- कुमार परवेज
लोकसभा चुनाव से ठीक पहले वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा पेश अंतरिम बजट में मनरेगा के लिए 86 हजार करोड़ रुपये के आवंटन के प्रस्ताव पर रेग्युलर बजट में मुहर लग गई. चुनावी फायदा के लिए लोकसभा चुनाव के दरम्यान भाजपा ने इसका जोर-शोर से प्रचार किया था. चुनाव बाद भी वह कह रही है कि मनरेगा योजना पर मोदी सरकार की विशेष निगाह है. क्या सच में ऐसा है? दरअसल, वित्तीय वर्ष 2023-24 में मोदी सरकार ने मनरेगा में महज 60 हजार करोड़ रु. का प्रावधान किया था जिसकी चौतरफा आलोचना हुई थी. जाहिर सी बात है कि चुनावी साल में इसे थोड़ा बढ़ाना उनके लिए भी जरूरी था.
वित्तीय सत्र 2023-24 में मनरेगा के लिए आवंटित राशि और वास्तविक व्यय का हिसाब-किताब क्या कहता है? केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय की वेबसाइट से मिले आंकड़ों की ही बात करें तो पिछले साल के 60 हजार करोड़ रुपये के आवंटन से इस बार का आवंटन 26 हजार करोड़ रुपये अधिक हो सकता है, लेकिन यह 2023-24 में योजना के वास्तविक व्यय 1.05 लाख करोड़ रुपये से अभी भी 19, 297 करोड़ रुपये कम है. मतलब यह है कि मनरेगा के लिए आवंटित राशि में वास्तविक रूप से कमी की गई है. सरकार की ओर से दावा किया जाएगा कि यदि इसकी अधिक मांग होगी तो राशि बढ़ा दी जाएगी; लेकिन राशि के कम आवंटन से मजदूरी का भुगतान समय पर नहीं हो पाएगा और इस कारण मांग अपने आप में कम हो जाएगी. क्या इसकी जानकारी सरकार को नहीं है? उसको सब पता है. दरअसल वह चाहती यही है - राशि कम तो मांग भी कम.
ग्रामीण श्रमिकों के साथ काम करने वाले मनरेगा संघर्ष मोर्चा के अपूर्व गुप्ता ने अंतरिम बजट के वक्त कहा था कि 2023-24 (सनद रहे कि उस समय वित्तीय वर्ष के दो महीने बाकी थे) में रोजगार की प्रवृत्ति को देखते हुए वित्तीय वर्ष 2024-25 में लंबित बकाया राशि लगभग 32 हजार करोड़ रुपए हो जाएगी. इसका मतलब है कि 86 हजार करोड़ रु. में यदि बकाए की संभावित राशि निकाल दी जाए तो इस वित्तीय वर्ष में मनरेगा में वास्तविक आवंटन महज 54 हजार करोड़ रु. की है. यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पिछले साल कुछ राज्यों जैसे पश्चिम बंगाल को जानबूझकर मनरेगा से बाहर रखा गया था, ताकि खर्च मांग से कम हो जाए. इसे 2024-25 में भी दोहराने की कोशिश की गई है. देखना होगा कि इस बार किन राज्यों को बाहर रखा गया है.
मनरेगा देश का एकमात्र ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम है, जिसमें सरकार के ही मुताबिक 14 करोड़ श्रमिक जुड़े हुए हैं. लेकिन केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के एमआईएस पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, विगत वित्तीय वर्ष में योजना के तहत आने वाले महज 2 प्रतिशत परिवारों को ही 100 दिनों का काम मिल सका. अधिकांश श्रमिकों को औसतन 50 दिनों से भी कम समय के लिए रोजगार मिला. समय पर मजदूरी का भुगतान नहीं होने और काफी कम मजदूरी के कारण मनरेगा में रूचि लगातार कम हो रही है, जबकि वह ग्रामीण गरीबों की बड़ी आबादी के जीविकोपार्जन का प्रमुख जरिया है.
