वर्ष - 33
अंक - 37
07-09-2024

- कुमार परवेज

उनका दावा है कि 2025 में बिहार में सरकार बना लेंगे. राजनीति में आने से पहले वे एक चुनावी रणनीतिकार हुआ करते थे. उससे भी पहले यूनाइटेड नेशन में नौकरी करते थे. दावा है कि 2014 में मोदी की जीत उन्हीं की रणनीतिक जीत थी. 2015 में बिहार में नीतीश कुमार और फिर ममता बनर्जी की जीत में भी उन्हीं की बड़ी भूमिका थी. ऐसी जीतों के बाद उन्होंने खुद को चुनावी जीत का पर्याय घोषित कर दिया. हालांकि 2017 में पंजाब में कांग्रेस ने उन्हें बीच चुनाव से बाहर कर दिया, फिर भी जीत गई और यूपी में कांग्रेस ने उनको जिम्मेदारी दी, फिर भी हार गई. खैर चलिए, उनकी चुनावी रणनीतियां से ज्यादा जरूरी दलों और विचारधारा से परे उनकी उस राजनीतिक समझदारी पर चर्चा की है जिसे हम पोस्टमॉर्डन राजनीति कह सकते हैं  और जो अंततः जड़ जमाई सत्ता के ही काम आती है.

शुरू से ही उनका झुकाव भाजपा की ओर रहा. यूनाइटेड नेशन से आने के बाद सबसे पहले मोदी के लिए गुजरात 2013 के चुनावों में काम किया. 2014 में मोदी को देश का प्रधानमंत्री बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का भी दावा करते हैं. मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने पर उन्हें आशा थी कि पीएमओ में काम मिल जाएगा, लेकिन मोदी ने साइड कर दिया. कुछ दिन इधर-उधर भटके. इसी बीच, बिहार का चुनाव आ गया तो नीतीश कुमार जी के साथ हो लिए. 2015 के बिहार चुनाव में नीतीश कुमार को जीत दिलाने का श्रेय खुद लेने लगे. अब ये तो बिहार की जनता तय करेगी कि 2015 की जीत जनता की जीत थी या उनकी रणनीति की?

बहरहाल, चुनावी रणनीतियां मात खाने लगीं तो भाजपा से जद(यू), और फिर कई दलों में अपनी राजनीतिक किस्मत आजमाने की कोशिश की. कहीं दाल नहीं गली तो इसके बाद वे महात्मा गांधी के पद चिन्हों पर चलते हुए ‘जनसुराज’ का झंडा बुलंद करने लगे हैं और 2025 में ही सरकार बनाने का दावा कर बैठे हैं. कहते हैं – “कोई वादा नहीं, केवल एक संकल्प है. नली-गली-सड़क बने या न बने, नहर में पानी आवे या न आवे, शिक्षा जब बदलेगी तब बदलेगी, स्वास्थ्य जब सुधरेगा तब सुधरेगा, हमारा पहला प्रयास यह है कि एक साल के अंदर बिहार के हर युवा को राज्य के अंदर 10-12 हजार रुपया प्रति महीने का रोजगार उपलब्ध करा दिया जाए. बैंकों में जो हमारा-आपका पैसा है उसी से हम बिहार की किस्मत बदल देंगे. रोजगार के अवसरों को खड़ा करके इतिहास रच देंगे. आगे कहते हैं – जो आपको सरकारी नौकरी देने की बात करते हैं, वे लोग झूठे हैं. कितने लोगों को सरकारी जॉब मिलेगा. मात्र 2 प्रतिशत को ही नौकरी मिल सकती है. इसलिए नौकरी-वौकरी की बात छोड़िए, 10-12 हजार रु. के बारे में सोचिए, यह संभव है और इसे हम करके दिखाएंगे, डिस्ट्रेस पलायन को रोक कर दिखायेंगे, बिहार को बदल कर दिखायेंगे.” अद्भूत!

यह सही है कि सरकारी सेवा में रोजगार के अवसर कम हैं, लेकिन बड़ी संख्या में जो पद लंबे समय से रिक्त हैं उनपर बहाली की मांग क्यों न की जाए? प्राइवेट सेक्टर में काम कर रहे युवाओं के रोजगार के स्थायित्व व वहां आरक्षण लागू करने की मांग क्यों न उठाई जाए? 10-12 हजार रु. हाथ में उपलब्ध करवा भी दिए जाएं तो बिना माहौल बदले, उद्योग-धंधों और एक घरेलू मार्केट के विकास के बिना रोजगार का सृजन कहां होगा?

