- आकाश भट्टाचार्य
23 अगस्त 2024 को, आर्यन मिश्रा ने हरियाणा के पलवल के पास एक हाईवे पर गोली लगने से अपनी जान गंवा दी. उसकी गलती : संभवतः वह एक मुस्लिम और ‘गाय तस्कर’ हो सकता था. उसके हत्यारों ने ये स्वीकार किया है.
जाति और धार्मिक आधार पर समाज को अलग करने के बेहतरीन हिंदू वर्चस्ववादी प्रयासों के बावजूद, भारत काफी हद तक एक बहुलवादी, विविधतापूर्ण और मिश्रित समाज बना हुआ है. शहर, कस्बे, गांव, मोहल्ले और कभी-कभी घर भी अंतर-जातीय और अंतर-धार्मिक हैं. देखने में स्थिति भ्रामक ही बनी रहती हैं, भले ही स्टीरियोटाइपिंग के कितने ही प्रयास किए जाएं. दूसरे शब्दों में कहें तो मुसलमानों को परेशान करने और मारने के लिए निकले गौरक्षकों के लिए भ्रमित होने के लिए पर्याप्त कारण भारतीय समाज में मौजूद हैं.
आर्यन के हत्यारों के भ्रम ने व्यापक आबादी में गुस्सा पैदा किया. कुछ लोगों ने पूछा, इससे क्या फर्क पड़ता है कि वह हिंदू था या मुसलमान? क्या धर्म लोगों को गोली मारने का कारण है? कई लोगों ने कहा, नहीं. लेकिन कुछ लोगों ने – एक छोटी लेकिन महत्वपूर्ण संख्या – चुपचाप खुद से दोहराया – हां, यह सच है.
ऑल इंडिया लॉयर्स एसोसिएशन फॉर जस्टिस (आइलाज) की दो सदस्यीय टीम, जिसमें आकाश भट्टाचार्य और हर्षित सेठी शामिल थे, ने घटना के तुरंत बाद पलवल में घटनास्थल का दौरा किया और स्थानीय लोगों से बात की. टीम ने पाया कि कई लोग आर्यन मिश्रा के प्रति सहानुभूति रखते थे क्योंकि वह ‘दोषी नहीं’ होने के बावजूद मारा गया था. ऐसा लगता है कि गौरक्षकों के खिलाफ कोई मजबूत राय नहीं है.
जैसे-जैसे हिंदू बहुसंख्यकवादी जहर हमारे समाज में व्यवस्थित रूप से डाला जा रहा है, कुछ लोग मुसलमानों को परेशान किए जाने और धमकाने के वीडियो का आनंद लेने लगे हैं. वे किसी भी बहाने या बिना किसी बहाने के मुसलमानों की लिंचिंग और उनकी संपत्तियों को ध्वस्त करने पर बेपरवाही से प्रतिक्रिया कर रहे हैं. राज्य समर्थित गौरक्षक इस जहर को इंजेक्ट करने के प्रमुख साधनों में से एक है.
आर्यन मिश्रा हरियाणा से था. राज्य और उसके आस-पास के क्षेत्रों के साथ-साथ लंबे समय से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार द्वारा शासित अन्य राज्यों में हाल के वर्षों में विशिष्ट व्यक्तियों के साथ-साथ पूरे समुदायों के खिलाफ बहुसंख्यकवादी हिंसा की बाढ़ आ गई है.
हरियाणा और उसके सीमावर्ती जिलों में, पहलू खान (नूंह, 2017), उमर खान (अलवर, 2017), अकबर खान उर्फ रकबर (2018), आसिफ खान (नूंह, 2021), वारिस खान (नूंह, 2023), सभी ने गौरक्षकों के हाथों अपनी जान गंवा दी. गौरक्षकों ने पिछले साल नूंह में मुस्लिम विरोधी हिंसा की साजिश रची थी, जिसके लिए प्रशासन ने तुरंत रोहिंग्या और अन्य मुसलमानों को दोषी ठहराया और उनके दर्जनों घरों को बुलडोजर से गिरा दिया और इन समुदायों के कई युवाओं को जेल में डाल दिया. यह गौरक्षकता न तो स्वतःस्फूर्त है और न ही यह भाजपा शासन का उपोत्पाद है. इसे भाजपा सरकारों द्वारा व्यवस्थित रूप से समाज में फैलाया जा रहा है. हरियाणा इसका एक बड़ा उदाहरण है कि यह कैसे किया जा रहा है. हरियाणा गौ संरक्षण अधिनियम (2015), जिसे 2019 में संशोधित कर और अधिक कठोर बना दिया गया है, संदिग्ध पशु व्यापारियों के खिलाफ नागरिकों की कार्रवाई के माध्यम से मामले को दर्ज करने की अनुमति देता है. जैसे ही कोई मामला दर्ज होता है, सोशल मीडिया पर भारी हंगामा मच जाता है और अफवाहों और सोशल मीडिया के जरिए ध्रुवीकरण शुरू हो जाता है. मोनू मानेसर और बिट्टू बजरंगी – नूंह में जुलाई 2023 की हिंसा के प्रमुख सूत्रधार – ऐसी गतिविधियों के माध्यम से प्रमुखता में आए, जैसे वारिस खान पर हमले का फेसबुक पर सीधा प्रसारण करना, मुस्लिम गौ व्यापारियों को कड़ी सजा के जरिए हिंदुओं के लिए ‘न्याय’ की मांग करना, वगैरह.
