनार करके वह योजना सहज ढंग से लागू करने का मामला अटक गया. बहरहाल, नगरवासियों बीच जानबूझ कर पफैला दी गई इस योजना ने नायर को हिंदू महासभाइयों का लाड़ला बना दिया. विशेषतः, उस जिलाधिकारी को अक्सरहा गोपाल सिंह विशारद के घर आते-जाते देखा जाने लगा, जो हिंदू महासभा की फैजाबाद इकाई के अध्यक्ष और महंथ दिग्विजय नाथ के घनिष्ठ सहयोगी थे. और वहां जो गुप्त वार्ताएं चलीं उसकी गर्भ से नाकाम प्रशासकीय फेर-बदल की जगह हिंसक उलट-पलट की नई साजिश ने जन्म लिया.

इस तरह, 22-23 दिसंबर 1949 की रात में 50 से भी ज्यादा लोगों के साथ अभिराम दास उस परिसर का ताला तोड़कर और दीवार फांद कर भी मस्जिद में घुस गए. पहरे पर तैनात एकमात्र सिपाही ने प्रतिवाद किया, लेकिन किसी ने उसकी परवाह नहीं की. मुअज्जिन (अजान पढ़ने वाला) मोहम्मद इस्माइल जग गए और और उन्होंने विरोध करने की कोशिश की. लकिन उनको मारपीट कर भगा दिया गया. जैसा कि अभिराम दास के किसी भाई अवध किशोर झा ने बताया कि सुबह 6 बजे के पहले ही नायर वहां मौजूद थे और अभिराम – जिसके हाथ में एक मूर्ति थी – तथा वहां मौजूद अन्य लोगों को वे निर्देश दे रहे थे कि राम लला के दैवीय अवतरण की बात कैसे फैलाई जाए. उन उन्मादियों ने मस्जिद के अंदर वह मूर्ति रख दी, खुदे हुए इस्लामी लेखों को मिटा दिया और वहां घसीट कर राम और सीता की तस्वीरें बना दीं. जैसी कि योजना बनाई हुई थी, तड़के सुबह एक हजार से ज्यादा की भीड़ वहां इकट्ठा होकर धार्मिक नारे लगाने लगी और कीर्तन-भजन करने लगी. अल्पसंख्यकों को वहां पहुंचने और मजहबी कार्रवाई करने से रोक दिया गया.

यह समाचार सुनकर क्षुब्ध नेहरू ने उ.प्र. के मुख्य मंत्री जीबी पंत को वह मूर्ति हटवाने का निर्देश दिया. वह निर्देश औपचारिक तौर पर फैजाबाद के डीएम को भेज दिया गया. लेकिन डीएम ने इस आधार पर वह निर्देश लागू नहीं किया कि वैसा करने पर सांप्रदायिक टकराव होने लगेंगे. पंत और सरदार पटेल, दोनों ने ही इस गतिरोध को जारी रहने दिया. शायद, नायर के साथ सलाह-मशविरा करके ही गोपाल सिंह विशारद ने इस मौके का इस्तेमाल करते हुए स्थानीय अदालत में मुकदमा कर दिया और जनवरी 1950 में मूर्ति हटाने के सरकारी आदेश पर स्थगन हासिल कर लिया. इससे राज्य व केंद्र, दोनों जगहों की कांग्रेसी सरकारों को हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने का बहाना मिल गया: सरकार उस मामले पर क्या कर सकती है, जब वह मामला कोर्ट के विचाराधीन हो!

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 2010 में उस जमीन के टाइटल सूट के दौरान नायर की भूमिका की तीखी आलोचना की थी. न्यायालय के फैसले में 29 नवंबर 1949 को फैजाबाद के एसपी कृपाल सिंह द्वारा नायर को लिखी गई चिट्ठी का हवाला दिया गया था. कृपाल सिंह ने सूचना दी थी कि उन्होंने उस परिसर का दौरा किया और देखा कि मस्जिद के चारों तरफ हवन कुंड बने हुए हैं. उन्होंने अपनी चिट्ठी के अंत में चेतावनी दी थी कि “यह अफवाह गरम है कि पूर्णमासी के दिन हिंदू लोग किसी देवता को स्थापित करने के मकसद से मस्जिद में बलपूर्वक प्रवेश करने की कोशिश करेंगे.”

