वर्ष - 33
अंक - 37
07-09-2024

- अनुराधा भसीन

जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनावों का मतलब चुनावों के ऐलान के पहले ही पूरी तरह से बदल गया था. पहला बड़ा बदलाव जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम लाने  के बाद  हुआ, जिसने राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों – लद्दाख (बिना निर्वाचित विधानसभा के) और जम्मू-कश्मीर (निर्वाचित विधानसभा के साथ) में विभाजित कर दिया. इसके बाद हुए बदलावों ने संशय को और बढ़ा दिया.

भारतीय संविधान के अनुसार, विधानसभाओं के साथ या बिना विधानसभाओं वाले केंद्र शासित प्रदेशों के पास राज्यों के समान अधिकार नहीं होते हैं. वे अलग-अलग सीमा तक केंद्र सरकार द्वारा सीधे नियंत्रित होते हैं. 5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर की स्वायत्तता को छीनने का फैसला कश्मीर के दर्जे को कम करने का एक अभूतपूर्व कदम था.

इसलिए, केंद्र सरकार द्वारा किसी भी विधायी कार्य पर व्यापक निगरानी शक्तियों के साथ उपराज्यपाल की नियुक्ति जम्मू-कश्मीर की स्वायत्तता को कम करने का स्पष्ट अनुमोदन है. चुनाव की घोषणा से पहले उठाए गए इस कदम ने भविष्य में किसी भी विधायिका या सरकार के पास कितनी शक्ति होगी, इस बारे में अटकलों पर विराम लगा दिया.

जम्मू-कश्मीर में द्विविधा और आशा

यही कारण है कि, जबकि भारत के चुनाव आयोग और भाजपा द्वारा चुनाव की घोषणा को लोकतंत्र के उत्सव के बतौर प्रचारित किया जा रहा है, क्षेत्र के भीतर की प्रतिक्रिया सतर्कता, द्विविधा और आशा की है.

स्थानीय राजनीतिक नेता, खास तौर पर दो प्रमुख राजनीतिक घराने, इस द्विविधा का सामना कर रहे हैं कि चुनाव में भागीदारी  करें या न करें. पूरे राज्य पर शासन करने की शक्ति का अनुभव करने के बाद, अब उन्हें एक ऐसे विधानसभा चुनाव का सामना करना पड़ रहा है जो शक्तिहीन  होकर एक म्युनिसिपैलिटी में तब्दील हो गई है. उनकी दुर्दशा ‘धर्म संकट’ से कम नहीं है.

क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के लिए दूसरी चुनौती, जिनकी राजनीति  हमेशा कश्मीर की स्वायत्तता के इर्द-गिर्द घूमती रही है, वे खुद को एक मुश्किल स्थिति में पा रहे हैं. वे अपनी बुनियादी मान्यताओं के साथ विश्वासघात किए बिना धारा-370 को खत्म करने की बयानबाजी को पूरी तरह से त्याग नहीं सकते हैं, फिर भी इस पर टिके रहना उन्हें अतीत में ही फंसाए रखेगा.

जैसे-जैसे जमीनी हकीकत अधिक स्पष्ट होती जा रही है, मतदाता का खोखले वादों से मोहभंग हो रहा है. यह अहसास किया जा रहा है कि 2019 के बाद की घटनाएं अपरिवर्तनीय हैं, जैसा कि इंदिरा गांधी ने कश्मीर पर प्रसिद्ध रूप से कहा था, ‘घड़ी की सुइयों को पीछे नहीं घुमाया जा सकता’.

अगर इतिहास को देखें, तो जम्मू-कश्मीर की स्वायत्तता की बहाली असंभव प्रतीत होती है, तथा निकट भविष्य में राज्य का दर्जा पुनः प्राप्त करना और भी दूर की बात है.

इन चुनौतियों का सामना करने के बावजूद, इस बात की पूरी संभावना है कि क्षेत्रीय दल जल्द ही कमर कस लेंगे और चुनावी जंग में उतरेंगे. जम्मू क्षेत्र में खासा प्रभाव रखने वाली कांग्रेस पार्टी भी इसमें शामिल होगी. उनके पास विधानसभा के नए स्वरूप में मिलने वाले प्रतीकात्मक सीमित अधिकार के लिए कोशिश करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.

प्रमुख कारकों का शुरूआती मूल्यांकन

अगले कुछ हफ्तों में राजनीतिक गतिशीलता के लिहाज से क्या होगा और नया छोटा विधानमंडल कैसा दिखेगा? यह कई कारकों से प्रभावित होगा, जैसे कि भाजपा, कांग्रेस और अन्य पार्टियां किस तरह से गठबंधन बनाती या तोड़ती हैं और रणनीति बनाती हैं, मतदाताओं का उत्साह किस स्तर पर है और मतदान का पैटर्न कैसा है.