इस अधिनियम के तहत दर्ज बहुत कम मामले वास्तव में न्घ्यायालय द्वारा अपराधी ठहराए जाने के रूप में समाप्त होते हैं. 2022 की दूसरी छमाही में नूंह जिला और सत्र न्यायालय द्वारा तय किए गए 69 मामलों में से केवल चार में दोषसिद्ध हुई – 94% की बरी दर. बेहद कम दोषसिद्ध दर के बावजूद, पिछले सात वर्षों में अकेले नूंह जिले में इस अधिनियम के तहत लगभग हर दूसरे दिन एक मामला दर्ज किया गया है. दिसंबर 2022 तक, नूंह कोर्ट में ऐसे 1,192 मामले लंबित थे. मामले का पंजीकरण हिंसा की ओर बढ़ने में निर्णायक क्षण है.
हरियाणा इसका अपवाद नहीं है. हरियाणा के अलावा, भाजपा शासित मध्य प्रदेश, गुजरात और कई अन्य राज्यों ने ‘गौ रक्षक’ पहचान पत्र जारी किए हैं. यह पहचानना महत्वपूर्ण है कि गौ रक्षक वास्तव में गौ रक्षक नहीं हैं. सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए, उन्हें पुलिस विभाग द्वारा औपचारिक या अनौपचारिक अनुबंध दिए गए हैं. उन्हें दी गई वैधता हिंसा का माहौल बनाने में सक्रिय भूमिका निभा रही है. 27 अगस्त को चरखी दादरी में बीफ खाने के संदेह में एक बंगाली प्रवासी श्रमिक की लिंचिंग हाल के दिनों में बीफ लिंचिंग की सूची में जुड़ गई है.
पीड़ित साबिर मलिक (22 वर्ष) करीब पांच साल पहले कूड़ा बीनने के लिए राज्य में आया था और हंसावास खुर्द गांव में अपनी पत्नी और दो साल की बेटी के साथ रह रहा था. उसकी मौत से कुछ घंटे पहले, युवकों के एक समूह ने गांव में पुलिस को बुलाया था, जिन्होंने दावा किया था कि वहां झुग्गियों में गोमांस पकाया और खाया जा रहा था. पुलिस ने मांस को जब्त कर लिया और परीक्षण के लिए भेज दिया, पुलिस का कहना है कि आरोपियों ने कानून को अपने हाथ में ले लिया और साबिर की पीट-पीट कर हत्या कर दी. इस बीच साबिर के रिश्तेदारों को पुलिस स्टेशन बुलाया गया और उनसे पूछा गया कि क्या उन्होंने गोमांस खाया है. जवाहरलाल नेहरू छात्र संघ (जेएनयूएसयू) के नेतृत्व में छात्रों के एक दल ने 15 सितंबर को हरियाणा में साबिर के गांव का दौरा किया और पाया कि मुस्लिम प्रवासी श्रमिकों में इतना आतंक था कि वे घटना के बाद अपने घर छोड़कर अपने मूल स्थानों पर लौट गए थे. पिछले साल नूंह में हुई हिंसा में मुसलमानों को निशाना बनाए जाने के बाद, गौरक्षकों के गढ़ में रहने वाले मुसलमान इस बात से भयभीत हैं कि गौरक्षकों की हिंसा के बाद उन्हें सांप्रदायिक आधार पर निशाना बनाया जा सकता है.