इस तरह की चिट्ठी पाकर किसी भी डीएम को शांति और यथास्थिति बनाये रखने के लिए फौरन आवश्यक कदम उठाना चाहिए था. लेकिन नायर न सिर्फ उस रिपोर्ट को दबा गया, बल्कि उसने उसमें वर्णित तथ्यों को भी नकार दिया. उस मूर्ति के तथाकथित रूप से ‘प्रकट होने’ के बाद तैयार की गई एक रिपोर्ट में उसने लिखा कि वह “खबर बड़ा आश्चर्य बनकर आई, क्योंकि ऐसी रिपोर्ट या आशंका कभी सामने नहीं आई है कि उस मस्जिद में बलपूर्वक घुसने और उसपर कब्जा जमाने को कोई कार्रवाई की गई हो”. जैसा कि कोर्ट ने बताया, वह ‘आश्चर्य’ एक झूठा बहाना था, क्योंकि उस एसपी ने काफी पहले ही ऐसी संभावना की स्पष्ट चेतावनी दे दी थी.

एक प्रशासक की तरफ से ऐसा चरम सांप्रदायिक पुर्वाग्रह और साजिशाना कार्रवाई पंत और पटेल को भी स्वीकार्य नहीं थे. सरकार के साथ एक छोटे कश्मकश के बाद नायर को सेवा से अवकाश लेना पड़ गया. बाद में, जब आरएसएस और जनसंघ ने उ.प्र. में अपने पांव पसारे, तो अपनी पत्नी शकुंतला (जो बाबरी मस्जिद के अधिग्रहण के समय ही हिंदू महासभा की एक्टिविस्ट थी) के साथ वे संघी रथ पर सवार हो गए. 1967 में नायर और शकुंतला जनसंघ के टिकट पर लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए (शकुंतला तो पहले ही 1952 में लोकसभा और बाद में उ.प्र. विधान सभा के लिए हिंदू महासभा के टिकट पर निर्वाचित हो चुकी थीं).

नायर को महासभा और जनसंघ, दोनों ने यथोचित मान्यता दी. 5 अगस्त को भूमि-पूजन समारोह के ठीक पहले ‘द ऑर्गेनाइजर’ ने अपने 1 अगस्त के अंक में ‘श्री राम जन्मभूमि आन्दोलन के अ-प्रशंसित नायक’ शीर्षक से एक रिपोर्ट छापी जिसमें 1949 में नायर की भूमिका की प्रशंसा की गई थी. इस लेख से हमें यह भी पता लगता है कि केरल में उनके अपने गांव में केके नायर स्मारक ट्रस्ट के तत्वावधान में एक स्मारक बनवाया जा रहा है ओर उसके लिए विश्व हिंदू परिषद ने जमीन प्रदान की है.

बहुसंख्यावादी प्रतिशोध के रूप में फासीवाद

1949 में प्रतिष्ठित प्रतीक मस्जिद का उद्दंडतापूर्ण अधिग्रहण उन दो त्रासद घटनाओं की श्रृंखला की ही अगली कड़ी थी जिसने भारतीय स्वतंत्रता की प्रातःवेला को प्रदूषित कर दिया था: देश का बंटवारा और गांधी की हत्या. इसके बाद जिस बड़ी घटना ने समूचे राष्ट्र को हिला दिया – यानी, 6 दिसंबर 1992 की राजनीतिक बर्बरता – उस पर इतनी चर्चा हो चुकी है कि उसे यहां दुहराना जरूरी नहीं है. इन तमाम विनाशकारी घटनाओं में आरएसएस अथवा उसके वैचारिक अनुयाइयों की पूरी संलिप्तता रही है. लेकिन हम इस विमर्श को उन चंद लोगों की संक्षिप्त चर्चा किए बगैर समाप्त नहीं कर सकते जिन्होंने धार्मिकता को सांप्रदायिक सौहार्द्र के साथ बखूबी समायोजित किया था.

इनमें से एक थे महंथ रामचंद्र परमहंस दास जो उस वक्त हनुमानगढ़ी मंदिर और महासभा की अयोध्या इकाई के अध्यक्ष थे. प्रोफेसर जाफरी के उपर्युक्त लेख के विवरण के अनुसार, 6 दिसंबर 1992 के बाद लगाए गए कर्फ्य़ू के दौरान उन्होंने मुस्लिम परिवारों के लिए राशन की निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित करने का तहेदिल से प्रयास किया. उन्होंने बेशक, बाबरी मस्जिद की जगह पर ही मंदिर निर्माण के लिए अभियान चलाया; लेकिन जानकारी के मुताबिक, उन्होंने अपने शिष्यों से यह भी कहा कि “मैं चाहता हूं कि राम मंदिर उसी जगह पर बने, जहां बाबर ने गैर-कानूनी ढंग से बाबरी मस्जिद खड़ी की थी; लेकिन मेरा मंदिर एक भी मुस्लिम के रक्त पर नहीं बनेगा. हाशिम अंसारी, जो बाबरी मस्जिद मुकदमे में प्रमुख वादी और महंथ के विपक्षी थे, के साथ उस महंथ की साठ साल की दोस्ती एक किंवदंती ही है. वे दोनों एक ही रिक्शे में बैठकर कोर्ट जाते थे और अवकाश के समय वे साथ-साथ चाय पीते थे, जबकि वे अयोध्या मामले में तीखा मुकदमा लड़ रहे थे.