अभी तक, इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि मतदान प्रक्रिया काफी हद तक संसदीय चुनावों जैसी ही होगी. संभावित विधायिका पर लगाई गई सीमाओं के बावजूद, ये विधानसभा चुनाव मतदाताओं के लिए एक निश्चित महत्व रखते हैं.

सैन्यीकरण की क्रूरता और नौकरशाही के शोख-चश्मी से दबाए गए लोग क्षेत्रीय मतभेदों के बावजूद, लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व के लिए उम्मीद किए हैं, जो उन्हें रोजी-रोटी, आश्रय और बुनियादी जरूरतों जैसी जरूरी चीजों के बारे में अपनी रोजमर्रा की चिंताओं को दूर करने की जहमत कर सके – जो एक कार्यशील लोकतंत्र की नींव है. कश्मीर घाटी में कठोर दमन और अभिव्यक्ति की आजादी पर थोपी गई चुप्पी से आहत लोगों का आक्रोश हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों में मतदान केंद्रों पर भीड़ के रूप में नजर आया. यह आक्रोश आगामी विधानसभा चुनावों में भी यह एक प्रेरक कारक हो सकता है.

अभी भी कोई सटीक भविष्यवाणी करना जल्दबाजी होगी. जैसा कि कहा जाता है, जम्मू-कश्मीर में कुछ भी निश्चित नहीं है – न मौसम, न ही राजनीति.  यहां तक कि किसी भी चुनावी इलाके के बारे पूर्वानुमान लगाना मुश्किल है. भाजपा को लाभ पहुंचाने के लिए हालिया चुनावी परिसीमन में चुनावी सीमाओं को कथित तौर पर जोड़-तोड़ कर पुनः निर्धारित किया गया है, जिन्हें समझना किसी के लिए भी मुश्किल है.

घाटी का चुनावी परिदृश्य

हाल के संसदीय चुनावों के मद्देनजर संभावित परिणामों के बारे सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है.

घाटी के बारे कुछ हद तक अनुमान लगाया जा सकता है, जहां नेशनल कॉन्फ्रेंस जैसे प्रमुख कार्यकर्ताओं के साथ महत्वपूर्ण प्रभाव बनाए हुए है, और कमजोर हो चुकी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी का प्रभाव भी एक हद तक मौजूद है. भाजपा ने संसदीय चुनावों के दौरान कोई उम्मीदवार नहीं उतारा, बल्कि प्रॉक्सी पार्टियों पर भरोसा किया, जिन्होंने बहुत खराब प्रदर्शन किया. इसी तरह, कांग्रेस ने खुद को नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ जोड़ा, लेकिन कोई खास प्रभाव नहीं डाल पाई.

नेशनल कॉन्फ्रेंस ने तीन लोकसभा सीटों में से दो पर जीत हासिल की, जिसमें अनंतनाग-राजौरी सीट भी शामिल है, जिसे घाटी के साथ-साथ जम्मू प्रांत के पीर पंजाल क्षेत्र को भी परिसीमन में शामिल  किया गया था. तीसरी सीट एक स्वतंत्रा उम्मीदवार इंजीनियर राशिद ने जीती, जो वर्तमान में जेल में बंद होने के बावजूद कश्मीर के साझा संघर्षों का प्रतीक बन गए हैं और अपनी बेदाग छवि के लिए जाने जाते हैं.

कश्मीर में लोकसभा चुनावों का फैसला स्पष्ट था. लोगों ने भाजपा के खिलाफ वोट दिया, और संभवतः ऐसा करना जारी रखेंगे. अगर मौका मिला, तो वे कम बुराईयों को भी खारिज कर देंगे – पीडीपी, जिसने 2014 में भाजपा के साथ गठबंधन किया था, और नेशनल कॉन्फ्रेंस, जो नई दिल्ली के हस्तक्षेप का माध्यम बनने और राज्य की स्वायत्तता को कमजोर करने में अपनी ऐतिहासिक भूमिका के बोझ तले दबी हुई है.

चाहे भाजपा घाटी में सीधे या अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश करे या कांग्रेस नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ गठबंधन करे, यह बात मायने नहीं रखती. कांग्रेस का इस क्षेत्र में सीमित प्रभाव है, हालांकि यह कुछ क्षेत्रों में अपनी पकड़ बनाए हुए है. इसी तरह, ‘पीपुल्स कॉन्फ्रेंस’ और ‘अपनी पार्टी’ जैसे राजनीतिक दल, जिन्हें भाजपा का समर्थन प्राप्त है, छोटे-छोटे इलाकों में प्रभाव रखते हैं. असली सवाल यह है कि क्या इनमें से कोई भी पार्टी कुछ सीटें भी हासिल कर सकती है.

