वर्ष - 33
अंक - 34
17-08-2024

‘जाति व्यवस्था भारत के एकीकरण का कारक है और जो कोई जाति व्यवस्था पर हमला करता है, वो भारत का दुश्मन है’ – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हिंदी मुखपत्र पांचजन्य ने ऐसा एक संपादकीय टिप्पणी में कहा है. हाल के वर्षों में जाति व्यवस्था का ऐसा खुलमखुल्ला महिमामंडन संभवतः नहीं हुआ है. यह संपादकीय भारत की आजादी की 77वीं वर्षगांठ की पूर्व बेला पर आया है. आरएसएस, जो अगले साल अपना शताब्दी वर्ष मनाएगा, जो आजकल भारत की ‘आधिकारिक (सरकारी) विचारधारा’ का संरक्षक है, की इस टिप्पणी को एक अलग-थलग दक्षिणपंथी प्रतिगामी शेखी मानकर हल्के में नहीं लिया जा सकता.

यह सर्वज्ञात है कि आधुनिक भारत की जिस परिकल्पना का उदय भारत के स्वतंत्रता संग्राम से हुआ और जिसे बाबा साहब अंबेडकर की अध्यक्षता में लिखे गए संविधान में बुलंद किया गया, आरएसएस की भारत की परिकल्पना उसकी घनघोर अंतरविरोधी है. पर इस तरह की मुंहजोरी, राज्य सत्ता पर संगठन की मजबूत होती पकड़ के चलते उपजे अंहकार और मनमानी की छूट के कारण ही हो सकती है. अभी हाल में ही तो हमने केंद्रीय गृह मंत्रालय का वह पत्र देखा, जिसमें सरकारी कर्मचारियों के आरएसएस और उसकी गतिविधियों में शामिल होने पर लगे प्रतिबंध को हटा दिया गया है.

अपने शुरुआती वर्षों में आरएसएस के विचारकों ने अपने विचारों को छुपाने की कोशिश नहीं की और भारत की आदर्श सामाजिक संहिता के तौर पर मनुस्मृति के प्रति अपने आग्रह को वे खुल कर प्रकट करते थे, साथ ही मुसोलिनी व हिटलर के विचारों व नीतियों के अनुसरण की जरूरत पर भी वे जोर देते थे. लेकिन कानूनी रूप से खुद को वैध बनाए रखने के लिए उसे आजाद भारत के संविधान सम्मत विमर्श के अनुकूल खुद को ढालना पड़ा. और फिर चुनाव जीतने और सत्ता में बने रहने के लिए उसे प्रतिस्पर्धात्मक चुनावी राजनीति की जरूरतों के हिसाब से भी खुद को अनुकूलित करना पड़ा. आरएसएस के ब्राह्मणवादी कोर ने बेहद छलावेपूर्ण तरीके से अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/अति पिछड़ा वर्ग के मित्रा की छवि के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करने में महारत हासिल कर ली है.

इस प्रक्रिया में आरएसएस ने जाति और आरक्षण के सवाल का सामना करने के लिए कई मुंह वाली रणनीति ईजाद कर ली है. तीन दशक पहले, जब विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने पहली बार मंडल कमीशन की कुछ सिफारिशों को लागू करने की घोषणा की तो संघ ब्रिगेड उसके कट्टर आरक्षण विरोधी पक्ष के लिए जाना गया. लेकिन गुजरते हुए वक्त के साथ संघ ब्रिगेड ने आरक्षण विरोध की निरर्थकता को महसूस किया और ऐसा करने के बजाय उसने, एक अति पिछड़ी जाति को दूसरी अति पिछड़ी जाति के खिलाफ खड़ा करके, जाति को विभाजनकारी सोशल इंजीनियरिंग के औजार के रूप में इस्तेमाल करने में विशेषज्ञता हासिल कर ली. 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले तो हमने मोहन भागवत को ऊंची जाति के हिंदुओं से यह कहते भी सुना कि आरक्षण को 200 साल तक स्वीकार करने के लिए तैयार रहें ताकि 2000 साल तक नीची जातियों ने जो भेदभाव झेला है, उसे खत्म किया जा सके!

भागवत के मुंह से कही गयी दो हजार साल के जाति उत्पीड़न की खात्मे की बात ऐसी लगी जैसे दशकों के इंकार के बाद एक विलंबित स्वीकारोक्ति हो. अब चूंकि भाजपा सत्ता में है तो निश्चित ही उसके पास आरक्षण में कांट-छांट करने और उसका निषेध करने के बेहतर माध्यम हैं – सीधे तौर पर खात्मे का आह्वान किए बिना ही, व्यवस्था के भीतर ही खेल कर वह ऐसा कर सकती है. ईडबल्यूएस कोटा के नाम पर पूरी तरह ऊंची जातियों के लिए आरक्षण की शुरुआत करने से लेकर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/अति पिछड़ा वर्ग के कोटे की सीटों को ‘एनएफएस’ (कोई योग्य नहीं पाया गया) के फर्जी और मनमाने बहाने से खाली रखने से लेकर, ‘लेटरल एंट्री’ के जरिये आरक्षण को खुलेआम धता बताने और जबरदस्त तरीके से निजीकरण को बढ़ावा देने तक, मोदी सरकार ने आरक्षण की व्यवस्था को ही ध्वस्त करने के कई तरीके ईजाद कर लिए हैं.

