प्रोफेसर जीएन साईबाबा ने 12 अक्टूबर 2024 को शाम आठ बजकर छत्तीस मिनट पर अंतिम सांस ली. उनका दिल काम करना बंद कर चुका था और डॉक्टर उन्हें बचाने की पूरी कोशिश कर रहे थे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका. साईबाबा 57 साल के थे. उनका निधन पित्ताशय की पथरी निकालने के बाद पैदा हुई जटिलताओं के कारण हुई – एक प्रक्रिया जो शायद ही कभी जानलेवा होती है. लेकिन साईबाबा सामान्य परिस्थितियों में ऑपरेशन थिएटर में नहीं गए थे.
साईबाबा का शरीर 90% विकलांग था, जो एक दशक की अन्यायपूर्ण कैद और अत्यंत कठोर और यातनापूर्ण परिस्थितियों की वजह से और भी कमजोर हो गया था. अन्य राजनीतिक कैदियों फादर स्टेन स्वामी, पांडु नरोते और जिया लाल के विपरीत, साईबाबा की मौत हिरासत में नहीं हुई. लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि कैद की यातनाओं ने उन्हें मौत के करीब पहुंचा दिया. इससे पहले कि हम इस बात की जानकारी दें कि कैसे आपराधिक न्याय प्रणाली का प्रयोग उनके शरीर पर क्रूर यातनाओं को ढाने के लिए किया गया, आइए याद करें कि राज्य उनके विकलांग शरीर में समाए उनके दिमाग से कैसे डरता था.
दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर साईबाबा को 2014 में अन्य आपराधिक प्रावधानों के साथ-साथ गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए), 1967 की धारा 18 के तहत पांच अन्य लोगों के साथ ‘सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ने की साजिश रचने’ के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. उनके माओवादियों से संबंध होने का आरोप सरकार अक्सर लगाती रही है, क्योंकि उनका असली ‘अपराध’ आदिवासियों के दमन के खिलाफ राज्य द्वारा चलाए जा रहे ऑपरेशन ग्रीन हंट और अन्य दमनकारी नीतियों का खुलकर विरोध करना, और राज्य के दमन का सामना कर रहे दलितों और आदिवासियों के अधिकारों के साथ-साथ भारत में हाशिए पर पड़ी राष्ट्रीयताओं के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाना था.
2014 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सत्ता में आने के बाद से, लोकतांत्रिक और प्रगतिशील अधिकारों के प्रति प्रतिबद्ध व्यक्तियों के उत्पीड़न में काफी वृद्धि हुई है. इसमें मानवाधिकार कार्यकर्ता, वकील, पत्रकार, और छात्र जैसे कई वर्गों के लोग शामिल हैं. कुछ उल्लेखनीय घटनाओं में 2018 का भीमा कोरेगांव मामला और 2020 में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के विरोध प्रदर्शनों से जुड़ी गिरफ्तारियां शामिल हैं, जिनमें कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और पत्रकार मोहम्मद जुबैर की हिरासत भी प्रमुख है.
मौजूदा सरकार उन सभी को जेल में डालने पर आमादा है जो सत्ता के सामने सच बोलते हैं और शक्तिशाली लोगों के झूठ तथा कुकर्मों का पर्दाफाश करते हैं. 1967 का कठोर गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए), जिसमें ज़मानत मिलना बेहद कठिन है, असहमति जताने वाली आवाज़ों को दबाने का एक प्रमुख औज़ार बन गया है. इसके साथ ही, आलोचकों को अक्सर ‘माओवादी’ का लेबल लगा दिया जाता है.
वास्तव में, जबकि यूएपीए 1967 से लागू है, संसद ने केवल 2004 में यूपीए संशोधन अधिनियम, 2004 के माध्यम से आतंकवादियों को दंडित करने के लिए एक सेक्शन जोड़ा. कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के तहत यह कानून पारित किया गया था, जो 2004 में सत्ता में आई थी, और 2004, 2008 और 2013 में पर्याप्त संशोधनों के माध्यम से इसे तेजी से और अधिक कठोर बना दिया गया.
