मोदी सरकार की दस सालों की कारपोरेट-परस्ती और आर्थिक कुप्रबंधन ने भारत को गहरे आर्थिक संकट में झोंक दिया है. गिरती आर्थिक विकास दर, अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपये का लगातार कमजोर होना, बढ़ता आयात बिल और रोजमर्रा की जरूरी चीजों की आसमान छूती कीमतें – हर संकेतक भारत के बिगड़ते आर्थिक हालात की तरफ साफ इशारा करता है. इन खतरनाक हालात से ध्यान भटकाने के लिए सरकार ने लक्ष्य को 2047 तक टाल दिया है, यानी भारत की आजादी के सौ साल पूरे होने तक देश को विकसित बनाने का सपना दिखाया जा रहा है!
इसी बीच, खेती पर कारपोरेट कब्जे की नाकाम कोशिश के बाद, अब इसे कृषि विपणन नीति के नाम पर आगे बढ़ाया जा रहा है. श्रमिकों के मोर्चे पर, काम के घंटे 90 तक बढ़ाने की चर्चाएं जोर-शोर से चल रही हैं, जबकि मजदूरी लगातार घट रही है और काम के हालात पहले से ज्यादा कठोर, असुरक्षित और अलोकतांत्रिक होते जा रहे हैं.
‘ट्रिकल-डाउन’ आर्थिक विकास की अवधारणा कहती है कि जब बड़े उद्योगपतियों और अमीरों को आर्थिक लाभ दिए जाते हैं, तो वह लाभ धीरे-धीरे समाज के निचले तबके तक पहुंचेगा. लेकिन यह सिद्धांत हमेशा से महज एक खुशफहमी रहा है, यहां तक कि अच्छे दिनों में भी. अब जब सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर धीमी पड़ चुकी है, तो यह दावा एक क्रूर मजाक बन गया है.
मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में कृषि श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी हर साल 1.3% की दर से घटी, जबकि गैर-कृषि ग्रामीण मजदूरी इससे भी अधिक, 1.4% की दर से कम हुई. फिक्की की हालिया रिपोर्ट बताती है कि 2019 से 2023 के बीच निजी क्षेत्र में वास्तविक मजदूरी घटी है. नाममात्र (नॉमिनल) मजदूरी में हालांकि ईएमपीआई सेक्टर (इंजीनियरिंग, विनिर्माण, प्रक्रिया और बुनियादी ढांचा) में सालाना 0.8% और एफएमसीजी (तेज़ी से बिकने वाले उपभोक्ता सामान) सेक्टर में 5.4% की वृद्धि हुई, लेकिन महंगाई इससे ज्यादा, 5.7% की सालाना दर से बढ़ी.
दूसरी ओर, कोविड के बाद के दौर में भी कंपनियों का कर-बाद मुनाफा (पोस्ट-टैक्स प्रॉफिट) चार गुना बढ़ गया और 2024 में जीडीपी के 4.8% तक पहुंच गया – जो पिछले पंद्रह वर्षों में सबसे अधिक है.
गिरती मजदूरी और बढ़ते मुनाफे के मेल से देश में आर्थिक असमानता खतरनाक स्तर पर पहुंचती जा रही है. चंद अरबपतियों के एक छोटे से गिरोह के हाथ में देश की ज्यादातर कमाई और दौलत सिमट गई है. इस चौंकाने वाली असमानता को भारत की लगातार प्रतिगामी होती कर प्रणाली और बढ़ा रही है.
भारत का टैक्स-जीडीपी अनुपात (जिसमें केंद्र, राज्यों और नगरपालिकाओं द्वारा लगाए गए सभी कर शामिल हैं) सिर्फ 17% के आसपास है, जो विकासशील देशों में सबसे कम में से एक है. कुल कर राजस्व का लगभग आधा हिस्सा अप्रत्यक्ष करों से आता है, जिसमें मुख्य योगदान जीएसटी का है, जबकि व्यक्तिगत आयकर अब प्रत्यक्ष करों में कारपोरेट कर से अधिक योगदान देने लगा है.
सीधे शब्दों में कहें, तो करों का सबसे बड़ा बोझ गरीबों और मध्यम वर्ग पर पड़ रहा है, जबकि अति-धनी वर्ग बेहद मामूली योगदान देकर बच निकल रहा है.
हाल ही में भारत दौरे के दौरान, मशहूर फ्रांसीसी अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने भारत सरकार को खुली चुनौती दी कि वह देश के 100 सबसे अमीर लोगों द्वारा चुकाए गए करों का डेटा सार्वजनिक करे.
