भारतीय अर्थतंत्र अत्यंत गहरे संकट में फंस कर मंदी (रिसेशन) के मुहाने पर आ खड़ा हुआ है. तमाम साक्ष्य – जिनमें तोड़मरोड़ कर पेश किए गए सरकारी आंकड़े भी शामिल हैं – यह संपुष्ट करते हैं कि अर्थतंत्र के लगभग सभी क्षेत्रों में मांग गिर गई है जिससे उत्पादन में बड़ी कटौतियां की जा रही हैं तथा रोजगार के अवसरों में अभूतपूर्व क्षय हो रहा है, जिसकी बदतरीन शिकार महिलाएं बन रही हैं. ऑटोमोबाइल और टेक्सटाइल्स से लेकर “चाय बिस्कुट” पसंद करने वाले देश में बिस्कुटों तक की बिक्री में आई कमी मौजूदा हकीकत को साफ-साफ दिखा दे रही है.
वास्तव में इन्कार करने की स्थिति में रहने के बाद, अब जाकर मोदी सरकार न चाहते हुए भी मान रही है कि आर्थिक धीमापन (स्लोडाउन) आया है. लेकिन मोदी सरकार यह मानने से इन्कार करती है कि नोटबंदी जैसी इसकी खुद की नीतियों और गलत समझदारी तथा गलत तैयारी के साथ लागू किए गए जीएसटी से अर्थतंत्र की अपूरणीय क्षति हुई है जो पहले ही बढ़ती बेरोजगारी, मूल्य वृद्धि और आजीविका के साधनों के संकट से बदहाल हो चुकी थी. मोदी सरकार अभी तक बढ़ती जा रही व्यापक बेरोजगारी, अर्ध-बेरोजगारी, कम मजदूरी व आमदनी तथा गहराते कृषि संकट को नजरअंदाज कर रही है. इससे हमारे मेहनतकश अवाम के बहुत बड़े हिस्से की तकलीफें कई गुना बढ़ गई हैं. इन मुद्दों पर ध्यान देने के बजाय मोदी सरकार भावनाएं भड़काकर जनता का ध्यान भटकाने और इस प्रकार धु्रवीकरण को गहरा बनाने का प्रयास कर रही है.
जो कुछ भी थोड़ी-मोड़ी वृद्धि हुई है उसका फल मोदी सरकार के क्रोनी (पिट्ठू) पूंजीवाद के चलते भारत के मुट्ठी भर अति-धनिक लगातार हड़पते जा रहे हैं. इस सरकार ने इन अति-धनिकों के लिए घोषित टैक्स सरचार्ज को वापस ले लिया है. तेज गति से फैलती व्यापक असमानता भारत को दुनिया का एक सर्वाधिक असमान समाज बना दे रही है. यह नव-उदारवादी सुधारों का एक अपरिहार्य नतीजा है.
जनता की विशाल बहुसंख्या के बीच खरीदने की ताकत के अभाव के चलते भारतीय अर्थतंत्र घरेलू मांग में भारी गिरावट के दौर से गुजर रहा है. जब तक आम जनता की खरीदने की ताकत नहीं बढ़ेगी, तब तब घरेलू मांग भी नहीं बढ़ सकती है. और, इस स्थिति में विनिर्माण तथा औद्योगिक क्षेत्र में गतिरुद्धता तथा गिरावट और तेज हो जाएगी. बुनियादी ढांचे में बड़े पैमाने के सार्वजनिक निवेशों तथा बड़े पैमाने पर नए रोजगारों के सृजन के जरिये, और इस प्रकार जनता की खरीद-शक्ति व घरेलू मांग को बढ़ाकर ही इस स्थिति से निपटा जा सकता है.
ऐसा करने के बजाय मोदी सरकार एक बार फिर यह आशा करते हुए निजी पूंजी को और बड़ी रियायतें दे रही है कि उससे निवेश का स्तर ऊंचा उठेगा और भारत के निर्यात में बढ़ोत्तरी होगी. वित्त मंत्री ने हाल ही में विभिन्न कदमों के जरिये ऐसा ही किया है जिसमें सरकार को 70,000 करोड़ रुपया देना होगा. जमीन के कारोबार और आवास निर्माण क्षेत्र को लक्ष्य बनाकर सरकार फिर से इस तथ्य को नजरअंदाज कर रही है कि बने हुए घरों को लोग महज इसलिये नहीं खरीद पा रहे हैं, क्योंकि उनके पास घर खरीदने के पैसे नहीं हैं. वैश्विक व्यापार में तेज गिरावट आने के साथ उत्पन्न वैश्विक आर्थिक धीमेपन की स्थिति में भारत के निर्यातों को बढ़ावा देने की कोशिशें कत्तई सफल नहीं हो सकती हैं.
वामपंथी पार्टियां मांग करती हैं कि सरकार द्वारा रिजर्व बैंक के आरक्षित कोष से लिये गए 1.76 लाख करोड़ रुपये का इस्तेमाल सार्वजनिक निवेश कार्यक्रमों में किया जाए, ताकि उससे रोजगार और घरेलू मांग पैदा हो सके. ऐसा करने के बजाय मोदी सरकार इस धन राशि से नोटबंदी और जीएसटी के चलते पिछले वर्ष हुए हुए 1.70 लाख करोड़ रुपये के नुकसान की भरपाई करना चाहती है.
वामपंथी पार्टियों की तमाम इकाइयां इन मुद्दों पर प्रतिवाद संचालित करें और मोदी सरकार से उपर्युक्त मांगों के फौरन क्रियान्वयन की मांग करते हुए 10-16 अक्टूबर 2019 के बीच प्रतिवाद कार्रवाइयां संगठित करें.