वे गांव-गांव की पदयात्रा कर रहे हैं. सामाजिक न्याय की भी बीच-बीच में बात कर लेते हैं. मुसलमानों के मजमे में भी जा रहे हैं.  लेकिन भाजपा को मूलरूप से टारगेट नहीं करते. उनके निशाने पर लालू प्रसाद यादव या नीतीश कुमार हैं. कहते हैं – “यदि लालू जी बिहार में हैं तो इसके लिए कांग्रेस जिम्मेवार है और नीतीश कुमार हैं तो इसके लिए भाजपा.” हम तो सोचते थे कि नीतीश जी के कंधों पर सवार होकर बिहार में भाजपा फली-फूली है और लगातार मजबूत हुई है. लेकिन वे एकदम से उलटी गंगा बहा रहे हैं. भाजपा भी उनके लिए अन्य पार्टियों की तरह एक पार्टी मात्र है. मुसलमानों के जलसे में कुरान की आयतें पढ़ते हैं. उसका हवाला देते हैं – हम वोट नहीं, आपकी दुआ मांगने आए हैं. वे सच्चर कमिटी का हवाला देते हैं. मुसलमानों के खराब हालात की चर्चा करते हैं और उन लोगों को निशाने पर लेते हैं जो मुस्लिम समुदाय का वोट लेते रहे हैं लेकिन उनकी ठीक से रहनुमाई नहीं की.

मुसलमानों की स्थिति बद से बदतर होने के सच को कोई नकार नहीं सकता, लेकिन भाजपा के बजाए वे कांग्रेस अथवा लालू प्रसाद के शासन को ही इसका मुख्य जिम्मेवार मानते हैं. इसलिए वे मॉब लिंचिंग की घटनाओं की चर्चा नहीं करते, बिलकिस बानो के बलात्कारियों व हत्यारों की चर्चा नहीं करते. सीएए-एनआरसी-एनपीआर विरोधी आंदोलन के समय कहां थे, उसकी चर्चा नहीं करते, उमर खालिद पर चर्चा नहीं करते, भाजपा द्वारा संविधान व लोकतंत्र को कुचल देने की साजिशों पर कुछ नहीं बोलते. बस इतना कहते हैं – मुसलमानों की दुआ चाहिए!

अगर कोई पूछता है – क्या 2014 में एक तानाशाह को गद्दी पर बैठाने में मदद करने के अपराध के लिए आप देश की जनता से माफी मांगेंगे? तो वे इस पर चुप्पी साध लेते हैं. मुसलमानों के प्रति यदि थोड़ी भी सच्ची हमदर्दी होती तो बिना किसी लाग-लपेट के उन्हें माफी मांग लेनी चाहिए थी. लेकिन नहीं, वे तो उलटे लोकसभा चुनाव 2024 के दौरान चुनाव विश्लेषक बन बैठे थे और भाजपा को 300 से अधिक सीटों पर जीत दिलवा रहे थे – ठीक गोदी मीडिया की ही तरह. वे कब रणनीतिकार बन जाएंगे, कब चुनावी समीक्षक और कब बिहार के उद्धारकर्ता – आम लोगों की समझ के परे है भाई! उनको अपने राजनीतिक अनुमान पर घमंड है इसलिए 300 के दावे में पूरी अक्खड़ता थी. वो तो भला हो करण थापर साहब का, जिन्होंने उनका एक पुराना ट्वीट दिखलाकर उनकी हेकड़ी ऐसी उतारी कि पूछिए मत. उनकी गुगली पर वे चारों खाने ऐसे चित हुए कि बार-बार पानी का ग्लास उठाना पड़ गया, ठीक वैसे ही जब करण थापर ने ही एक बार मोदी जी को पानी का ग्लास उठाकर अपना गला तर करने के लिए मजबूर कर दिया था. उसी दिन स्पष्ट हो गया था कि यह आदमी बिन पेंदी का लोटा है, कुछ और नहीं भाजपा का ही चेला है. समय रहते उनके भीतर के छुपे भाजपाई और ब्राह्मणवादी अहंकार को करण थापर ने खुरच दिया. उनकी यह अभिजात्य मानसिकता अब हर जगह पकड़ी जा रही है, जैसे – “एक 9 वीं फेल बिहार को विकास की राह दिखा रहा है. तेजस्वी यादव को जीडीपी और जीडीपी ग्रोथ के बीच अंतर नहीं पता और वह बताएंगे कि बिहार कैसे सुधरेगा?” बरबस कर्पूरी जी का जमाना याद आ जाता है जब सामंती अभिजात्य पृष्ठभूमि से आने वाले और बड़ी-बड़ी डिग्रियां रखने वाले लोग कर्पूरी जी के बारे में ऐसे ही गाली-गलौज भरी और अपमानित करने वाली भाषा का उपयोग किया करते थे. आप इतने ईमानदार हैं और राजनीति के लिए डिग्रियों को इतना ही महत्व देते हैं तो फर्जी डिग्रीधारी प्रधानमंत्री से भी तो एक बार पूछते – देश कैसे चलाते हैं? कभी किसी ने सुना कि उन्होंने प्रधानमंत्री की फर्जी डिग्री पर कोई सवाल उठाया हो? झूठ पकड़े जाने पर ऐसा बिलबिलाना गांधी का कोई शिष्य तो नहीं ही कर सकता. भला ऐसी निर्लज्जता से भी कोई झूठ बोलता है भाई? आप गांधी जी के पदचिन्हों पर चलने का दावा करते हैं, थोड़ा तो लाज-लिहाज रख लिया होता. मान ही लेते कि आपकी रणनीति कई बार असफल हुई है तो क्या हर्जा था? लेकिन नहीं आपको तो भाजपा के लिए 300 सीटों के लिए माहौल बनाना था. गजब राजनीति है आपकी भाई!

