वर्ष - 28
अंक - 49
23-11-2019
– दिलीप खान

जेएनयू प्रशासन के नए नियम-कायदों के खिलाफ वहां चल रहे प्रदर्शन की आवाज को परिसर तक महदूद रखने की कोशिश में सरकार ने जेएनयू के चारों तरफ पुलिस बल की भारी तैनाती कर रखी है. छात्र-छात्राओं का जत्था जब भी कैंपस से बाहर निकला, पुलिस ने उन पर लाठियां बरसाईं, वाटर कैनन छोड़े और कैंपस को सील कर दिया. इन सबके बीच जेएनयू को अलग-अलग विश्वविद्यालयों से समर्थन भी मिल रहा है और ‘विश्वगुरु’ बनने की चाहत रखने वाले इसी समाज से गालियां भी मिल रही हैं.

कुल मामला अलग-अलग मदों में फीस बढ़ाए जाने, नए-नए मदों में छात्र-छात्राओं से पैसे वसूलने और हाॅस्टल लौटने, वहां ठहरने और पुस्तकालय खुलने-बंद होने की समय-सीमा से जुड़ा है. सार्वजनिक पैसों से चलने वाले विश्वविद्यालयों में सस्ती और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के समर्थन में आवाज उठाने वालों के पास तो ठोस वजहें हैं, लेकिन विरोध करने वाले लोग इसके लिए जो तर्क पेश कर रहे हैं उनकी तहकीकात जरूरी है. देश के हर विश्वविद्यालय में जब भी बढ़ी हुई फीस को कम करने की मांग उठती है तो प्रत्युत्तर में पिछले कुछ वर्षों से एक दलील फौरन उभरकर सामने आती है: ये लोग मुफ्तखोर हो गए हैं, इन्हें सब कुछ मुफ्त में चाहिए. दूसरी दलील भी इसी से जुड़ी है: करदाताओं के पैसों पर ये लोग ऐश कर रहे हैं.

सरकारी शिक्षा का हाल क्यों बेहाल? क्या इसमें है सरकार की चाल? जेएनयू छात्रों पर लाठीचार्ज, संसद में जमकर हंगामा, राज्य सभा स्थगित, जेएनयू छात्रों ने लगाए दिल्ली पुलिस पर बर्बरता के आरोप, जेएनयू के हजारों छात्र क्यों जा रहे थे संसद मार्ग?

टैक्स से पढ़ने की दलील

दुनिया के किसी भी मुल्क में सरकार द्वारा लगाए जाने वाले टैक्स के पीछे जो सबसे मजबूत कारण होते हैं वो हैं – शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी सुविधाओं/संरचनाओं पर सरकार की तरफ से किये जाने वाले खर्च के लिए पैसे जमा करना और घरेलू उद्योग-धंधों को अर्थव्यवस्था में टिकाए रखने के लिए विदेशी उत्पाद को ‘बराबर प्रतियोगिता’ से दूर रखना. कल्याणकारी राज्य बाकी कारणों के मुकाबले इन्हीं कारणों को टैक्स वसूलने की दलील के तौर पर सामने रखते हैं. इससे राज्य के ‘मानवीय चेहरे’ को स्वीकृति मिलती है.

इन्हीं शिक्षण संस्थानों से निकलने वाले लोग बाद में या तो राज्य की संस्थाओं को मजबूत करते हैं या फिर राज्य से तीखे सवाल पूछते हैं. दोनों की तरह के लोग अपनी-अपनी समझदारी के हिसाब से समाज को बेहतर बनाने की दिशा में मेहनत करते हैं. अमेरिका के जाने-माने राजनीतिज्ञ और लेखक बेंजामिन फ्रैंकलिन ने इसलिए कहा था कि ज्ञान पर किया गया निवेश सबसे बेहतरीन ब्याज चुकाता है.

अगर सरकार टैक्स से वसूले गए धन को शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च नहीं करेगी तो इसका खर्च कहां होना चाहिए? देश की सबसे ग़रीब आबादी जब सरकार को अप्रत्यक्ष कर चुकाती है तो वो किस उम्मीद में चुकाती है? क्या उन लोगों को मौजूदा और आने वाली पीढ़ी के बेहतर भविष्य का ख्वाब देने का हक नहीं है? इस देश में सरकार को अप्रैल 2018 से जनवरी 2019 के बीच 7.88 लाख करोड़ रुपए आयकर के मिले. इसी दौरान जीएसटी और गैर-जीएसटी अप्रत्यक्ष करों से हासिल पैसे हैं 6.21 लाख करोड़ रुपए. अप्रत्यक्ष कर एक ऐसा कर है जो मुकेश अंबानी को भी उतना ही भरना पड़ता है जितना एक दिहाड़ी मजदूर को. लेकिन मुकेश अंबानी के पास इस देश की शिक्षा व्यवस्था की दिशा उस तरह से तय करने का अधिकार है जिसकी कल्पना के दायरे में भी दिहाड़ी मजदूर के बच्चे कहीं नहीं आते.