पिकेटी और कई अन्य विकास अर्थशास्त्रियों के अनुसार, 10 करोड़ रू. से अधिक की संपत्ति और विरासत पर 2% एकमुश्त संपत्ति कर और 33% विरासत कर लगाने, साथ ही अति-धनी वर्ग के लिए अधिक प्रभावी आयकर प्रणाली लागू करने से भारत के राजस्व में भारी वृद्धि हो सकती है. इससे सभी को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और अन्य आवश्यक सार्वजनिक सेवाएं मुहैया कराने के लिए ठोस वित्तीय आधार तैयार किया जा सकता है.
कम कारपोरेट करों से निजी निवेश और रोजगार बढ़ने का दावा पूरी तरह खोखला साबित हुआ है. मुख्य आर्थिक सलाहकार वी. अनंत नागेश्वरन ने हाल ही में सार्वजनिक रूप से इस विरोधाभास की ओर इशारा किया है कि कारपोरेट मुनाफे बढ़ रहे हैं, लेकिन रोजगार घट रहा है और मजदूरी भी ठहरी हुई है.
2017-18 से 2023-24 के बीच नियमित वेतन वाली नौकरियों का प्रतिशत 5% घटा है, जबकि इसी दौरान स्वरोजगार करने वाले श्रमिकों की संख्या 52% से बढ़कर 57.7% हो गई है.
एक और बड़ी चिंता का विषय है, अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपये के मूल्य में लगातार गिरावट. 2014 में 58 रु. प्रति डॉलर की दर से अब यह गिरकर 86 रु. प्रति डॉलर तक पहुंच चुका है – यानी मोदी सरकार के पिछले दस वर्षों में रुपये का भारी अवमूल्यन हुआ है. रुपये के मूल्य में गिरावट के तीन प्रमुख नकारात्मक प्रभाव अर्थव्यवस्था पर पड़े हैं – आयात बिल में भारी वृद्धि, बढ़ता हुआ कर्ज चुकाने का बोझ, और डॉलर के मामले में रिटर्न घटने के कारण भारत से विदेशी संस्थागत निवेश का पलायन.
ब्रिक्स देश मिलकर अंतरराष्ट्रीय व्यापार को ‘डॉलर-मुक्त’ बनाने और वैश्विक व्यापार में डॉलर के वर्चस्व को खत्म करने के लिए वैकल्पिक मुद्राओं को बढ़ावा देने की प्रतिबद्धता जता चुके हैं. लेकिन ट्रंप ने चेतावनी दी है कि अगर कोई देश अमेरिकी डॉलर के बजाय दूसरी मुद्राओं में व्यापार करने की कोशिश करेगा, तो उस पर भारी टैरिफ लगाया जाएगा.
मोदी पहले ही इस वैकल्पिक योजना से पीछे हट चुके हैं, और अब सरकार ने अमेरिकी दबाव में घुटने टेककर रूस से तेल खरीदना भी बंद कर दिया है.
गिरती मजदूरी और आम लोगों की घटती क्रय शक्ति का सीधा असर जन उपभोग में गिरावट और घरेलू मांग की कमी के रूप में दिख रहा है, जिससे बाजार सुस्त हो गया है. घरेलू बाजार में यह मंदी उत्पादक निवेश और विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) गतिविधियों के विस्तार में एक बड़ी रुकावट बन गई है, जिससे कारखानों में निवेश और उत्पादन भी घट रहा है.
सरकार की सबसे बड़ी आर्थिक प्राथमिकता सार्वजनिक निवेश बढ़ाना और मजदूरी व क्रय शक्ति में उल्लेखनीय वृद्धि सुनिश्चित करना होना चाहिए, ताकि घरेलू मांग और उत्पादन को मजबूती मिले.
अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भारत को अन्य विकासशील देशों के साथ सहयोग बढ़ाना चाहिए, ताकि अमीर देशों के आर्थिक दबदबे और नियंत्रण का सामूहिक रूप से प्रतिरोध किया जा सके.
इसके लिए अमीरों पर उचित कर लगाकर और अंतरराष्ट्रीय आर्थिक क्षेत्र में भारत के वास्तविक आर्थिक हितों की रक्षा करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति जरूरी है – न कि अदानी जैसे भ्रष्ट और चहेते पूंजीपतियों के हितों की. लेकिन मोदी सरकार इसके ठीक उलट काम कर रही है और ज़्यादातर भारतीयों के लिए एक बढ़ता आर्थिक बोझ बनती जा रही है.