- मनमोहन कुमार
एक तरफ प्रधानमंत्री मोदी भारत को +5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनने के साथ दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने का दावा करते रहते हैं, दूसरी तरफ भारत भूखे लोगों, कुपोषित बच्चों और एनीमिया से पीड़ित महिलाओं का देश बनता जा रहा है. हाल में ही संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) और यूनिसेफ सहित चार अन्य संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों द्वारा जारी इस साल की ‘विश्व में खाद्य सुरक्षा और पोषण की स्थिति’ (एसओएफटी) रिपोर्ट में यह बात सामने आई है. इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 194.6 मिलियन (19.5 करोड़) कुपोषित लोग हैं – जो दुनिया के किसी भी देश में सबसे ज्यादा है. इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि आधे से ज्यादा भारतीय 55.6% भारतीय याने कि 79 करोड़ लोग अभी भी ‘पौष्टिक आहार’ का खर्च उठाने में असमर्थ हैं. यह अनुपात दक्षिण एशिया में सबसे ज्यादा और चैकाने वाला है जो भारत के लिए एक चेतवानी है.
ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भी भारत अपने पड़ोसी देशों नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान और श्रीलंका से भी सबसे निचले पायदान पर है, जिनकी अर्थव्यवस्था भारत से काफी छोटी है और जिन्हें भारत से गरीब माना जाता है. देश में 5 साल से कम उम्र के ऐसे बच्चों की संख्या में चिंताजनक वृद्धि हुई है, जिनका वजन उनकी लंबाई की तुलना में कम है. गौरतलब है कि भारत में इस समय पांच साल से कम उम्र के बच्चों में मृत्यु दर प्रति 1,000 बच्चों पर 37 है, जिसमें 69 फीसदी मौतें कुपोषण के कारण होती हैं, जो भयावह है. इस देश में 6 से 23 महीने की उम्र के केवल 42 फीसदी बच्चों को ही पर्याप्त अंतराल पर जरूरी भोजन मिल पाता है. हमारे देश में करीब 21 फीसदी बच्चे अपनी उम्र और लंबाई के हिसाब से कम वजन के हैं. भूख और कुपोषण का एक सामाजिक पहलू भी है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 के आंकड़ों के अनुसार, आदिवासियों और दलितों में कुपोषण की दर भारत में सबसे अधिक है, 5 वर्ष से कम आयु वर्ग के 44 प्रतिशत आदिवासी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं.
भारत में कुपोषण पर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट को चेतवानी के बतौर कार्रवाई देखा जाना चाहिए. सरकार के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह विकास के सतही मापदंडों से अपना ध्यान हटाकर भूख की बुनियादी समस्या से निपटने पर केंद्रित करे. देश की आधी से ज्यादा आबादी ‘पौष्टिक आहार’ का खर्च उठाने में असमर्थ है. बच्चों में कम वजन और कम वजन वाले शिशुओं के मामले में भारत दुनिया में पहले स्थान पर है, और महिलाओं में एनीमिया के मामले में दक्षिण एशिया में पहले स्थान पर है.
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट ऐसे वक्त में आयी है जब देश में अश्लीलता की हद तक अत्यधिक धन और विलासिता को दर्शाने वाली अंबानी के घर में शादी में 5000 करोड़ रुपये खर्च किया गया जिससे पूरे हिंदुस्तान को एक साल तक खाना खिलाया जा सकता है. भारत की जीडीपी के बारे में 2.5 लाख रुपये प्रति व्यक्ति का दावा कई लोगों को खुश कर देता है. लेकिन हकीकत यह है कि यदि आप अंबानी और अडानी को छोड़ दें, शीर्ष-10 और शीर्ष-200 व्यक्तियों को छोड़ दें, तो यह 96,000 रुपये है जो अधिकांश उप-सहारा अफ्रीकी देशों से कम है. हमारे दशकों पुराने कृषि संकट के कारण किसानों और खेतिहर मजदूरों के घरों में आर्थिक संकट छाया रहता है जिसकी वजह से लाखों शादियां टूट गई हैं. यह बेहद अपमानजनक है कि कभी न खत्म होने वाला अंबानी का विवाह तमाशा पर सारे देश की मीडिया का ध्यान हावी है, जबकि करोड़ो हिंदुस्तानियों के भुखमरी पर मीडिया ने चुप्पी साध रखी है. यह भी उतनी ही निंदनीय है. प्रमुख समाचार पत्रों ने अन्य त्रासदियों को महत्वपूर्ण कवरेज दिया है, इसलिए भूख और कुपोषण के चौकाने वाले आंकड़ों को उजागर न करने का कोई बहाना नहीं है. यह तथ्य कि देश की 55 प्रतिशत आबादी दिन में तीन बार भोजन नहीं जुटा पाती, बेहद ही दुखद है और इसे राष्ट्रीय अपमान माना जाना चाहिए.
