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नई दिल्ली, 12 फरवरी 2025:

शहरी बेघर गरीबों के लिए शेल्टरों के हालत पर सर्वोच्च न्यायालय में चर्चा करते हुए जस्टिस गवई ने चुनाव से पहले राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त की रेवड़ियां बांटने वाले वायदों की आलोचना करते हुए कहा है कि इससे "परजीवियों का वर्ग" बनाया जा रहा है. मुख्य धारा के मीडिया ने भी इस वक्तव्य को लपकने में देर नहीं की और रेवड़ियां बांटने की राजनीति के खिलाफ चिल्लाना शुरू कर दिया.

बेहद चिंता की बात है कि खुद सर्वोच्च न्यायालय के मौजूदा जज आर्थिक रूप से वंचित लोगों को परजीवी बता रहे हैं और उन्हें थोड़ी सी राहत देने वाली जनकल्याण योजनाओं के खिलाफ बोल रहे हैं.

यह और भी ज्यादा चिंताजनक है कि संवैधानिक अदालतों के जज, जो सेपरेशन ऑफ पॉवर्स का तर्क देकर सरकार की जनविरोधी नीतियों में हस्तक्षेप करने से आसानी से बच निकलते हैं, उन्हें इस तरह की टिप्पणी करने में कोई संकोच नहीं हुआ. यह अनायास हो गई टिप्पणी या शब्दों का गलत चयन का मामला बिल्कुल नहीं है, बल्कि उस मानसिकता को दिखा रहा है जो जीवनयापन का गंभीर संकट झेल रही बहुसंख्य आबादी के अस्तित्व को ही नकारती है. ऐसी मानसिकता जो फ्री राशन पर निर्भर बना दिए गए 80 करोड़ लोगों के वास्तविक हालत के प्रति नितांत संवेदनाहीन है.

यहीं तक नहीं, उक्त जस्टिस महोदय आगे यह भी कहते हैं कि ऐसे "काम नहीं करना चाहने" वाले लोगों को समाज की मुख्य धारा में लाना होगा. जबकि बेरोजगारी आसमान छू रही है, काम मिल नहीं रहा, और सरकार ने नौकरी देने का वायदा पूरा नहीं किया. ऊपर से मनरेगा के फंड में कटौती कर के ग्रामीण रोजगार और कम कर दिए गए. शहरी रोजगार गारंटी कानून बनाने की तो सरकार की कोई योजना ही नहीं है. मोदी सरकार की तबाही ढाने वाली नीतियों ने रोजगार छीन लिए हैं, नए रोजगार बढ़ाने की बात तो भूल ही जाइए. फिर भी जो थोड़ा बहुत रोजगार कर रहे हैं वह असुरक्षित और अनौपचारिक क्षेत्र में हैं जहां नौकरी, मजदूरी रेट और सामाजिक सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है. ऐसे अनावश्यक बयान देने की जगह संवैधानिक अदालतों को चाहिए कि वे रोजगार, पर्याप्त वेतन और सम्मानजनक जीवन की संवैधानिक गारंटियों को देने में विफल सरकार को कटघरे में खड़ा करें.

न्यूनतम भौतिक जरूरतों और सम्मान से वंचित गरीबों पर हमला करना आज कल आम परिघटना बन गई है. दो साल पहले प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने गरीबों के लिए जनकल्याण योजनाओं का वायदा करने वाली विपक्षी पार्टियों पर "रेवड़ी कल्चर लाने" जैसी अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल किया था. बैंकों से कर्ज माफी और एनपीए के रस्ते जनता का लाखों करोड़ दबा लेने वाले और सरकार से कौड़ियों के दाम सस्ती जमीनें, संसाधन और सुविधाओं की रेवड़ियां पा रहे कॉरपोरेट पूंजीपति भी इसमें पीछे नहीं हैं. कुछ दिन पहले एल एंड टी के चेयरमैन व एमडी एस एन सुब्रह्मण्यम ने यह कह कर अपनी कुंठा निकाली थी कि जनकल्याण और डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर योजनाओं के कारण लोग गांवों से माइग्रेट (प्रवास) नहीं कर रहे हैं.

बहुत हुआ. ऐसे मजाक बंद कीजिए. ये केवल सरकार की नीतियां हैं जिनके कारण जनता असीम गरीबी झेलने को मजबूर है, थोड़ी सी जनकल्याण की योजनाएं उन्हें मात्र जिंदा रहने भर की मामूली राहत दे रही हैं. वक्त आ गया है कि जनता सामने आकर इन जनविरोधी नीतियों को खत्म करेगी जिनसे मुट्ठी भर अमीर और अभिजात्यों को और अमीर बनाने के लिए गरीबों को और गरीब बनाया जा रहा है।

- केन्द्रीय कमेटी, भाकपा (माले) लिबरेशन