संघ के तूफानी दस्तों और पुलिस द्वारा जेएनयू, दिल्ली विश्वविद्यालय, जादवपुर विश्वविद्यालय, हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय (एचसीयू), जामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय पर हमले पारम्परिक फासीवादी कार्यप्रणाली की तर्ज पर ही हो रहे हैं.
जब 2019 में मोदी सरकार पुनः चुनकर सत्ता में आई तो भाजपा के महासचिव राम माधव ने विजयोल्लास से भरपूर एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने कहा था कि इस दूसरी पारी में उदारपंथियों को “देश के शैक्षणिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक जगत से निकाल बाहर किया जायेगा.” स्टैनली इस बात को चिन्हित करते हैं कि संघ और भाजपा उदारपंथी कैम्पसों पर हमला चलाने तथा उन्हें विनष्ट करने के साथ ही पाठ्यक्रमों और विद्यालयों का भगवाकरण करने में उतने ही व्यस्त क्यों रहते हैं: “शिक्षा ... या तो फासीवाद के सामने भारी खतरा बन जाती है, या फिर उनके मिथकीय राष्ट्र के समर्थन में एक स्तम्भ का काम करती है. तब तो इसमें कोई अचरज की बात नहीं कि कैम्पसों में होने वाले प्रतिवाद और सांस्कृतिक संघात एक असली राजनीतिक रणक्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं और वे राष्ट्रीय स्तर पर लोगों के ध्यानाकर्षण के केन्द्र बन जाते हैं. इसमें बहुत बड़ी चीज दांव पर लगी है ... फासीवादी राजनीति असहमति की स्वतंत्र आवाजों को जाहिर करने वाले संस्थानों की विश्वसनीयता को क्षतिग्रस्त करने की तब तक कोशिश जारी रखती है, जब तक उनके स्थान पर ऐसे माध्यमों एवं विश्वविद्यालयों को कायम न कर दिया जाय जो उन आवाजों को खारिज कर दें.”
स्टैनली ने फासीवादियों की बौद्धिकता के खिलाफ शत्रुता का जो विवरण दिया है वह जेएनयू पर संघ के हमलों का ही विवरण प्रतीत होता है, और साथ ही उसका भी जिसका वे “पुरस्कार-वापसी गैंग”, “खान मार्केट गिरोह” अथवा आज की भाषा में “अर्बन नक्सल” कहकर मखौल उड़ाते हैं:
“जब कभी फासीवाद आशंकित होता है, उसके प्रतिनिधि और मददगार लोग विश्वविद्यालयों और विद्यालयों को “मार्क्सवादी विचारों का प्रशिक्षण” – जो फासीवादी राजनीति का पारम्परिक हौआ है – के स्रोत कहकर उनकी निंदा करने लगते हैं. मार्क्स अथवा मार्क्सवाद से कोई सम्बंध बताये बगैर, विशिष्ट रूप से इस्तेमाल की गई इस शब्दावली का फासीवादी राजनीति में समानता को निन्दित करने के एक तरीके के बतौर नियोजित किया जाता है. इसी कारण वे विश्वविद्यालय जो हाशिये पर के परिप्रेक्ष्यों को एक हद तक बौद्धिक स्थान देने की कोशश करते हैं, चाहे वह कितना भी छोटा क्यों न हो, उनको “मार्क्सवाद” के पनपने के अड्डे बताकर बदनाम किया जाता है... छत्रों के प्रतिवादों को प्रेस में अनुशासन भीड़ द्वारा किये दंगों के बतौर – जो नागरिक व्यवस्था के लिये खतरा हों – गलत ढंग से पेश किया जाता है. फासीवादी राजनीति में, सार्वजनिक विमर्श में विश्वविद्यालयों का मूल्य तुच्छ किया जाता है, और शैक्षणिक जगत को ज्ञान एवं विशेषज्ञता के अवैध स्रोत बताकर क्षतिग्रस्त किया जाता है, उन्हें रैडिकल “मार्क्सवादी” या “नारीवादी” के बतौर चित्रित किया जाता है जो शोध की आड़ में अपने वामपंथी विचारधारात्मक एजेंडा का प्रचार करते हैं. उच्च शिक्षा के संस्थानों का मूल्य तुच्छ करने तथा नीति पर चर्चा करने के लिये हमारे संयुक्त शब्दकोष की समृद्धि को उजाड़ने के जरिये फासीवादी राजनीति बहस को वैचारिक संघात बना देती है. इस प्रकार की रणनीतियों के जरिये फासीवादी राजनीति सूचना प्राप्ति के स्थानों का अवमूल्यन करती है और यथार्थ पर पर्दा डाल देती है.”