भारत में भूख से पीड़ित लोगों की 194.6 मिलियन की संख्या ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी की संयुक्त आबादी के लगभग बराबर है. रिपोर्ट इस बात का जिक्र करती हैं कि 63 प्रतिशत निम्न और मध्यम आय वाले देशों के पास अपनी खाद्य सुरक्षा के लिए पर्याप्त धन नही हैं, लेकिन भारत में ऐसी कोई बात नही है. भारत को अपने वार्षिक बजट में खाद्य सुरक्षा हेतु पर्याप्त संसाधन आवंटित करने में सक्षम होना चाहिए, जो 2024 में 48 लाख करोड़ रुपये से अधिक है. अगर भारत में बैंक 15.5 लाख करोड़ रुपये के काॅरपोरेट ऋणों को माफ कर सकते हैं और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) 16,600 रजामंद डिफाॅल्टरों के साथ समझौता कर प्रभावी रूप से अन्य 3.5 लाख करोड़ रुपये माफ कर सकता है, तो यह स्पष्ट है कि भूख और कुपोषण से निपटने के लिए पर्याप्त धन है.
यह गौरतलब है कि भारत 2011 से अपने गरीबी के आंकड़ों पर अद्यतन जानकारी मुहैया नहीं कर सका है. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय ने वर्ष 2017-18 के लिए एक सर्वे रिपोर्ट जारी करने की योजना बनाई थी, लेकिन मोदी सरकार ने इसके प्रकाशन को रोकने का फैसला किया. इससे रिपोर्ट किए जा रहे डेटा की पारदर्शिता और सटीकता के बारे में चिंताएं पैदा होती हैं.
यह व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है कि हाल के वर्षों में अमीर और गरीब के बीच की खाई काफी बढ़ गई है. अर्थशास्त्री लुकास चांसेल और थाॅमस पिकेटी द्वारा किये गये अध्ययन के निष्कर्ष बताते हैं कि 1922 के बाद से भारत में आय की असमानता का स्तर उच्घ्चतम स्तर पर पहुंच गया है. ऑक्सफैम द्वारा जारी किये गये रिपोर्ट से पता चलता है कि भारतीयों की महज 10 प्रतिशत आबादी के पास कुल राष्ट्रीय संपत्ति का 77 प्रतिशत हिस्सा है. दरअसल भारत में यह असमानता केवल आर्थिक नहीं है, बल्कि कम आय के साथ देश की बड़ी आबादी स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा जैसे मूलभूत जरूरतों की पहुंच के दायरे से भी बाहर है.
हालांकि, कुछ लोग तर्क देते हैं कि हमारी उच्च विकास दर के कारण गरीबी कम हुई है. हेडकाउंट गरीबी अनुपात में तेज गिरावट दर्ज करने वाला यूएनडीपी द्वारा संकलित बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) जो 2013-14 में 29.17% से 2022-23 में 11.28% गिरावट दिखाता है, दोषपूर्ण तर्क पर आधारित है. गरीबी का ईमानदारी से आकलन करने के लिए वास्तविक स्थिति को दर्शाने वाले यथार्थवादी सूचकांक का उपयोग किया जाना चाहिए. प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. प्रभात पटनायक ने संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा तैयार बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) की आलोचना करते हुए तर्क दिया कि यह त्रुटिपूर्ण मान्यताओं पर आधारित है. एमपीआई एक भारित सूचकांक है जो किसी घर को गैर-गरीब मानने के मानदंडों का उपयोग करता है, जैसे पाइप वाले पानी की सुविधा, बिना छप्पर वाला घर (जो धातु की छत वाली एक कमरे की झोपड़ी हो सकती है), शौचालय, बैंक खाता होना (चाहे शेष राशि शून्य हो या नहीं हो), बाॅडी मास इंडेक्स (बीएमआई), जो वास्तव में पोषण की स्थिति को मापता नहीं है. चूंकि यह एक अनुपात है (किलोग्राम में वजन को मीटर में ऊंचाई के वर्ग से विभाजित किया जाता है), इसका सामान्य वजन और ऊंचाई वाले व्यक्तियों के लिए बिल्कुल वही मूल्य हो सकता है, जो समान आयु के गंभीर रूप से कुपोषित और बौने लोगों के लिए होता है. इसलिए, बाद वाले को भी गरीब नहीं माना जाएगा. हमारे जैसे समाज में, जहां उत्पादन के विभिन्न तरीके सह-अस्तित्व में हैं यदि हम ग्रामीण भारत में प्रति व्यक्ति प्रति दिन 2,200 कैलोरी और शहरी भारत में प्रति व्यक्ति प्रति दिन 2,100 कैलोरी तक पहुंच को गरीबी को परिभाषित करने के मानदंडों के रूप में लेते हैं, जैसा कि योजना आयोग ने 1973 से किया था, तो ग्रामीण भारत में गरीबों का अनुपात 1993-94 में 58% से बढ़कर 2011-12 में 68% और 2017-18 में 80% से अधिक हो चुका है. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे से पता चलता है कि नरेंद्र मोदी की सरकार के कार्यकाल में पिछले चार-पांच साल में बच्चों के पोषण के मामले में कोई प्रगति नहीं हुई है. लाॅकडाउन में यह हालत और खराब हुई होगी. हंगर-वाॅच का सर्वे बताता है कि 66 फीसदी लोग अब कम खा रहे हैं. इसके बावजूद भारत की मौजूदा सरकार मिड-डे मील और आइसीडीएस जैसी योजनाओं का बजट लगातार कम कर रही है. जबकि ये योजनाएं कुपोषण और भूख से लड़ाई में मददगार हैं. कृषि परिवारों के लिए स्थिति आकलन 2019 की नवीनतम रिपोर्ट से पता चलता है कि कृषि आय चिंताजनक रूप से कम है, यहां तक कि मनरेगा श्रमिकों से भी कम है. पांच सदस्यों वाले परिवार के लिए औसत मासिक आय 10,218 रुपये है, इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि आधी से अधिक आबादी भूखे सोती है.