न जाने, जीडीपी पर ज्ञान बघारने वाले उनके विशेषज्ञों को यह पता है कि नहीं कि बिहार के 95 लाख परिवार गरीबी रेखा के नीचे जीते हैं. बिहार अवरूद्धता का शिकार क्यों है? वंचित समुदाय की बड़ी आबादी भूमिहीनता की शिकार क्यों है? उनके पास रहने के लिए आवास क्यों नहीं है? जो जहां बसे हैं, उसका सर्वे कर मामले को क्यों नहीं निपटाया गया? बहुत सारे राज्यों/बड़े शहरों में भूमिहीनों के लिए कदम उठाए गए. बिहार में यदि कुछ हुआ तो 1990 के पहले ही हुआ. लालू जी के समय में भी छोटे स्तर पर कदम उठाया गया. शहरी गरीबों को कॉलोनी बनाकर दी गई, लेकिन भाजपा व नीतीश राज में तो किसी एक शहर में एक घर भी गरीबों को नहीं दिया गया और न ही किसी अनाधिकृत कॉलोनी को नियमित किया गया. यह कैसे संभव है कि आप इतना निरपेक्ष होकर राजनीति करें? राज्य की अधिकांश आबादी खेती पर निर्भर है और खेती बटाईदारों के भरोसे. यह उनको पता है कि नहीं? जरूर पता होगा इतने बड़े विशेषज्ञ जो ठहरे, लेकिन ऐसे बुनियादी मसलों पर वे एक शब्द नहीं कहते. वे बटाईदारों के हक-अधिकार पर नहीं बोलते, वे एमएसपी-एपीएमसी पर नहीं बोलते, वे स्कीम वर्करों के साथ हो रहे अमानवीय अत्याचार पर नहीं बोलते, वे ठेका-मानदेय प्रथा पर कुछ नहीं बोलते. भूमि सरीखी ढांचागत समस्याओं की तो बात ही छोड़ दीजिए.

बिहार के विकास की आंतरिक जड़ता के असली कारणों पर आप चर्चा तक नहीं चाहते, लेकिन बिहार को बदल देने का सब्जबाग जरूर दिखला रहे हैं. यदि राजनीतिक रूप से आप थोड़े भी ईमानदार होते तो बिहार सरकार द्वारा हाल ही में कराए गए सामाजिक-आर्थिक सर्वे की प्रकाशित रिपोर्ट को ही अपनी कार्ययोजना का आधार बना लेते जो बिहार के गरीबों-वंचितों के संघर्षों और उनके द्वारा जताई गई लगातार दावेदारियों का नतीजा है. बिहार के मौजूदा हालात को बदलने के लिए और नई अग्रगति के लिए समग्र नीति बनाना समय की मांग है और यह काम जनांदोलनों के वास्तविक कार्यकर्ताओं, अविकास की ऐतिहासिक समस्या पर अध्ययन करने वाले अध्येताओं तथा सामाजिक सरोकार रखने वाले बुद्धिजीवियों के सुझावों के आलोक में सर्वे से प्राप्त ठोस मुद्दों पर जनांदोलनों व जनगोलबंदी के विस्तार से ही संभव हो सकेगा.