पूरे राजनीतिक विपक्ष को यह समझने की तत्काल आवश्यकता है कि गौरक्षकों की हिंसा एक फासीवादी राज्य द्वारा कानून के शासन को व्यवस्थित रूप से बाधित करने का प्रतिनिधित्व करती है. जब से भाजपा सत्ता में आई है, तब से कई लोगों ने इन घटनाओं को हाशिये के तत्वों की हरकतें बताकर खारिज कर दिया है. वे हाशिये के तत्वों से बिल्कुल अलग हैं. वे हिंदुत्व फासीवाद को उसके सबसे क्रूर और व्यवस्थित रूप में दर्शाते हैं. राजनीतिक विपक्ष को इसके लिए भाजपा सरकारों को सीधे तौर पर जवाबदेह ठहराना चाहिए. अदालतों को भी गौरक्षकों की हिंसा को रोकने के लिए कदम उठाने चाहिए. इसे सक्षम करने वाले कानूनी और प्रशासनिक तंत्र को ध्वस्त किया जाना चाहिए.
भाकपा(माले) की केंद्रीय कमेटी ने 11 सितंबर 2024 को धनबाद में आयोजित अपनी बैठक में एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया गया कि वह गौरक्षकों को आतंकवाद के रूप में घोषित करे और तथाकथित गौरक्षक संगठनों को गैर-न्यायिक हिंसा में लिप्त असंवैधानिक इकाई माने. भाजपा शासित विभिन्न राज्यों में गौरक्षकों के नाम पर पारित किए गए कानूनों ने गौरक्षक संगठनों को ‘कानूनी’ जामा प्रदान किया है और इसके परिणामस्वरूप मवेशी अर्थव्यवस्था, कृषि और संबद्ध गतिविधियों को बाधित करके ग्रामीण अर्थव्यवस्था में संकट और अराजकता पैदा हुई है. पार्टी ने इस संबंध में आवश्यक कानूनी बदलाव की भी मांग की है.
27 अगस्त को हरियाणा में मारे गए पश्चिम बंगाल के 24 वर्षीय प्रवासी मजदूर सबीर मलिक की भीड़ द्वारा की गई क्रूर हत्या की जांच के लिए, तथ्य-खोजी टीमों ने पश्चिम बंगाल के 24 परगना में उनके पैतृक गांव और हरियाणा के चरखी दादरी जिले में उनके अस्थायी निवास स्थान का दौरा किया. सबीर पश्चिम बंगाल के 24 परगना के सुंदरबन क्षेत्र के एक भूमिहीन परिवार से थे, वे हरियाणा में बेहतर जीवन की तलाश में थे, जहां वे अपने परिवार की परिस्थितियों को सुधारने की उम्मीद में चले गए थे. वे शादीशुदा थे और उनका एक छोटा बच्चा भी था, और वे पैसे भेजकर अपने परिवार की मदद करते थे.
भाकपा(माले)-आरवाइए के सदस्यों की एक टीम, जिसमें रंजय सेनगुप्ता (आरवाइए के राज्य अध्यक्ष), नबो कुमार बिश्वास (जिला नेता) और मानस चटर्जी शामिल थे, ने 6 सितंबर को 24 परगना के बसंती ब्लॉक के शिबगंज इलाके के बोलारटॉप में सबीर के गांव का दौरा किया.
मलिक की मौत के कारण गांव में शोक और निराशा का माहौल है. तथ्य-खोज दल ने पाया कि इस हत्या का मलिक के परिवार पर बहुत बुरा असर पड़ा है. सुंदरबन के एक सुदूर और गरीब इलाके में रहने वाली उनकी मां को तीन अन्य छोटे बच्चों की देखभाल करनी पड़ती है. परिवार की एकमात्र संपत्ति एक छोटा-सा दलदली जमीन का टुकड़ा है, जो उनके जीवनयापन के लिए बहुत कम सहारा देता है. मलिक की मां अब स्थानीय ग्रामीणों के दान पर निर्भर हैं और अनिश्चित भविष्य का सामना कर रही हैं. मलिक की विधवा पत्नी को दिया गया मुआवजा भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया. स्थानीय राजनीतिक हस्तियों और अधिकारियों ने परिवार के लिए निर्धारित सहायता को कम करते हुए धन का एक बड़ा हिस्सा हड़प लिया. मुआवजे की प्रक्रिया में पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी पीड़ितों के परिवारों के लिए सहायता तंत्र में प्रणालीगत मुद्दों को उजागर करती है.
गांव में युवाओं का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ है, जो बेहतर अवसरों की तलाश में अक्सर अत्यधिक कठिनाई की स्थिति में दूसरे स्थानों पर चले जाते हैं. मलिक जैसे प्रवासी मजदूरों को सुधार की उम्मीद के बावजूद नए इलाकों में क्रूर शोषण और हिंसा का सामना करना पड़ता है.