यूएपीए के तहत जेल जाने के बाद जीएन साईबाबा के शरीर और दिमाग को आपराधिक न्याय प्रणाली की पूरी ताकत का सामना करना पड़ा. राज्य ने उन्हें जितना हो सके उतने लंबे समय तक जेल में रखने और जितना हो सके उतनी क्रूर परिस्थितियों में जेल में रखने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी.
साईबाबा को गढ़चिरौली सेशंस कोर्ट द्वारा 2017 में उम्रकैद की सज़ा दी गई थी. लेकिन 2022 में बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा उन्हें प्रक्रियागत त्रुटियों के आधार पर बरी कर दिए जाने के बाद राज्य की योजनाएं ध्वस्त हो गईं. तभी राज्य ने अपने लोकतांत्रिक दिखावे को छोड़ते हुए पूरी तरह से अपनी सख्ती दिखाई और उन्हें जेल में रखने की भरपूर कोशिश की.
2022 में बॉम्बे हाईकोर्ट की एक डिवीजन बेंच द्वारा उन्हें बरी किए जाने के कुछ ही घंटों के भीतर महाराष्ट्र सरकार ने हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी. इसके बाद एक अजीब जल्दबाजी का सिलसिला शुरू हुआ.
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने पहले चीफ जस्टिस यूयू ललित की बेंच के सामने मामला पेश करने की कोशिश की, लेकिन कोर्ट का कार्य उस दिन के लिए समाप्त हो चुका था. फिर मेहता ने जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की बेंच से संपर्क किया. यहां भी हाईकोर्ट के आदेश पर रोक लगाने का अनुरोध खारिज कर दिया गया, लेकिन उन्हें चीफ जस्टिस के सामने जल्दी सुनवाई की अपील करने की अनुमति दी गई. बेंच ने कहा कि वे इस मामले को सोमवार को सूचीबद्ध कर सकते हैं, लेकिन यह भी स्पष्ट किया कि अगर वे सोमवार को सुनवाई करेंगे, तब भी बरी होने के आदेश पर रोक नहीं लगेगी.
लेकिन एक असामान्य घटनाक्रम में, मुख्य न्यायाधीश ललित ने जल्दी से शनिवार को एक विशेष सुनवाई का आयोजन किया, जिसे न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी और एमआर शाह की अध्यक्षता में सुना गया. विशेष पीठ ने कहा कि उच्च न्यायालय ने केवल प्रक्रियात्मक त्रुटियों पर ध्यान केंद्रित करके गलती की थी और इसीलिए मामले के गुणों को अनदेखा कर दिया था. इसके बाद, उन्होंने नए उच्च न्यायालय की पीठ को मामले की स्वीकृति और गुण-दोष के आधार पर सुनवाई का आदेश दिया. सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने अपनी टिप्पणी में कहा कि आतंकवाद से संबंधित अपराधों को अंजाम देने में व्यक्ति का ‘दिमाग’ सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होता है. एक विकलांग वरिष्ठ नागरिक जैसे प्रोफेसर साईबाबा के लिए सिर्फ घर में नजरबंदी पर्याप्त नहीं थी. उन्हें वापस जेल भेज दिया गया.
सर्वाच्च न्यायालय के दुर्भाग्यपूर्ण शब्दों से यह सच्चाई उभर कर आती है कि राज्य किस तरह से असहमति जताने वालों का राजनीतिक उत्पीड़न करता है. सरकार लोकतांत्रिक, मानवीय और न्यायपूर्ण समाज को बढ़ावा देनेवाली अवधारणाओं को खतरे के रूप में देखती है. जो लोग इन विचारों को मूर्त रूप देते हैं – लिखकर, बोलकर, यात्रा करके या यहां तक कि अपनी उपस्थिति से भी – उन्हें पूरी तरह से दबा दिया जाना चाहिए. साईबाबा के मामले से पता चलता है कि असहमति जताने वालों की थोड़ी सी भी शारीरिक क्षमता बर्दाश्त नहीं है.