खाद्य सुरक्षा कानून, तमाम योजनाओं और अनाज भंडारों में भारी मात्रा में अनाज होने के बावजूद अगर भारत भूख पर सवार और कुपोषण का शिकार है तो इसका कारण यह कि मोदी सरकार में इन्हें दूर करने की ना तो इच्छाशक्ति है ना ही कोई एजेंडा. अव्वल तो नीतियां और योजनायें, खराब क्रियान्वयन और भ्रष्टाचार की समस्या से जूझ रही हैं. साथ ही इन्हें लगातार अपर्याप्त और समय पर बजट ना मिलने जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है.
दरअसल मोदी सरकार की विकास की समझ उल्टी है. यह सरकार सिर्फ आर्थिक वृद्धि को ही विकास मानती है, जबकि विकास का मतलब यह नहीं है. आर्थिक वृद्धि और विकास में काफी फर्क है. विकास का मतलब यह भी है कि किसी देश में न केवल प्रति व्यक्ति आय या उसकी जीडीपी बढ़े, बल्कि स्वास्थ्य, शिक्षा, डेमोक्रसी, सामाजिक सुरक्षा की हालत में भी सुधार हो.
भूख और कुपोषण आज भी भारत की सबसे बड़ी समस्या बनी हुयी है लेकिन मोदी सरकार इसे खुले रूप स्वीकार करने को तैयार नहीं है. भारत के राजनीतिक खेमे में इसको लेकर कोई खास चिंता या चर्चा देखने को नहीं मिल रही है. भारतीय राजनीति में भूख और कुपोषण एक महत्वहीन विषय होता जा रहा है. वैसे तो हमारे देश में भूख, गरीबी और कुपोषण दूर करने के लिये कई योजनायें चलायी जा रही है लेकिन ये महज ‘योजनायें’ ही साबित होती जा रही हैं. वैसे कहने को तो देश में ‘राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून’ भी है लेकिन यह ठीक से लागू नहीं है, साथ ही यह खाद्य सुरक्षा को बहुत सीमित रूप से संबोधित करता है.
भारत में, लगभग 80 करोड़ लाभार्थियों को प्रति व्यक्ति प्रति माह पांच किलोग्राम मुफ्त अनाज प्रदान करने की सरकार की योजना इस संदर्भ में बहस का विषय है कि वास्तव में कितना अनाज इच्छित प्राप्तकर्ताओं तक पहुंचता है और यह कब तक जारी रहेगा क्योंकि इसे कोरोना महामारी के कारण शुरू किया गया था. अगर कोई सोचता है कि ऐसी योजनाएं समकालीन भारत में गरीबी के लिए रामबाण हैं, तो वे गलत हैं. केवल ऐसे कार्यक्रमों पर निर्भर रहना गरीबी उन्मूलन के जटिल मुद्दे को बहुत सरल बना देता है.
अतः मोदी सरकार के लिए प्रगति के सतही मापदंड से हटकर भूख के बुनियादी मुद्दे पर ध्यान देना अति आवश्यक है. भूख मिटाने के लिए हमें खेती के स्तर से शुरुआत करनी होगी. किसानों को उचित मूल्य और आर्थिक व्यवहार्यता से वंचित करना भूख और कुपोषण को बनाए रखेगा. कृषि में निवेश करके, किसानों के लिए उचित मूल्य सुनिश्चित करके और मजबूत कल्याण कार्यक्रमों को लागू करके, भारत एक ऐसे भविष्य का मार्ग प्रशस्त कर सकता है, जहां प्रत्येक नागरिक को पौष्टिक भोजन उपलब्ध हो. इसके अलावा, केवल ऐसे कार्यक्रमों पर निर्भर रहना गरीबी उन्मूलन के जटिल मुद्दे को बहुत सरल बना देता है. सच्ची प्रगति के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है जो न केवल खाद्य सुरक्षा, बल्कि रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और सामाजिक सुरक्षा को भी संबोधित करता है. अंततः, इसके लिए नव-उदारवादी पूंजीवाद की बाधाओं से आगे बढ़कर अधिक न्यायसंगत और समावेशी आर्थिक माॅडल की ओर कदम उठाना होगा. भूख के खिलाफ लड़ाई सिर्फ एक ज़रूरत नहीं है. यह हमारा नैतिक दायित्व भी है.