शिक्षाविद’ मुकेश अंबानी और कुमार मंगलम बिड़ला

देश में बीजेपी के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उच्च शिक्षा की दिशा तय करने के लिए एक समिति बनाई. दिलचस्प ये है कि समिति मानव संसाधन विकास मंत्रालय की निगरानी में नहीं बनी थी. ‘व्यापार और उद्योग’ पर प्रधानमंत्री द्वारा गठित परिषद को इसकी जिम्मेदारी दी गई. समिति की अगुवाई कोई शिक्षाविद नहीं कर रहा था, बल्कि मुकेश अंबानी इसके संयोजक थे और कुमार मंगलम बिड़ला सदस्य. इस दो सदस्यीय समिति ने 24 अप्रैल 2000 को केंद्र सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी थी, जिसे सरकार ने बेहद गोपनीय बनाए रखा.

रिपोर्ट का नाम था ‘ए पाॅलिसी फ्रेमवर्क पफाॅर रिफाॅर्म्स इन एजुकेशन’ यानी शिक्षा में सुधार के लिए एक नीतिगत ढांचा. समिति को स्पष्ट जिम्मेदारी दी गई थी कि वो सरकार को बताएं कि शिक्षा में ‘निजी निवेश’ का रास्ता कैसे खोला जाए. कर वसूलने के लिए जिस स्वास्थ्य, शिक्षा और ग्रामीण विकास को दुनिया भर की सरकारें अपने ढाल के तौर पर इस्तेमाल करती हैं, उन तीनों क्षेत्रों से हाथ खींचकर ‘निजी निवेश’ का रास्ता अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार तलाश रही थी.

अंबानी-बिड़ला समिति ने रिपोर्ट में स्पष्ट कहा कि ‘शिक्षा को सामाजिक विकास’ की नज़र से देखना तत्काल बंद करना चाहिए और शिक्षा का चरित्र क्या होगा इसे तय करने का अधिकार ‘बाज़ार’ को दिया जाना चाहिए. समिति ने ये भी कहा था कि सरकार को उच्च शिक्षा से खर्च वापस लेकर प्राथमिक शिक्षा पर जोर देना चाहिए. उच्च शिक्षा को क्रेडिट मार्केट के भरोसे छोड़ना चाहिए और सार्वजनिक शिक्षा के प्रबंधन का विकेंद्रीकरण होना चाहिए और इसमें निजी और सामुदायिक शिक्षण संस्थानों को हिस्सेदार बनाना चाहिए.

समिति ने ये भी कहा था कि बाजारोन्मुख शिक्षा को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. निजी विश्वविद्यालयों के लिए विधेयक लाने की सिफारिश दी गई थी. साथ ही कहा था कि विश्वविद्यायलों में ‘हर तरह की राजनीतिक गतिविधियों’ पर पूरी तरह पाबंदी लगनी चाहिए.

2000 से 2019 तक क्या बदला

अंबानी-बिड़ला समिति की रिपोर्ट को आधार मानकर सीधे 19 साल की छलांग लगाकर अगर ताजा हालात पर नजर दौड़ाएं तो दिलचस्प स्थिति उभरती है. समिति ने सरकार के सामने अगले 15 वर्षों का अनुमान और लेखा-जोखा पेश किया था. पिछले दो दशकों में अगर उच्च शिक्षा के प्रति सरकारों का रवैया देखें तो साफ लगता है कि उच्च शिक्षा पर सार्वजनिक खर्च में कटौती की लगातार कोशिशें हो रही हैं. नरेन्द्र मोदी सरकार में मुकेश अंबानी भी मजबूत हुए हैं और उनकी पुरानी रिपोर्ट की सिफारिशों के मुताबिक विश्वविद्यालय परिसरों को बदलने की कोशिश भी मजबूत हुई है.