फिर भी लगता है कि जाति जनगणना की मांग से आरएसएस हड़बड़ा गया है. जाति जनगणना से सभी संस्थाओं और समाज के हर क्षेत्र में उचित प्रतिनिधित्व की मांग ज़ोर पकड़ेगी, इस बात की कल्पना से संघ भयभीत है और इसलिए संघ ब्रिगेड जाति जनगणना के असल विचार को ही अविश्वसनीय बनाने के लिए बेचैन हो रहा है. पांचजन्य के संपादकीय के हिसाब से जाति हिंदू धर्म है, जाति भारतीय राष्ट्र है और सभी जातियां बेहद सद्भाव के साथ एकजुट हैं. पर अगर जाति इतनी केंद्रीय और सर्वव्यापी है तो आरएसएस जाति की अद्यतन गिनती से क्यूं भयभीत है? क्यूंकि लिंग के साथ जाति – भारत में सामाजिक असमानता और असंतुलन का सबसे बड़ा संकेतक है. जैसे संघी प्रचार भारतीय अर्थव्यवस्था के कुल आकार को दिखाकर नग्न रूप से दिखने वाली आर्थिक असमानता को ढकना चाहता है, ठीक उसी प्रकार से वह जाति को सद्भावनापूर्ण और एकजुट समाज व्यवस्था तथा राष्ट्रीय इकाई के तौर पर प्रस्तुत करके, इस कपोल कल्पना के जरिये सामाजिक प्रतिनिधित्व की प्रकृति में मौजूद भीषण विषमता को दबाना चाहता है.

जाति की तरह ही संघ-भाजपा सत्ता प्रतिष्ठान भारत के क्रोनी पूंजीवादी व्यवस्था के प्रति भी बड़ी रक्षात्मक मुद्रा में रहता है. अडानी के त्वरित उभार और विशालकाय कॉरपोरेट घपलों तथा धन-सम्पदा व जनता की परिसंपत्तियों को अडानी ग्रुप के हाथों सौंपने की परिघटना के लिए जिम्मेदार मोदी-अडानी गठजोड़ की भूमिका पर उठने वाले हर सवाल को भारत-विरोधी षड्यंत्र बता कर खामोश करने की कोशिश होती है. अडानी-अंबानी की कहानियां अनिवार्यतः दौलत के राज्य प्रायोजित संचय और अमीरी के नग्न प्रदर्शन की कहानियां हैं, परंतु संघी विमर्श उन्हें बड़ी राष्ट्रीय उपलब्धियों की तरह दिखा कर इस तथ्य को छुपाने के लिए इस्तेमाल करता है कि यदि सबसे धनी पांच प्रतिशत को हटा दिया जाये तो भारत की प्रति व्यक्ति आय, दुनिया के सबसे गरीब देशों के समकक्ष होगी. वास्तव में जाति और क्रोनी पूंजीवाद भारत में चरम सामाजिक और आर्थिक विषमता को बयान करने वाले परिपथ हैं, लेकिन संघ की भारत की परिकल्पना में ये दोनों भारत की सामाजिक स्थिरता और आर्थिक विकास के दो स्तंभ हैं.

संघ की परिकल्पना में असमानता का भारतीय सफलता की कहानी के तौर पर उत्सव मनाया जाता है. यह अंबेडकर के स्वतंत्राता, समानता और बंधुत्व के सिद्धान्त जिसमें ये तीनों तत्व एक अभिन्न समग्र के रूप में मौजूद हैं, पर आधारित लोकतांत्रिक गणराज्य के तौर पर की गयी समतामूलक भारत की परिकल्पना के एकदम विपरीत हैं. अंबेडकर के लिए ‘एक वोट, एक मूल्य’ की राजनीतिक समानता को सबसे बड़ा खतरा भारत में गहरे तक पैठी सामाजिक विषमता और बढ़ती आर्थिक असमानता में निहित था और भारत के एक आधुनिक एकजुट राष्ट्र बनने की राह में जाति सबसे बड़ी बाधा थी. और इधर आरएसएस है जो जाति को भारत की स्थिरता और शक्ति का मूल स्रोत मानता है.

मोदी संविधान का कितना ही जाप क्यूं ना करें, न्याय और समानता की संवैधानिक परिकल्पना के बिना एकजुट आधुनिक भारत बन ही नहीं सकता, और आरएसएस की विश्वदृष्टि उसके एकदम विपरीत है. कोलकाता की युवा डॉक्टर के भयानक बलात्कार और हत्या के विरुद्ध जिस तरह से राज्यव्यापी विरोध प्रदर्शन हुए और पूरे देश में एकजुटता प्रदर्शन हुए, यह देखना प्रेरणास्पद था कि दर्जनों ‘रीक्लेम द नाइट (रात्रि में घूमने-फिरने, आने-जाने के अधिकार को हासिल करो)’ प्रतिवाद सभाओं और ‘हमें न्याय चाहिए’ के नारों ने स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या को महिलाओं की स्वतंत्रता के लिए अभूतपूर्व सामूहिक दखल के तौर पर मनाया गया. आज़ादी का आज का मतलब सिर्फ अतीत को याद करना नहीं है, इसका आशय हमारे संवैधानिक लक्ष्यों और अधिकारों को हासिल करने के लिए संघर्ष करना भी है और भारत को एक लोकतांत्रिक गणराज्य के तौर पर आगे बढ़ने के लिए आरएसएस के मंसूबों को निर्णायक तौर पर शिकस्त देनी होगी.