15 सितंबर को जेएनयू छात्र संघ, आइसा और भाकपा(माले) के नेताओं की एक अन्य तथ्यान्वेषण टीम ने हरियाणा के हंसावास खुर्द में सबीर के घर का दौरा किया, जहां यह क्रूर हत्या हुई थी. टीम में जेएनयूएसयू अध्यक्ष धनंजय, भाकपा(माले)के हरियाणा राज्य प्रभारी प्रेम सिंह गहलावत, विनोद धरौली, सुल्तान सिंह बाढड़ा और राजस्थान से भाकपा(माले) नेता ओमप्रकाश झरोड़ा शामिल थे.
टीम ने भय और आतंक का माहौल देखा, जहां घटना के बाद सभी प्रवासी मुस्लिम परिवार इलाके को छोड़कर चले गए हैं. इससे पता चलता है कि राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन लोगों की जान की रक्षा करने के अपने कर्तव्य में पूरी तरह विफल रहा है और राज्य की निष्क्रियता के कारण आपराधिक तत्वों को बल मिला है.
साबिर मलिक अपनी पत्नी और एक बेटी के साथ बाढड़ा, चकरी दादरी में रह रहा था, जो अपनी आजीविका के लिए कबाड़ बीनने का काम करता था. टीम ने 3-4 किलोमीटर की दूरी पर दो स्थानों का दौरा किया ताकि उन घटनाओं के सही क्रम को जोड़ा जा सके जिसके कारण साबिर मलिक की हत्या हुई और उसके साथी (नाम) को चोट लगी. घटना कई स्थानों पर हुई. मुख्य रूप से दो जगहें हैं, पहला हंसावास खुर्द गांव, जहां करीब 6-8 असमिया मुस्लिम प्रवासी परिवार रहते थे. दूसरा, चरखी दादरी शहर के अंदर बड़हरा में, जहां 6 बंगाली मुस्लिम प्रवासी परिवार एक बच्ची के साथ रहते थे. साबिर मलिक इसी समूह से संबंधित हैं.
27 अगस्त की सुबह करीब 8 बजे गौ-रक्षक दल के कुछ सदस्य बड़हरा से 3 किलोमीटर की दूरी पर हंसावास खुर्द गांव में उनके आवासीय इलाके में आए. वे दोनों ही जगहें झुग्गी हैं. गौ-रक्षक दल के सदस्यों ने उन पर मांस (गोमांस) पकाने का आरोप लगाया और मारपीट शुरू कर दी, लेकिन ग्रामीणों के हस्तक्षेप से प्रवासी श्रमिकों की जान बच गई. गौ-रक्षक दल द्वारा दर्ज की गई एफआईआर के अनुसार पुलिस ने करीब 6 प्रवासी श्रमिकों को हिरासत में लिया.
इसके बाद, ये गौ-रक्षक दल दादरी शहर चले गए, जहां एक स्थानीय कबाड़ की दुकान के मालिक ने सबीर मलिक को कुछ बोतलें लेने के लिए दुकान पर आने को कहा. सबीर और उसके पड़ोसियों को उन्होंने पकड़ लिया और पीटा. फिर से स्थानीय लोगों ने उन्हें बचाने के लिए हस्तक्षेप किया. हालाँकि पुलिस को सौंपने के नाम पर, गौरक्षक दल के सदस्य उन्हें शहर के बाहरी इलाके में ले गए, जहां उन्होंने सबीर मलिक की जान ले ली. वहीं, उसके पड़ोसी मामूली रूप से घायल होने के बाद भागने में सफल रहे, जिन्हें बाद में अस्पताल में भर्ती कराया गया.
दोनों जगहों से प्रवासी परिवार अपने कुछ कीमती सामान लेकर इलाके से चले गए हैं. पिछली घटनाओं की तरह ऐसा लगता है कि सबीर मलिक की लिंचिंग भी आगामी 2024 के आम विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए एक सुनियोजित योजना है. यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि पुलिस ने हिंसा के दोषियों, गौरक्षक दल के सदस्यों के बजाय पहले हंसावास गाँव के गरीब मुस्लिम प्रवासियों को गिरफ्तार किया. गौरक्षक दल की गिरफ्तारी से आगे की हिंसा और उसके बाद सबीर मलिक की लिंचिंग से बचा जा सकता था. अब तक गौरक्षक दल से जुड़े नौ लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है. हालांकि, प्रशासन उन अन्य मुस्लिम प्रवासी परिवारों को सुरक्षा प्रदान करने में विफल रहा, जो बाद में अपनी जान के डर से भाग गए.