वर्ष - 33
अंक - 39
21-09-2024

- अविजित पाठक  (पूर्व प्राफेसर,जेएनयू)

कोलकाता के आरजी कार मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में एक प्रशिक्षु डॉक्टर के साथ बलात्कार और हत्या की घटना को एक महीने से अधिक समय हो गया है. एक सरकारी मेडिकल कॉलेज के अंदर हुई इस घटना ने पूरे पश्चिम बंगाल को झकझोर कर रख दिया है. ताज्जुब की बात नहीं है कि युवा डॉक्टरों, छात्रों, महिलाओं और आम लोगों से लेकर सांस्कृतिक अभिजात वर्ग तक के लोगों द्वारा शुरू किए गए एक स्वतःस्फूर्त सामाजिक आंदोलन ने मजबूत मुख्यमंत्री के बतौर मशहूर ममता बनर्जी की मकबूलियत को हिलाकर रख दिया है. सरकारी मेडिकल कॉलेजों में व्याप्त भ्रष्टाचार और राजनीतिक संबंधों की कहानियां, पर्याप्त सुरक्षा और सम्मान की कमी का सामना करते प्रशिक्षु डॉक्टर तथा निष्पक्ष जांच के बारे में राज्य सरकार में विश्वास की कमी – ये सभी बातें पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री के लिए एक बड़ी चुनौती हैं, और विश्वास के इस संकट से पार पाना आसान काम नहीं है.

मुझे इस आंदोलन में उत्साहजनक चीजें  नजर आती हैं : प्रशिक्षु डॉक्टरों का इस मुद्दे के लिए लड़ने का दृढ़ संकल्प और जीवंत विरोध प्रदर्शन, जहां आम नागरिक सड़कों पर उतर रहे हैं, देर रात तक सार्वजनिक जगहों पर कब्जा कर गीतों के जरिए इंसाफ मांग रहे हैं. इसके अतिरिक्त, इस जमीनी आंदोलन को स्थापित राजनीतिक दलों के सीधे हस्तक्षेप से मुक्त रखने का प्रयास यह जाहिर कर रहा है कि ‘राजनीति’ – खासतौर से पेशेवर राजनेताओं द्वारा की जाने वाली राजनीति – को इस दौर में जनता बुरे नजरिए से देखती है.

हालांकि, सच तो यह है कि इस तरह का आंदोलन हमेशा नहीं  चलेगा. सीबीआई अपनी रिपोर्ट पेश करेगी; सुप्रीम कोर्ट अपना फैसला देगा; राज्य सरकार डॉक्टरों के साथ बातचीत करने की कोशिश करेगी; दोषियों को सजा मिलेगी; और कुछ लोग – जिसमें मुख्यमंत्री भी शामिल हैं – फांसी की सजा की मांग करते रहेंगे. और फिर, सब कुछ ‘सामान्य’ हो जाएगा! संभवतः, जो युवा डॉक्टर अभी विरोध कर रहे हैं, वे ‘सांसारिक’ चीजों को ज्यादा प्राथमिकता देना शुरू कर देंगे, और अंततः कॉर्पारेट निजी अस्पतालों में काम करने लगेंगे, और अपने उच्च वर्ग के ग्राहकों को ‘अच्छी सेहत’ एक वस्तु के रूप में बेचेंगे. और कोलकाता की सड़कों पर मुक्ति के गीत गाने वाले सांस्कृतिक अभिजात वर्ग अपने माकूल कार्यक्षेत्रों में लौट जाएंगे. और इस बीच, हम एक और बलात्कार की कहानी सुनेंगे... मत भूलिए कि हमने अपने समाज में यौन हिंसा को लगभग सामान्य बना दिया है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, 2017 से 2022 के बीच भारत में कुल 1.89 लाख बलात्कार के मामले दर्ज किए गए. और एक वर्ग-विभाजित, जाति-केंद्रित समाज में, अगर पीड़िता एक दलित महिला हो, एक घरेलू सहायिका हो, या एक अनजान गांव की स्कूल की छात्रा हो, तो किसे परवाह है? कोई सामाजिक आंदोलन नहीं होगा; कोई कोलकाता और दिल्ली की सड़कों पर जेंडर जस्टिस के गीत नहीं गाएगा.

वास्तव में, अगर हम इस सड़ांध का प्रतिरोध करना चाहते हैं, और यौन हिंसा के वायरस से मुक्त एक स्वस्थ समाज बनाना चाहते हैं, तो हमें विषाक्त मर्दानगी जैसी विकृति से लड़ने के लिए एक और आंदोलन – मानसिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक – में उतरने  की जरुरत है. छोटी उम्र से ही लड़कों को अक्सर सख्त, मजबूत और निडर होना सिखाया जाता है.