उन्हें आखिरकार मार्च 2024 में रिहा कर दिया गया, जब बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने फिर से जीएन साईबाबा और अन्य पांच आरोपियों (जिनमें से एक की जेल में स्वाइन फ्लू से मौत हो गई) को बरी कर दिया. यह हवाला देते हुए कि अभियोजन के दौरान सबूत ‘संदिग्धद्ध थे और तकनीकी रूप से गड़बड़ी थी. राज्य ने उसकी रिहाई को फिर से रोकने की कोशिश की, लेकिन इस बार सफल नहीं हो पाया.
साईबाबा के शरीर को नष्ट करने की प्रक्रिया धीमी और निरंतर थी. जेल की कठोर परिस्थितियों में उन्हें कई बीमारियों ने घेर लिया, जिसके कारण पिछले कुछ सालों में उन्हें कई बार नागपुर के सरकारी अस्पताल ले जाया गया. यहां तक कि डॉक्टरों ने भी उन्हें जेल से बाहर ले जाने की सिफारिश की, लेकिन उन अनुरोधों को नजरअंदाज कर दिया गया. अगस्त 2022 में, उन्हें लगातार तेज बुखार हो गया. इसके कारण वे कोविड के शिकार भी हो गए. कोविड ने उनकी सेहत पर बुरा असर डाला, उन्हें लगातार सर्दी और बुखार होता रहता, वे अचानक बेहोश हो जाते और अंधेरा छा जाता.
जैसे-जैसे उनका गठिया बिगड़ता गया, जेल के डॉक्टरों ने मौखिक रूप से उन्हें एम्स, दिल्ली भेजने का सुझाव दिया था. हालांकि, परिवार को कभी भी कोई लिखित रिपोर्ट नहीं दी गई. चिकित्सा देखभाल के बजाय, साईबाबा को कुख्यात ‘अंडा सेल’ में एकांत कारावास में डाल दिया गया था – यह एक ठंडी कोठरी थी, जिसमें ऊंची दीवारें और छत के पास एक अंडाकार खिड़की थी, जिससे सर्द रात की ठंडी हवा तेजी से अंदर आती थी. 2020 में, उच्च न्यायालय ने प्रोफेसर को आपातकालीन जमानत देने से इनकार कर दिया, और नागपुर जेल के अधिकारियों ने उनकी मां की मृत्यु से पहले उन्हें आखिरी बार वीडियो कॉल पर मिलने की अनुमति नहीं दी. जब तक वह रिहा हुए, साईबाबा का शरीर छोटी-छोटी बीमारियों के प्रति कमजोर हो चुका था, जिसने उनके स्वास्थ्य को और तेजी से गिरा दिया और उनकी मृत्यु जल्दी हो गई.
प्रोफेसर जीएन साईबाबा की शहादत ने यूएपीए जैसे कानूनों की वैधता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं. यह साफ तौर पर दिखाता है कि कैसे सरकारें असहमति को दबाने के लिए न्याय प्रणाली को हथियार बनाती हैं. साईबाबा का मामला सभी राजनीतिक कैदियों के लिए जमानत और त्वरित सुनवाई की मांग को एक बार फिर प्रमुखता से सामने लाता है. क्या एक न्याय प्रणाली निष्पक्ष हो सकती है जो केवल सजा देने के लिए न्यायिक प्रक्रिया का इस्तेमाल करती हो? यदि किसी निर्दाष व्यक्ति को राजनीतिक कारणों से वर्षों तक मुकदमे का सामना करना पड़े, तो यह न्याय नहीं है. हमारे संविधान और लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुसार, किसी भी व्यक्ति को इतने लंबे समय तक न्याय से वंचित नहीं रखा जाना चाहिए. यह एक गंभीर मुद्दा है, जिस पर समाज के हर वर्ग को विचार करना चाहिए. उनकी शहादत हमें याद दिलाती है कि हमें उस सरकार के खिलाफ और जोरदार प्रतिरोध खड़ा करना होगा, जो लोगों की न्याय की आशा को समाप्त कर देना चाहती है.