लेकिन आपको तो जनांदोलनों से चिढ़ सी है. इसलिए कहना पड़ रहा है कि आप पोस्टमॉडर्न राजनीति के एक ऐसे संस्करण हैं जिसके लिए राजनीति मैनेजमेंट से ज्यादा कुछ नहीं है. सुनते हैं कि आपने 50-50 हजार रु. के पैकेज पर युवाओं की बहाली की प्रक्रिया शुरू की है. राजनीति को धंधा बनाने को हमलोग व्यंग्य के बतौर सुनते आए थे लेकिन आपने तो सच में उसे पूरा का पूरा कारोबार बना दिया. वार्ड मेंबर से लेकर एमपी बना देने तक का नायाब नुस्खा है आपके पास. यह भी सुनते हैं कि बिहार के वे लड़के जो राज्य के बाहर से पढ़े-लिखे हैं उनको आप प्राथमिकता देते हैं. यहां के लड़कों को हेय दृष्टि से देखते हैं. यह आपका अभिजनवादी चरित्र नहीं तो और क्या है? ऐसे आपकी राजनीति का एक ठोस नमूना हमलोग पटना विश्वविद्यालय के छात्र संघ चुनाव में देख चुके हैं. कैसे छात्रों के चुनाव को आपने हाइजेक कर लिया था, वीसी के साथ सांठगांठ कर ली थी और पैसों के जरिए छात्रों के आदर्शवादी मन को विकृत कर दिया था – यह सब जाना समझा हुआ है. आप कोई ऐसे तीर नहीं है जिसे आजमाना अभी बाकी हो. विकेन्द्रीकरण की जितनी बात कर लें, आपके साथ रहने वाले लोग आपके अलोकतांत्रिक आचरण से परेशान होने लगे हैं. इसलिए जितने लोग आपसे जुड़ते हैं उतने ही लोग निकल भी जाते हैं. और हां, इसका हिसाब-किताब देते जाइएगा कि ये जो अफरात खर्चा हो रहा है वह पैसा कहां से आ रहा है? राजनीति में पैसे की पारदर्शिता काफी जरूरी है. उसका स्रोत जानना हर किसी का अधिकार है.

आप जैसे लोग और ऐसे दौर, आते-जाते रहते हैं. जब भी आता है मुक्तिबोध की ये पंक्तियां – पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है – जुबान पर बरबस चढ़ ही बैठती है. थोड़ा इसे हलका कर देते हैं – पार्टनर, आपकी पॉलिटिक्स दिन-प्रतिदिन साफ होती जा रही है. आप भाजपा के लिए ही जमीन तैयार करने में लगे हुए हैं. आपकी और भाजपा के विमर्श की अंतर्वस्तु एक ही है.

यकीनन, राष्ट्रीय जनता दल-कांग्रेस को उनके सम्मेलनों-जलसों में शामिल होने वाले अपनी पार्टी कार्यकर्ताओं पर अनुशासन का डंडा चलाने की बजाए विकास व बदलाव की शेखी बघारने वाले इस छुपे भाजपाई का राजनीतिक तौर पर पर्दाफाश करना होगा. वैसे कार्यकर्ताओं से संवेदनशील तरीके से बातचीत करनी चाहिए और उन्हें विश्वास में लेना चाहिए. भाजपा कई स्तरों पर खेलने में माहिर रही है. लोकसभा चुनाव के दौरान उसने जिस प्रकार से इन शेख चिल्ली का मौके पर इस्तेमाल किया, ठीक उसी प्रकार आने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में वह महागठबंधन के खिलाफ उन्हें एक हथियार के बतौर इस्तेमाल करने का जाल बिछा रही है. विधानसभा चुनाव में बहुत समय नहीं रह गया है. जितना संभव हो सके महागठबंधन के घटक दलों को एकताबद्ध होकर जन सवालों पर भाजपा-जदयू को घेरने की योजना बनानी चाहिए. बिहार में बदलाव समय की मांग है. इसे वाम-लोकतांत्रिक ताकतें ही कर सकती हैं.