हम हनुमानगढ़ी मंदिर के पुजारी (भाजपा राज्य सरकार द्वारा उनको हटा दिये जाने के पहले तक) बाबा लाल दास को भी विस्मृत नहीं कर सकते जो विश्व हिंदू परिषद और आरएसएस के कट्टर और मुखर आलोचक थे. यह अनपेक्षित नहीं, कि 1993 में उनकी हत्या कर दी गई.

मंदिर-मस्जिद झमेले को लेकर हुई परवर्ती घटनाएं अयोध्या में नहीं, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति के वृहत्तर मंच पर घटित की गईं; इसीलिए इस लेख में हम राजनीतिक विकासक्रम की उन मुख्य कड़ियों की ओर ही संकेत करेंगे जिनके चलते यह मंदिर नगरी अपने गौरवशाली अतीत से विडंबनापूर्ण ढंग से स्खलित होकर अपने धृष्ट वर्तमान में चला आया है.

1980-दशक के प्रतिस्पर्धामूलक हिंदुत्व – हिंदू कार्ड (जो नव-उदारवाद के भारतीय संस्करण का ही अनुसंगी था) खेलने में गांधियों की रहनुमाई वाली कांग्रेस और संघ परिवार के बीच एक दूसरे पर हावी होने की होड़ – ने अपेक्षाकृत अल्पावधि में ही दिसंबर 1992 की तबाही को अंजाम दिया. लेकिन इसके अगले कदम – यानी, “मंदिर वहीं बनाएंगे” नारे को अमली जामा पहनाने – की पूर्वशर्त यह थी कि न्यायपालिका, और शासक वर्ग के तमाम वैचारिक-शैक्षणिक उपकरणों समेत राज्य के हर अंग पर पूर्ण संघी वर्चस्व कायम हो जाए. 2019 में जब एक बार यह सब हासिल कर लिया गया, तो कार्यपालिका के मुखिया के लिए उसी जगह पर मंदिर निर्माण के लिए आगे बढ़ना काफी आसान हो गया जहां उसकी पार्टी ने ऐतिहासिक मस्जिद को धराशायी कर दिया था, और उसमें न्यायपालिका के शीर्ष पर बैठे समान विचार वाली शख्सियत का भी दिली सहयोग प्राप्त हुआ (उन्हें पुरस्कार-स्वरूप अवकाश प्रप्ति के बाद राज्य सभा के लिए मनोनीत किया गया). 5 अगस्त को हुए ‘भूमि पूजन’ समारोह के साथ ही, जिसे केएम अशरफ ने संक्षिप्त रूप में “मजहब की सियासी दुकानदारी” कहा, वह एक नए चरण – बहुसंख्यावादी प्रतिशोध की राजनीति – में विकसित हो गया. वह समारोह हिंदू वर्चस्ववादी राष्ट्रवाद, अथवा सरल अर्थों में भारतीय फासीवाद, के विकासक्रम में एक नई छलांग को चिन्हित करता है. इस सब के बावजूद, जिन लोगों ने 1857 में अंगरेजों के खिलाफ साथ मिल कर लड़ाइयां लड़ीं और साथ मिलकर शहादतें दीं, उनकी विरासत – 1921 के ‘एका आन्दोलन’ में उत्पीड़ित जाति के नेता मदारी पासी जैसे लोगों की विरासत – और पुजारी लाल दास, रामचंद्र परमहंस और हाशिम अंसारी द्वारा परस्पर सम्मान और प्यार का संदेश आज भी अयोध्यावासियों की स्मृति और विचारों में जीवित हैं. और, अयोध्या – वास्तविक अयोध्या – के इतिहास की मौन साक्षी सरयू इसके अतीत, वर्तमान और अनदेखे भविष्य में शांत भाव से निरंतर प्रवाहित हो रही है.