बिहार की तो हालत सबसे खराब है. महीनों मजदूरी का भुगतान नहीं होता है. इस साल लगभग जनवरी माह से मजदूरी नहीं मिली है. मजदूरी मिलना यहां संयोग है. हिन्दुस्तान अखबार में अगस्त 2023 में एक रिपोर्ट छपी - “केंद्र सरकार की बेरूखी के कारण बिहार के श्रमिकों की मजदूरी भुगतान बंद है. योजना में राज्य को पैसा नहीं मिलने के कारण 150 दिन से कोई मजदूरी भुगतान नहीं हुआ. कई महीनों से श्रमिक काम तो कर रहे हैं लेकिन पैसे के अभाव से जूझ रहे हैं. 2023-24 में केंद्र सरकार ने बिहार को 17 करोड़ मानव दिवस की स्वीकृति दी थी जिसके लिए 2132 करोड़ रु. बिहार को दिए गए. लेकिन जुलाई 2023 तक ही बिहार में करीब 12 करोड़ मानव दिवस सृजित हो गए जिसके बाद योजना मद में राशि बची ही नहीं. 9 अगस्त तक ही श्रमिकों की मजदूरी बकाया करीब 800 करोड़ रु. तक पहुंच गया.” यही वजह रही कि बीते वित्तीय वर्ष 2023-24 में बिहार में मनरेगा योजना में महिलाओं की भागीदारी 56.19 से घटकर 54.28 प्रतिशत रह गई. लगभग दो फीसदी की कमी हुई है. दिव्यांगों की संख्या भी कम गयी है. एससी-एसटी परिवारों की संख्या मामूली इजाफा है. बीते पांच वर्षों से एक फीसदी से भी कम परिवारों को सौ दिनों तक का काम मिला. वित्तीय वर्ष 2023-24 में महज 0.69 फीसदी परिवारों ने ही सौ दिनों तक काम किया. केंद्र की बेरूखी तो है ही लेकिन बिहार सरकार अपनी तरफ से भी मनरेगा पर कोई खर्च नहीं करना चाहती. इस कारण यहां मनरेगा की हालत सबसे खराब बनी हुई है. चुनाव के ठीक पहले राज्य में मनरेगा मजदूरी में मामूली वृद्धि करके 228 रुपये की गई. लेकिन इतनी जबरदस्त महंगाई के बीच बीते चार वर्षों में महज 57 रुपये की बढ़ोतरी ऊंट के मुंह में जीरा के समान है. दूसरे राज्यों की तुलना में मजदूरी की यह दर काफी कम है. भ्रष्टाचार की तो बात ही बेमानी है. सामाजिक कार्यकर्ताओं, इंजीनियर्स और डेटा साइंटिस्टों के एक समूह लिबटेक इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में मनरेगा मजदूरों को अपने हफ्रते भर की कमाई का एक तिहाई से अधिक हिस्सा अपनी मजदूरी निकालने में खर्च करना पड़ता है. बावजूद, बिहार सरकार फर्जी आंकड़ों के आधार पर बेशर्मी से दावा करती है कि राज्य में मांग के अनुसार मनरेगा में काम उपलब्ध करवाए गए हैं जबकि उलटे आज बड़े पैमाने पर जॉब कार्ड ही रद्द किए जा रहे हैं. विगत साल बिहार सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय ने राज्य में तथाकथित निष्क्रिय मजदूरों के 39.36 लाख मनरेगा जॉब कार्ड रद्द कर दिए थे.
मनरेगा देश की आर्थिक वृद्धि और ग्रामीण श्रमिकों के सशक्तीकरण की एक प्रमुख योजना है, लेकिन इसके लिए आनुपातिक बजट का आवंटन होना चाहिए. मनरेगा के लिए कम आवंटन ग्रामीण अर्थव्यवस्था को आर्थिक संकट में धकेल रहा है. यह इस योजना को मार देने की सरकारी साजिश नहीं तो क्या है? वित्तीय वर्ष 2023-24 में रोजगार की मांग और पुराने बकाये को देखते हुए 86 हजार करोड़ रु. का आवंटन बेहद कम है. इसमें कम से कम 2 लाख करोड़ रुपए का बजट आवंटन होना चाहिए था ताकि लंबित मजदूरी का भुगतान हो सके और जरूरतमंदों को रोजगार मिल सके. 2 लाख करोड़ रु. का बजट आवंटन पर भी पंजीकृत ग्रामीण परिवारों को केवल 25 दिनों का ही रोजगार मिलता. बढ़ती हुई महंगाई और बकाए देनदारियों को देखते हुए मनरेगा में मजदूरी की दर कम से कम 600 रु. और 100 की बजाए 200 दिन काम का प्रावधान होना चाहिए था.