‘विश्व आदिवासी दिवस’ पर (9 अगस्त) धर्मपुर, जिला- वलसाड (गुजरात) में आदिवासी संघर्ष मोर्चा, गुजरात की ओर से एक कन्वेंशन काआयोजन किया गया.
कन्वेंशन में भाकपा(माले) नेता कामरेड अमित पाटनवाडिया मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे.
आदिवासी नेता का. आनंदभाई, का. हरेशभाई वरली, का. मोहनभाई खोखोरिया, का. सुरेश गायकवाड़ तथा आदिवासी नेत्री का. सुमित्राबेन केंग को लेकर अध्यक्ष मंडल का गठन किया गया था. आदिवासी संघर्ष मोर्चा, गुजरात राज्य के संयोजक का. कमलेश गुराव ने कन्वेनशन का संचालन किया.
कन्वेंशन ने वलसाड जिला कलेक्टर के माध्यम से महामहिम राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के समक्ष देश की आदिवासी समूह की बुनियादी हितों को रक्षार्थ एक ज्ञापन प्रस्तुत किया. इस ज्ञापन के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं –
9 अगस्त विश्व आदिवासी दिवस को राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया जाए.
5 वीं अनुसूचित क्षेत्रों की घोषणा आदिवासियों की हित के मद्देनजर उचित ढंग से की जाए.
असम के कुछ पहाड़ी जिलों को स्वायत्त राज्य घोषित किया जाए.
‘भील राज्य’ : गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल जिलों तथा केंद्र शासित दादर व नगर हवेली तथा दमन को लेकर एक अलग ‘भील राज्य’ का गठन किया जाए.
मनरेगा के बजेट में उचित वृद्धि की जाए और इसका बेहतर क्रियान्वयन किया जाए.
पेसा तथा ‘समता जजमेंट कानून’ के प्रावधानों को और मजबूत किया जाए और इसका क्रियान्वयन सख्ती से हो.
अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून – 2006 का पूर्ण क्रियान्वयन हो.
आदिवासियों की धार्मिक मान्यताओं तथा रीति-रिवाजों का संरक्षण किया जाए.
आदिवासियों को हर तरह की सरकारी आर्थिक व शैक्षणिक सहायता प्रदान की जाए.
आदिवासियों की विस्थापन तथा पलायन को अविलंब रोकने का कदम उठाया जाए.
आदिवासियों के प्रति भेदभाव तथा अत्याचार को रोकने के लिए मौजूदा कानूनों को और मजबूत बनाया जाए.
समान नागरिक आचार संहिता के नाम पर आदिवासियों की परंपरागत संस्कृति व रीति-रियाजों पर हमले को रोका जाए.
मौलिक अधिकारों, बुनियादी हितों, लोकतांत्रिक अधिकारों की मांगों पर संघर्ष करनेवाले तमाम गिरफ्तार, विचाराधीन व सजायाफ्ता आदिवासियों को अविलम्ब रिहा किया जाए.
आदिवासियों पर अत्याचार करनेवाले तमाम सरकारी अधिकारियों को दण्डित किया जाए.
गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, दादर व नगर हवेली और दमन में लगभग साढ़े 4 करोड़ से अधिक की संख्या में आदिवासी निवास करते हैं. ये आदिवासी बहुत सारे छोटे-बड़े अलग-अलग आदिवासी समूहों में विभाजित हैं. इनमें सबसे बड़ा समूह है भील आदिवासियों का. इनकी आवादी लगभग 1 करोड़ 70 लाख हैं.
अंग्रेजी हुकूमत के पहले से ही यहां के आदिवासी स्वतंत्रतापूर्वक यहां निवास करते थे. परन्तु अंग्रेजी हुकूमत ने इनके परंपरागत शासन व सामाजिक प्रणाली को ध्वस्त कर इन्हें अंग्रेजी हुकूमत के पिट्ठू जागीरदारों का गुलाम बना दिया था.
अंग्रेज और उनके पिछलग्गू सामंतों द्वारा ढाए गए लूट और अत्याचार के खिलाफ आदिवासी जनता ने अनगिनत संघर्ष किया. फलस्वरूप अंग्रेजी हुकूमत को आदिवासी विस्तारों से पीछे हटना पड़ा तथा आदिवासियों की परंपरागत स्वायत्तता के लिए कुछेक कानूनी सुधार लाने पड़े.
1947 में भारत के आजाद होने के बाद भाषा, संस्कृति तथा भौगालिक इकाई के आधार पर अलग राज्यों के गठन हुआ. देश के उत्तर-पूर्व में कई राज्यों और लगभग तीन दशक पहले झारखंड और छत्तीसगढ़ अलग राज्यों का भी गठन हुआ. लेकिन, बहुत बड़ी आदिवासी आवादी होने के बावजूद अबतक ‘भील प्रदेश’ का गठन नहीं हुआ.
गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र आदि समेत कहीं भी निवास करनेवाले अन्य लोगों की तुलना में आदिवासी समाज विकास के मामले में बहुत पीछे है.
उनकी भाषा, बोली, संस्कृति का विकास होने की बात तो दूर उल्टे उनकी सारी धरोहरें विलुप्त होने के कगार पर खड़ी हैं. एक अलग राष्ट्रीयता के रूप में इनके अलग पहचान को भी समाप्त किया जा रहा है.
एक ‘वारली’ युवा महाराष्ट्र में हो तो मराठी, गुजरात में हो तो गुजराती और राजस्थान में हो तो राजस्थानी कैसे हो सकता है?
अपनी बोली और भाषा को छोड़कर उन्हें अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करना पड़ता हैं. इसिलए वे गुजरात मे गुजराती बच्चों से और महाराष्ट्र में मराठी बच्चों से हमेशा पीछे रह जाते हैं.
यह पूरा भौगोलिक क्षेत्र संविधान की पांचवीं अनुसूची के अंदर आता हैं, पर इन गैर आदिवासी प्रभुत्ववाले राज्यों में पांचवीं अनुसूची का 1% लाभ भी आदिवासियों को नहीं मिलता हैं.
पेसा कानून, समता जजमेंट और यहां तक कि ‘आदिवासी व अन्य वन निवासियों की वन अधिकार कानून-2006’ को भी इन इलाकों लागू करना तो दूर, उल्टे जल-जंगल-जमीन पर इनका परंपरागत अधिकार भी दिनोंदिन छिनता जा रहा हैं.
ऐसी विकराल स्थिति से निजात पाने के लिए और आदिवासी समाज के तेजी से विकास के लिए आये दिन इस क्षेत्र के आदिवासियों की बीच से उठनेवाले ‘भील प्रदेश’ मांग को भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी), लिबरेशन तथा आदिवासी संघर्ष मोर्चा समर्थन करता हैं.