हालांकि, विषाक्त मर्दानगी का जीवन-पुष्टि करने वाले साहस, आत्मविश्वास और आंतरिक शक्ति से कोई लेना-देना नहीं है. इसके बजाय, यह दूसरों को पीड़ा पहुंचाने में क्रूर आनंद लेता  है, सहानुभूति और देखभाल की कद्र नहीं करता है, हिंसा का महिमामंडन करता है और यौन आक्रामकता को बढ़ावा देता है. सामाजिक मनोवैज्ञानिक इसे उन प्रतिगामी मर्दाना लक्षणों के एक समूह के रूप में परिभाषित करते हैं जो वर्चस्व, महिलाओं के अवमूल्यन, समलैंगिकता और बेतहाशा हिंसा को बढ़ावा देता है. विषाक्त मर्दानगी के प्रभाव के बिना बलात्कार की कल्पना करना मुश्किल है – जो कि एक महिला को एक वस्तु या यौन संतुष्टि के लिए एक बेजान खिलौने में बदल देने का सबसे चरम रूप है.

यह समझना महत्वपूर्ण है कि विषाक्त मर्दानगी को अक्सर युद्ध, सैन्यवाद, चरम राष्ट्रवाद, अत्यधिक प्रतिस्पर्धी ‘मर्दाना’ खेलों और विभाजनकारी सांप्रदायिकता के महिमामंडन के माध्यम से कायम रखा जाता है और बढ़ावा दिया जाता है. यह एक दुखद वास्तविकता है कि पूरे इतिहास में यौन हिंसा का इस्तेमाल लोगों को नीचा दिखाने, उन पर हावी होने और उनमें डर पैदा करने के लिए युद्ध के एक उपकरण के रूप में किया जाता है. उदाहरण के लिए, शोध से पता चलता है कि बांग्लादेश मुक्ति आंदोलन के दौरान पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा 2,00,000 से 4,00,000 महिलाओं का यौन उत्पीड़न किया गया था. इसके अलावा, विभाजन और उसके परिणामस्वरूप होने वाले सांप्रदायिक तनावों की बारीकी से जांच करने पर पता चलता है कि सीमा के दोनों ओर महिलाएं यौन हिंसा की शिकार थीं.

इसी तरह, लोकप्रिय संस्कृति उद्योग भी स्त्री-द्वेषी लक्षणों से पूरी तरह मुक्त नहीं है. अश्लील साहित्य की व्यापक उपलब्धता, महिलाओं का वस्तुकरण, और तत्काल यौन संतुष्टि की खोज से प्रेरित आक्रामक मर्दानगी का महिमामंडन, ये सभी महिलाओं के निरंतर पतन और अपमान में योगदान करते हैं. इसलिए, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि एनिमल जैसी फिल्म 2023 की सबसे अधिक कमाई करने वाली हिंदी फिल्मों में से एक बन गई, बावजूद इसके कि इसे स्त्री-द्वेष, विषाक्त मर्दानगी के चित्रण और अत्यधिक हिंसा के लिए काफी आलोचना का सामना करना पड़ा है. इसके अलावा, हमारे कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में भी उपद्रवी युवाओं को आपत्तिजनक गाने ‘मैं हूं बलात्कारी’ पर नाचते हुए देखना असामान्य नहीं है.

वास्तव में, विषाक्त मर्दानगी की विकृति  से लड़ना आसान काम नहीं है. इसके लिए निरंतर अंदोलन की जरूरत है – संभवतः हमारे स्कूलों और परिवारों के भीतर एक साइलेंट आंदोलन. इस आंदोलन को बढ़ावा देने के लिए, हमें अपने समाजीकरण और शिक्षा में एक क्रांतिकारी बदलाव की जरूरत है. हमें इस धारणा को त्यागना चाहिए कि ‘लड़के तो लड़के ही रहेंगे.’ इसके बजाय, लड़कों को उन गुणों को महत्व देना सीखना चाहिए जिन्हें एक आक्रामक या पितृसत्तात्मक समाज अक्सर ‘स्त्री’ या ‘स्त्रीत्व’ के रूप में खारिज कर देता है, जैसे सहानुभूति, देखभाल, संवेदनशीलता और दयालुता. इसी तरह, छोटी उम्र से ही लड़कियों को सिखाया जाना चाहिए कि वे केवल निष्क्रिय ‘गुड़िया’ नहीं हैं; इसके बजाय वे मजबूत हैं, बहादुर हैं और अपने जीवन पथ को दिशा देने में सक्षम हैं. तभी हम सही मायने में लैंगिक समानता और वास्तविक न्याय की कल्पना कर सकते हैं.

क्या हम इसके लिए तैयार हैं?

(लेखक के द ट्रिब्यून में 16 सितंबर छपे लेख Go all out to combat toxic masculinity का हिंदी अनुवाद)