दिल्ली विश्वविद्यालय में छात्र-छात्राओं पर फीस का बोझ डालकर सरकार ने इसे ‘स्वायत्तता’ का नाम दिया. देश के कई शैक्षणिक संस्थानों में दोगुनी से लेकर 2000 गुनी तक फीस बढ़ाने का फैसला लिया गया. कई जगहों पर सरकारी फैसले के खिलाफ प्रदर्शन हुए. कहीं सरकार थोड़ी झुकी, कहीं बिल्कुल नहीं झुकी. क्या हम मान चुके हैं कि उच्च शिक्षा के ढांचे को उद्योगपतियों के हाथ में सौंपकर दलितों, आदिवासियों, मुस्लिमों और गरीबों की नौजवान पीढ़ी के हाथ से इस बुनियादी अधिकार को झटक लें?

दुनिया में कहां खड़ी है जेएनयू

अमेरिका के मशहूर मानवाधिकार कार्यकर्ता मैल्कम एक्स ने एक बार कहा था कि शिक्षा हमारे भविष्य का पासपोर्ट है. कल उसी का होता है जो इसकी तैयारी आज शुरू करते हैं.

भारत में इस कल की तैयारी पिछले दो-तीन दशकों से उद्योगपतियों ने शुरू की. ‘आज’ उन्हीं की इच्छाओं और नीतियों को सरकार मंजूरी दे रही है. ‘आज’ अगर जेएनयू समेत देश के तमाम विश्वविद्यालयों के पक्ष में उच्च शिक्षा को सबके दायरे में पहुंचाने के लिए आवाज़ नहीं उठती है तो आने वाले कल पर भी उन्हीं का कब्जा होगा जो इसकी शुरूआत कर चुके हैं. सोशल मीडिया पर जेएनयू को बंद कराने की मुहिम चला रहे लोगों को अंदाजा नहीं है कि वो आने वाली पीढ़ी के लिए क्या मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं. टाइम्स हर साल दुनिया के शीर्ष विश्वविद्यालयों और संस्थानों की एक सूची जारी करता है. 2012 के बाद पहली बार ऐसा हुआ जब भारत का एक भी विश्वविद्यालय या शैक्षणिक संस्थान शीर्ष 300 में भी जगह नहीं बना पाया. बेंगलुरू स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट आफ साइंसेस इस सूची में भारत की अगुवाई कर रहा है. इसके बाद टाॅप 500 में चार आईआईटी हैं. बाकी किसी भी संस्थान को इसमें जगह नहीं मिली.

टाइम्स की रेटिंग महज एक पैमाना है. ये मुकम्मल भी हो सकता है और नहीं भी. इसी सूची में जेएनयू को 600$ विश्वविद्यालयों की सूची में रखा गया है. दिलचस्प ये है कि जेएनयू को सर्वाधिक 43.9 रेटिंग शिक्षण में मिले और इसके बाद सबसे ज्यादा 43.0 अंक इंडस्ट्री इनकम में मिला. इसका मतलब है कि जेएनयू में जो शोध हो रहे हैं उसका बाजार में क्या वैल्यू है. जेएनयू को ‘मुफ्तखोरों का अड्डा’ कहने वाले प्रतिगामी लोगों को सार्वजनिक शिक्षा का महत्व समझाना मुश्किल है, लेकिन अगर शिक्षा को बाजार मूल्य से नापने को लोगों ने पैमाना बना लिया हो तो उस हिसाब से भी जेएनयू का स्कोर बाकी रेटिंग्स से बेहतर है.

इसी सरकार ने इसी जेएनयू को सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय का पुरस्कार दिया और इसी जेएनयू के यही कुलपति जगदीश कुमार उस वक्त ट्राॅफी पकड़ने के लिए मंच पर पहुंचे थे, जो छात्र-छात्राओं और शिक्षकों की मेहनत का नतीजा था. ये ट्राॅफी स्टूडेंट्स पर लाठियां बरसाने और ‘ड्रेस कोड’ के लिए नहीं मिला था. जमाने से शिक्षा पर जीडीपी का 6 फीसदी धन खर्च करने की मांग हो रही है और सरकार खर्च बढ़ाने के बजाए लगातार कटौती कर रही है. देश के ‘सवा अरब भाइयों-बहनों’ को बात-बात में संबोधित करने वाले और 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाने का ख्वाब दिखाने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को क्या पूरे देश के विश्वविद्यालयों में पीएचडी करने वालों की मात्रा सवा लाख (1.23 लाख) लोगों की संख्या भी आंखों में चुभने लगी है?