भारत में स्वाधीनता आंदोलन के सबसे महत्वपूर्ण नेता बन जाने के बाद, खासकर 1930 के दशक के बाद से, गांधी को शारीरिक रूप से खत्म करने के बड़े बारीकी से योजनाबद्ध प्रयास हुए थे और ये सारे के सारे प्रयास हिंदू महासभा और आरएसएस जैसे धर्मान्ध हिंदुत्ववादी गिरोहों के सक्रिय सदस्यों द्वारा ही किये गये थे. अतः उन्हीं दिनों से गांधी जी के खिलाफ नफरत का अभियान शुरू हो चुका था.
यही तो मुख्य सवाल है: अगर यह (गांधी की) हत्या उसी पागलपन भरी खीझ से उपजी थी जिसको उन्होंने (आरएसएस आदि ने) गांधी का मुस्लिम-परस्त रुझान समझा था, तो गांधी की हत्या का प्रयास 1934 में ही क्यों हो गया, जबकि उस समय तक तो मुहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान की मांग ही नहीं उठाई थी? उस समय तक भारत के विभाजन के बारे में अगर कोई बोलता था तो वे सावरकर थे. इस बात को याद रखें कि इसी समय गांधी अनवरत रूप से अछूतों का जीवन-स्तर सुधारने और उनके खिलाफ अत्याचारों को रोकने के काम में लगे थे. नमक सत्याग्रह के दौरान जेल यात्रा के बाद बाहर आकर वे चारों ओर घूम रहे थे और हरिजनों को मंदिर में प्रवेश करने तथा गांव के कुओं का इस्तेमाल करने का अधिकार हासिल करने के लिये काम कर रहे थे.
अगर आप उनकी हत्या के असफल प्रयासों की कड़ी को ध्यान से देखें तो या तो वे पुणे में घटित हुए या फिर उस अंचल के ब्राह्मण इन कारनामों में शामिल रहे थे. गांधी की हत्या के सात प्रयासों में से पांच में हिंदू महासभा की पुणे इकाई संलिप्त थी. इन प्रयासों में से तीन में नारायण आप्टे और नाथूराम गोडसे शामिल थे (जिन्हें महात्मा गांधी की हत्या में उनकी भूमिका के चलते 1949 में अम्बाला जेल में फांसी पर चढ़ा दिया गया). 1934 में उन्हें कोई नहीं मिला क्योंकि पुणे में जिस कार पर हैंड-ग्रेनेड फेंके गये थे उसमें महात्मा गांधी को एक नागरिक सम्मान ग्रहण करने के लिये कारपोरेशन सभागार में जाना था. यह घटना 25 जून 1934 को हुई थी.
गांधी हत्याकांड का एक और आरोपी विष्णु करकरे इस अंचल में बहुत सक्रिय था और अक्सर वह मुसलमानों पर हमले चलाता था. कपूर आयोग की रिपोर्ट में करकरे के आवास पर छापा मारे जाने का उल्लेख है, जिसमें उसी किस्म के चिन्ह वाले हथियार मिले थे जिनका इस्तेमाल पुणे में 1934 में हुए हमले में किया गया था. विष्णु करकरे, नारायण आप्टे का करीबी था, जो नाथूराम गोडसे से बहुत ही घनिष्ठ था. आप्टे और गोडसे सावरकर के सबसे ज्यादा भरोसेमंद सहकारी थे. इसलिये इन लोगों (आप्टे और गोडसे) को गांधी की हत्या के लिये हुए सर्वप्रथम अभिलिखित प्रयास से जोड़ने की एक कड़ी साफ दिखती है. यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि जब से गांधी ने हरिजनों को समाज में सम्मिलित करने और हरिजनों को उनका अधिकार दिलाने का अभियान शुरू किया, तब से वह सनातनी हिंदुओं का एक निशाना बन चुके थे.
गांधी की हत्या करने के इरादे से किया गया दूसरा अभिलिखित हमला तब हुआ जब वे 1944 के मध्य में आगा खां पैलेस कैम्प कारागार से छूटने के बाद मलेरिया का इलाज करा रहे थे, जो मलेरिया उनको जेल में रहने के दौरान ही हुआ था. उस समय डाक्टर की सलाह पर वह पंचगनी की पहाड़ियों में स्थित रिसाॅर्ट दिलकुश बंगला में रह रहे थे. जुलाई 1944 में हिंदू महासभा-आरएसएस के स्वयंसेवकों का एक झुंड पंचगनी में बापू के खिलाफ नारे लगाते हुए गया.