संघ ने यहां तक कि उदारपंथी इतिहासकारों को हमेशा “वामपंथी” या “मार्क्सवादी” बताया है. और अब तो असहमति जाहिर करने वाली तमाम आवाजों को, यहां तक कि गांधीवादियों की आवाज को भी “माओवादी” या “अर्बन नक्सल” बताया जा रहा है.
आजकल भारत में टेलीविजन का जिस तरह “मोदीकरण” हो चुका है, स्टैनली का निम्नलिखित कथन उसका यथायथ वर्णन लगता है: “फासीवादी राजनीति खबरों को सूचना के माध्यम और तर्कपूर्ण बहस की जगह एक ऐसे नजारे में तब्दील कर देती है, जिसमें किसी महाबली को हीरो बना दिया जाता है.”
हम देख चुके हैं कि कैसे वर्चस्वशाली हिंदू ऊंची जाति के पुरुष की बेचैनियों (यह धारणा कि वे जाति-आधारित आरक्षणों के “शिकार” हैं, कि मुसलमान “उनसे आग निकल रहे हैं; और यहां तक कि “पुरुषों के अधिकारों” और “परिवार” को पश्चिमीकृत महिलाओं से “बचाना” जरूरी है) ने आरएसएस के लिये उपजाऊ जमीन तैयार की है. स्टैनली व्याख्या करते हैं कि यह सब कैसे क्रियाशील होता है: “ऊंच-नीच अनुक्रम एक और तरीके से फासीवादी राजनीति को फायदा पहुचाता है: जो लोग उसका लाभ उठाने के आदी हो चुके हैं उनको आसानी से इस विचार के पक्ष में खींच लाया जा सकता है कि उनके शिकार बन जाने का स्रोत उदारतावादी समानता है. जो लोग ऊंच-नीच अनुक्रम व्यवस्था से फायदा उठाते हैं वे अपनी श्रेष्ठता के मिथक को अपना लेंगे, जो सामाजिक यथार्थ सम्बंधी बुनियादी तथ्यों को नजरों से ओझल कर देता है. वे उदारवादियों द्वारा दी गई सहनशीलता और समावेशीकरण की दलीलों पर इस आधार पर अविश्वास करेंगे कि ये दलीलें अन्य समूहों द्वारा सत्ता हड़पने के प्रयासों पर पर्दा डालने के लिये दी जा रही हैं. फासीवादी राजनीति ऊंच-नीच अनुक्रम में हासिल अपने दर्जे का खो बैठने की आशंका से पैदा, शिकार बनने के दुख-दर्द की अनुभूति से फलती फूलती है.”
जाति व्यवस्था और खास तौर पर ब्राह्मणवादी पितृसत्ता भारतीय समाज को अधिकांश समाजों की अपेक्षा कहीं ज्यादा ऊंच-नीच अनुक्रम पर आधारित बना देता है – और इसी कारण वह फासीवादी राजनीति का खास तौर पर आसान शिकार बन सकता है.
स्टैनली इस बात पर चर्चा करते हैं कि कैसे “परम्परागत रूप से अल्पसंख्यक समूहों के सदस्यों के बढ़ते प्रतिनिधित्व से वर्चस्वशाली समूहों को कई तरह से खतरा महसूस होने लगता है.” यहां स्टैनली उपनिवेशवाद-विरोधी राष्ट्रवाद और अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने वाले अंधराष्ट्रवाद के बीच फर्क समझने में मदद करते हैं. वे बताते हैं कि “उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष विशिष्ट रूप से राष्ट्रवाद के झंडे तले चलाये जाते हैं; उदाहरणार्थ महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक औजार के बतौर भारतीय राष्ट्रवाद का इस्तेमाल किया था. इस किस्म का राष्ट्रवाद, जिस राष्ट्रवाद का जन्म उत्पीड़न से होता है, अपने मूल स्रोत में फासीवादी नहीं होता. इन रूपों के राष्ट्रवाद, अपने मूल रचना-विन्यासों में समता से संचालित राष्ट्रवादी आंदोलन होते हैं.” मगर, स्टैनली सही तौर पर यह तर्क देते हैं कि “समता द्वारा संचालित ये राष्ट्रवाद खुद भी बहुत तेजी से उत्पीड़क बन सकते हैं, अगर हम सत्ता में हो रहे बदलाव पर पर्याप्त रूप से ध्यान नहीं दें तो ऐसा हो सकता है. उत्पीड़न के पूर्णतः सच्चे इतिहासों से भी कुछेक समस्याग्रस्त राष्ट्रवादी भावनाएं उपजती हैं.” भारत और चीन में राज्यों ने जिस तरह से, अपने मूलभूत