दो बार विधायक रह चुके राशिद एक ऐसी पार्टी का नेतृत्व करते हैं जो मूलतः वन मैन शो है. लेकिन क्या इस घटना के और भी परिणाम हो सकते हैं, जिसमें कुछ कम चर्चित लेकिन स्वीकार्य चेहरे मैदान में उतर सकते हैं? अगर ऐसा होता भी है, तो कोई महत्वपूर्ण बदलाव होने की संभावना नहीं है.

फिर भी, ये सभी कारक मिलकर नेशनल कॉन्फ्रेंस या पीडीपी को हावी होने के लिए आवश्यक संख्या हासिल करने से रोकने के लिए पर्याप्त हो सकते हैं.

जम्मू का अप्रत्याशित एवं बदलता राजनीतिक परिदृश्य

जम्मू क्षेत्र में भाजपा ने 2024 में दोनों संसदीय सीटें जीतीं, लेकिन उसकी जीत का अंतर काफी कम हो गया. मतदान पैटर्न से पता चला कि जम्मू के पहाड़ी, मुस्लिम बहुल जिलों में भाजपा का समर्थन न्यूनतम था, जहां अधिक मतदाताओं ने कांग्रेस को चुना.

जम्मू आम तौर पर उतर भारत में देखे जाने वाले मतदान रुझानों का अनुसरण करता है. हालांकि, अलग-अलग प्राथमिकताओं के साथ. लोग संसदीय चुनावों की तुलना में विधानसभा चुनावों में अलग तरह से मतदान कर सकते हैं.

एक मजबूत हिंदुत्व आधार के बावजूद, अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद जम्मू में भाजपा के खिलाफ व्यापक आक्रोश है, मुख्य रूप से भूमि और नौकरियों से जुड़ी असुरक्षा को लेकर. संसदीय चुनावों के दौरान, जम्मू के दो निर्वाचन क्षेत्रों ने लंबी चुनावी प्रक्रिया के शुरुआती चरणों में मतदान किया. तब से मोदी की अपील जो भाजपा के अभियानों का केंद्र है, कम हो गई है, जबकि कांग्रेस की राष्ट्रीय अपील मजबूत हुई है, जिसका इस क्षेत्र में पार्टी को फायदा हो सकता है.

हालांकि कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस के बीच गठबंधन का घाटी में ज्यादा असर नहीं होगा, लेकिन जम्मू के चिनाब घाटी और पीर पंजाल इलाकों में यह गेम चेंजर साबित हो सकता है. नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी के मजबूत प्रभाव वाले इलाकों में वोटों का बंटवारा बीजेपी को बढ़त दिला सकता है, जिससे उसे जम्मू में ज्यादा सीटें जीतने में मदद मिल सकती है. हाल ही में हुए परिसीमन ने हिंदू बहुल निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या में पहले ही इजाफा कर दिया है, जिससे भाजपा को फायदा होने की उम्मीद है. गुलाम नबी आजाद फैक्टर, जिसने संसदीय चुनावों के दौरान कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया था, चिनाब घाटी में भी बीजेपी की मदद कर सकता है. हालांकि, ताजा खबरें हैं कि आजाद कांग्रेस में वापस आ सकते हैं.

कांग्रेस, नेशनल कॉन्फ्रेंस और संभवतः पीडीपी के बीच संभावित गठबंधन पर बहुत कुछ निर्भर करेगा, हालांकि पीडीपी के इसमें शामिल होने की संभावना कम है. इसके अलावा, भाजपा की सफलता इस बात पर निर्भर कर सकती है कि वह कोई बड़ा सरप्राइज दे पाती है या नहीं, जिससे मतदाता आकर्षित हो. धर्म, राष्ट्रवाद और सुरक्षा पर उसका बार-बार जोर जम्मू में शायद उतना न चले, सिवाय इसके मुख्य समर्थकों के. क्या यह कोई नया राजनीतिक कथानक गढ़ेगी या फिर यह साधन संपन्न पार्टी जोड़-तोड़ के दूसरे तरीके अपनाएगी?

2019 में भारत के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य जम्मू-कश्मीर को खत्म करने का भाजपा का फैसला, इस क्षेत्र की जनसांख्यिकी को बदलने और अंततः एक हिंदू मुख्यमंत्री को स्थापित करने के लंबे समय से चले आ रहे मुहिम का हिस्सा था. यह इच्छा विधानसभा चुनाव कराने में लंबे समय तक देरी करने की वजह है.

झारखंड और महाराष्ट्र से पहले जम्मू-कश्मीर में चुनावों के ऐलान के साथ, लोगों को आश्चर्य हो रहा है –  भाजपा की रणनीति क्या है? यह देखना अभी बाकी है. अभी के लिए, एकमात्रा निश्चितता यही है कि भविष्य की विधानसभा शक्तिहीन होगी और उसमें लद्दाख का प्रतिनिधित्व नहीं होगा.

(कश्मीर टाइम्स से साभार)