बाद में वे एक स्कूल के बाहर इकठ्ठे हो गये जिस स्कूल में होने वाली एक प्रार्थना सभा में महात्मा गांधी जाने वाले थे. अचानक बाहर से एक आदमी प्रार्थना हाॅल में कूदा और अपने हाथ में खंजर लिये बापू की ओर दौड़ा. प्रार्थना स्थल पर तैनात स्वयंसेवकों में से एक भिलारे गुरुजी सतारा से आये हुए पहलवान थे. उन्होंने और पुणे में स्थित एक लाॅज के मालिक मणिशंकर पुरोहित ने मिलकर आक्रमणकारी को दबोच लिया. यह आक्रमणकारी था नाथूराम विनायक गोडसे.
उसी साल के सितम्बर महीने में गांधी की हत्या का एक और प्रयास हुआ, जब गांधी जी जिन्ना से बातचीत करने की तैयारी कर रहे थे. कट्टर हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथी उन्मादियों ने कसम खा ली थी कि वे गांधी को जिन्ना से बात करने से रोकेंगे ताकि भारत के विभाजन को रोकने के कोई फारमूले पर सहमति न बन सके. निर्धारित तिथि पर जब गांधी को जिन्ना से मिलने के लिये ट्रेन पकड़ने जाना था, जैसे ही गांधी की कार स्टेशन के गेट पर पहुंची, हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथी संगठन का एक सदस्य उनकी ओर दौड़ा. मगर वह भी पकड़ा गया और उसके पास एक खंजर मिला.
तुरंत ही पुलिस भी वहां पहुंच गई और उसने इन युवकों को गिरफ्तार कर लिया. नाथूराम, आप्टे और दत्ते इस समूह में शामिल थे. उनके पीछे जो संगठन था वह जानता था कि किसी मौके पर गांधी की हत्या को सचमुच अंजाम दे सकने से नाथूराम शहीद हो जायेगा. उल्लेखनीय बात यह है कि उस समय भी गांधी के हत्यारे को अत्यंत संगठित तरीके से कदम-ब-कदम प्रशिक्षित किया जा रहा था.
हां, मेरी किताब ‘लेट्स किल गांधी’ में इन तमाम वाकयात का विस्तार से जिक्र किया गया है. 29 जून 1946 को गांधी पुणे की ओर ट्रेन से यात्रा कर रहे थे. इस ट्रेन में एक थर्ड क्लास डिब्बा था, एक गार्ड रूम और एक इंजिन था. इस ट्रेन को गांधी स्पेशल ट्रेन के नाम से जाना जाता थाइस ट्रेन को पटरी से गिराने के इरादे से नेरुल और करजत स्टेशनों के बीच किसी स्थान पर बाउल्डर्स (शिलाखंड) रख दिये गए थे, जिसकी वजह से ट्रेन दुर्घटना का शिकार हुई. चूंकि ड्राइवर ने समय रहते तुरंत ब्रेक लगा दिया और गांधी जी के डिब्बे को इंजिन से अलग कर दिया, इसलिये गांधी की जान बच गई.
इसके अलावा आप 20 जनवरी 1948 को गांधी जी पर हुए बम से हमले की विख्यात घटना के बारे में तो जानते ही होंगे, जिसमें मौका-ए-वारदात से मदनलाल पाहवा को गिरफ्तार किया गया था. इस हमले के बारे में उल्लेखनीय बात यह है कि हिंदू महासभा और आरएसएस में सावरकर के शिष्यों ने गांधी जी की हत्या करने के लिये कितने लम्बे अरसे से योजना बना रखी थी.
अब तक मैंने जो कुछ कहा है, उसकी रोशनी में कमल हासन का वक्तव्य बहुत सार्थक है. नाथूराम को पुलिस ने बापू की हत्या के पहले से ही “गर्म दिमाग का आतंकवादी” के बतौर चिन्हित किया था. कमल हासन का वक्तव्य बिल्कुल सही है.
कई त्रुटियां थीं. जान लीजिये, 9 मि.मी. की बेरेटा पिस्तौल, जिसको एम-1934 (सीरियल नं. 60684) के नाम से जाना जाता है, इटली से आई थी और उसी पिस्तौल का इस्तेमाल नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या में किया था. वह अपने जमाने की सबसे आधुनिक पिस्तौल थी. इस पिस्तौल का निर्माण 1934 में हुआ था और उसे ब्रिटिश इंडियन सेना की ग्वालियर रेजिमेंट का एक कर्नल इथ्योपिया से भारत लाया था. इटालियन फौज के कमांडर की इस गन को वह कर्नल युद्ध जीतने के ईनाम के बतौर अपने साथ ग्वालियर ले आया था. बाद में वह अफसर ग्वालियर के महाराजा का निजी सहकारी (एडीसी) बन गया. आश्चर्य की बात यह है कि 28 जनवरी को, जब नाथूराम गोडसे दत्तात्रेय एस. परचुरे (जो गांधी हत्याकांड में एक अन्य आरोपी था) के साथ रिवाल्वर की खरीद करने ग्वालियर गया, तो जगदीश प्रसाद गोयल नाम के बंदूक विक्रेता के पास एडीसी की यही पिस्तौल मौजूद थी.