उपनिवेशवाद-विरोधी समतावादी लक्ष्यों से कहीं दूर, “राष्ट्रवाद” का इस्तेमाल भेदभाव और दमन को जायज ठहरानेके लिये किया है, उस पर उपरोक्त बात यकीनन लागू होती है. भारत ने औपनिवेशिक शासन से अपनी आजादी हासिल कर ली, इसका मतलब यह कत्तई नहीं कि भारतीय लोग उसी औपनिवेशिक रवैये को कश्मीर मेें नहीं दुहरा रहे हैं. जाति-आधारित आरक्षणों, जिन पर “श्रेष्ठता” के जातिवादी तर्क के जरिये हमला किया जा रहा है, के बारे में ही बात स्टैनली करतेहुए स्टैनली लिखते हैं:
“फासीवादी राजनीति ढांचागत असमानता पर्दा डालने के लिये, उसका समाधान करने के लिये लम्बे अरसे से किये जा रहे कठिन-कठोर प्रयासों को उलटा करने, उन्हें गलत ढंग से पेश करने तथा उनको क्षतिग्रस्त करने की कोशिश करती है. इसके लिये की गई सकारात्मक कार्रवाई ज्यादा से ज्यादा ढांचागत असमानता को स्वीकार करने तथा उसका समाधान करने की कोशिश भर थी. लेकिन सकारात्मक कार्रवाई को व्यक्तिगत श्रेष्ठता से असम्बद्ध करके गलत ढंग से पेश करने के जरिये, कुछेक आरक्षण-विरोधी लोग सकारात्मक कार्रवाई के पैरोकारों पर आरोप लगाते हैं कि वे अपने ही नस्ल-आधारित या लिंग-आधारित “राष्ट्रवाद” को लागू करने की कोशिश कर रहे हैं, जो कठोर परिश्रम करने वाले अमरीकियों के हितों को नुकसान पहुंचाता है, चाहे इसका कोई सबूत हो या न हो.”
तो फिर भारत में हमें समता से प्रेरित राष्ट्रवादों, और ऐसे राष्ट्रवादों, जो कमजोर अल्पसंख्यकों को “खतरनाक अन्य तत्वों” की भूमिका में ढाल कर उनके विरोध में खुद को परिभाषित करते हैं, के बीच फर्क करने की जरूरत है. वही राष्ट्रवादी आंदोलन जो तब प्रगतिशील होते हैं जब वे भेदभावमूलक तथा उत्पीड़नकारी राज्य के खिलाफ अपनी दावेदारी पेश करते हैं, वे खुद तब साम्प्रदायिक और परायों के विरोधी बन जाते हैं, जब वे भाषागत एवं धार्मिक तौर पर अल्पसंख्यक प्रवासी मजदूरों को दुश्मन के बतौर देखने लगते हैं. जैसा कि स्टैनली ने दर्शाया है:
“फासीवाद का केन्द्रीय तत्व होता है राष्ट्रवाद. फासीवादी नेता एक सामूहिक पहचान का अहसास पैदा करने के लिये एक समूह के बतौर शिकार होने के अहसास का इस्तेमाल करता है, जो अपनी प्रकृति से ही सार्वदेशिक (कास्मोपाॅलिटन) लोकाचार और उदारवादी लोकतंत्र के व्यक्तिवाद का विरोधी होता है. यह सामूहिक पहचान बहुत किस्म की चीजों पर आधारित हो सकती है – चमड़ी के रंग पर, धर्म पर, परम्परा पर या फिर नृवंशीय मूल पर. लेकिन यह हमेशा अपने आपको को एक महसूस किये गये पराये समुदाय से फर्क करके दिखाती है, जिसके खिलाफ राष्ट्र को परिभाषित किया जाता है. फासीवादी राष्ट्रवाद एक खतरनाक “पराये लोगों” की रचना करता है, जिसके खिलाफ उन्हें अपनी रक्षा करनी है, कभी-कभी उनसे लड़ाई करनी है, उन पर नियंत्रण रखना है, ताकि अपनी सामूहिक पहचान की मर्यादा को पुनः कायम किया जा सके.”
स्टैनली लिखते हैं: “फासीवादी कानून-व्यवस्था की जुमलेबाजी का सुस्पष्ट उद्देश्य होता है नागरिकों को दो वर्गों में विभाजित करना: वे जो पसंदीदा राष्ट्र के लोग हैं, जो अपनी प्रकृति से ही कानूनपरस्त हैं, और ऐसे लोग जो पसंदीदा राष्ट्र के नहीं हैं, जो सहजात रूप से कानून तोड़ने की प्रकृति के हैं.”
यह प्रेक्षण भाजपा की यह बताने की कोशिशों को समझने में खास तौर पर उपयोगी है, कि मुसलमान लोग सहजात रूप से “घुसपैठिये” हैं, “बवाल मचाने वाले तत्व हैं जिन्हें उनके पहनावे से पहचाना जा सकता है”, और “आतंकवादी” हैं.