इस तथ्य की कोई जांच नहीं की गई कि यह पिस्तौल ग्वालियर के महाराजा के निजी सहकारी के पास से बंदूक विक्रेता की दुकान तक कैसे पहुंची और उसके बाद गोडसे को कैसे मिल गई. अगर इस बात की जांच की जाती तो सावरकर की भूमिका पक्के तौर पर स्थापित हो जाती. वास्तव में गोडसे उस स्तर का आदमी ही नहीं था कि उसे वह नेटवर्क मिल जाता, जो उसे बंदूक विक्रेता तक ले गया और उसने गोडसे को ऐसी पिस्तौल बेच दी जो अपने जमाने का सबसे कारगर छोटी दूरी की मार करने वाला हथियार था.
यह कार्टून 1945 में अग्रणी पत्रिका में प्रकाशित हुआ था, जिसका सम्पादक खुद गोडसे था. इस कार्टून में नेताजी, पटेल एवं अन्य महत्वपूर्ण नेताओं को गांधी के साथ रावण के सिरों के बतौर दिखलाया गया है.
क्रिस्टोफर जेफरलाॅट ने अपनी रचना “मेजोरिटेरियन स्टेट: हाउ हिंदू नेशनलिज्म इज चेंजिंग इंडिया” में आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक गोलवलकर द्वारा 8 दिसम्बर 1947 को संघ के 2,500 कार्यकर्ताओं की बैठक में दिये गये भाषण को उद्धृत किया है. इस भाषण में गोलवलकर ने संघ कार्यकर्ताओं से कहा कि मुसलमानों को भारत से खदेड़कर पाकिस्तान भेजना होगा और पाकिस्तान को खत्म कर देना होगा, और “अगर कोई आदमी हमारे रास्ते में बाधा बनकर खड़ा होता है तो हमें उसको भी खत्म कर देना होगा.” यकीनन, गांधीजी उन लोगों में थे जो संघ के जनहत्या कांड रचाने के सपनों की राह में बाधा बनकर खड़े थे. गोलवलकर ने गांधी जी के बारे में लिखा था, “महात्मा गांधी उन लोगों को (हिंदुओं को) ज्यादा दिनों तक गुमराह नहीं कर सकेंगे. हमारे पास ऐसे साधन हैं जिनके जरिये इस किस्म के लोगों की जबान तुरंत बंद कर दी जा सकती है, मगर यह हमारी परम्परा है कि हम हिंदुओं से दुश्मनी नहीं कर सकते. फिर भी अगर हमको मजबूर किया गया तो हमें उसी उपाय का सहारा लेना होगा”.
गोलवलकर को लिखी गई अपनी चिट्ठी में पटेल ने इसी किस्म के भाषणों का हवाला दिया था, जब उन्होंने कहा था कि “उन लोगों (आरएसएस के नेताओं) के तमाम भाषण साम्प्रदायिक जहर भरे थे ... इसी जहर के अंतिम नतीजे के तौर पर देश को गांधी जी जैसे मूल्यवान जीवन के बलिदान की क्षति झेलनी पड़ी. ... आरएसएस के लोगों ने गांधी जी की मृत्यु के बाद खुशियां जाहिर की थी और मिठाइयां बांटी थीं.” (गोलवलकर को लिखी पटेल की चिट्ठी का पूरा मजमून राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लिखित देशराज गोयल की किताब में उपलब्ध है.)
श्यामा प्रसाद मुखर्जी को लिखित एक पत्र में भारत के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने एक बार फिर, गांधी जी की हत्या के लिये देश में माहौल बनाने में आरएसएस की भूमिका की पुष्टि की थी.
“जहां तक आरएसएस और हिंदू महासभा का सवाल है ... हमारी रिपोर्टों से इस बात की पुष्टि होती है कि इन दोनों संगठनों की गतिविधियों, खासकर आरएसएस की गतिविधियों के चलते देश में एक ऐसा माहौल पैदा किया गया कि जिसमें इस घृणित दुखद घटना (गांधी जी की हत्या) को अंजाम देना संभव हो पाया.”